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शास्त्री की नीतियां अपनाकर भारत के सुनहरे सपने साकार करें: आलोक मेहता

संभवतः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह स्वीकारने में संकोच नहीं होगा कि महात्मा गाँधी के आदर्शों के साथ वह लालबहादुर शास्त्री के बताए रास्तों से भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के प्रयास कर रहे हैं।

समाचार4मीडिया ब्यूरो 1 week ago

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।

हर वर्ष की तरह 2 अक्टूबर को महात्मा गाँधी और भारत में आत्म विश्वास और उदार आर्थिक क्रांति के जनक लालबहादुर शास्त्री को सादर नमन के साथ स्मरण किया जाएगा। महात्मा गाँधी के लिए देश दुनिया को अधिक बताने की आवश्यकता नहीं होती। शास्त्रीजी भी देश में 'जय जवान जय किसान' के नारे को लेकर अधिक याद किए जाते हैं। उनकी ईमानदारी, त्याग और पाकिस्तान को पहले युद्ध में पराजित करके ऐतिहासिक समझौते की भी चर्चा अधिक होती है। लेकिन क्या वर्तमान राजनीतिक आर्थिक परिवर्तनों के दौर में क्या यह कहना गलत होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शास्त्रीजी द्वारा शुरु की गई उदार आर्थिक नीतियों, कृषि और खाद्यान्न उत्पादन में आत्म निर्भरता, दुग्ध क्रांति, पाकिस्तान चीन को करारे जवाब देने की सुरक्षा व्यवस्था और राजनेताओं के भ्र्ष्टाचार को कठोरता से रोकने का प्रयास कर रहे हैं?  

दुखद बात यह है कि कांग्रेस पार्टी ने शास्त्रीजी को मरणोपरांत समुचित सम्मान और कार्यों का श्रेय नहीं दिया। यदि प्रामाणिक तथ्यों को सामने रखा जाए तो नरसिंहा राव, मनमोहन सिंह से बहुत पहले प्रधानमंत्री के रुप में लालबहादुर शास्त्री ने ही `भारत को समाजवादी के नाम पर मूलतः कम्युनिस्ट विचारधारा और राजसत्ता पर नियंत्रित अर्थ व्यवस्था को बदलने के क्रन्तिकारी निर्णय लिए थे। इसलिए` संभवतः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह स्वीकारने में संकोच नहीं होगा कि महात्मा गाँधी के आदर्शों के साथ वह लाल बहादुर शास्त्री के बताए रास्तों से भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के प्रयास कर रहे हैं।

वास्तव में, शास्त्री जी को आज़ादी के बाद भारत का पहला आर्थिक सुधारक कहा जा सकता है। शास्त्री जी को उनका उचित सम्मान न मिलने का एक कारण शायद यह है कि सुधारों के पहले चरण की शुरुआत करने का उनका प्रयास कई गलतफहमियों से घिरा हुआ है। उदाहरण के लिए, यह व्यापक रूप से माना जाता है कि 1966 में भारतीय रुपये के अवमूल्यन का निर्णय और क्रियान्वयन इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद किया था। यह सच है कि उनके प्रधानमंत्रित्व काल में ही रुपये का अवमूल्यन किया गया था, लेकिन  भारत सरकार की फाइलों में रिकॉर्ड मिल सकता है कि मुद्रा के अवमूल्यन का निर्णय, जो एक आवश्यक कदम था, शास्त्री जी द्वारा लिया गया था।

उस समय वित्त मंत्रालय में कार्यरत आई.जी. पटेल ने अपने संस्मरण में बताया था कि कैसे शास्त्री जी के प्रधानमंत्री रहते हुए मुद्रा के अवमूल्यन का निर्णय सैद्धांतिक रूप से लिया गया था और अनौपचारिक रूप से अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) को इसकी जानकारी दी गई थी। उनके वित्त मंत्री टीटी कृष्णमाचारी अवमूल्यन के निर्णय के विरुद्ध थे। वह आयात और औद्योगिक गतिविधियों पर सरकारी नियंत्रण हटाने और मुद्रा का अवमूल्यन करने के खिलाफ भी थे। शास्त्री जी के लिए, युद्ध की तबाही के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति ऐसी थी कि देश के पास आर्थिक उदारीकरण और मुद्रा अवमूल्यन के लिए आईएमएफ-विश्व बैंक के नुस्खों को मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। इसलिए, शास्त्री जी ने कृष्णमाचारी को वित्त मंत्री पद से हटाने के लिए एक राजनैतिक और नैतिक तरीका निकाला।

कृष्णमाचारी के लिए, यह उनके राजनीतिक जीवन में दूसरी बार था जब उन्हें वित्त मंत्री के पद से हटना पड़ा। एक बार नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में, मुंद्रा कांड के बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था। अब, शास्त्री जी के अधीन, कृष्णमाचारी के बेटे के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप थे। शास्त्री जी ने जांच पूरी होने तक उन आरोपों से उन्हें मुक्त करने से इनकार कर दिया और वे चाहते थे कि उनके वित्त मंत्री तब तक पद से हट जाएं जब तक कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश द्वारा की जाने वाली जांच में उन्हें क्लीन चिट न मिल जाए। कृष्णमाचारी ने इसे अपमान के रूप में लिया और अपना इस्तीफा दे दिया, जिसे शास्त्री जी ने तुरंत स्वीकार कर लिया और सचिन चौधरी को नया वित्त मंत्री नियुक्त किया।

शास्त्री जी उसके बाद ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहे। उनकी उत्तराधिकारी इंदिरा गांधी ने चौधरी को वित्त मंत्री के रूप में बनाए रखा और शास्त्री द्वारा लिए गए मुद्रा अवमूल्यन के निर्णय को लागू किया। शास्त्री की सुधारवादी साख उनकी आर्थिक टीम से भी स्पष्ट थी। उनकी टीम के सभी सदस्य -एस भूतलिंगम, धर्म वीर, आईजी पटेल और एलके झा - अर्थव्यवस्था को मुक्त करने और कृषि को आधुनिक बनाकर और निजी क्षेत्र को नियंत्रण से अपेक्षाकृत स्वतंत्रता के साथ काम करने की अनुमति देकर भारतीय अर्थव्यवस्था की क्षमता को साकार करने के लिए सुधारों की तत्काल आवश्यकता में विश्वास करते थे। यहां तक ​​कि नेहरु के सबसे करीबी वी.के. कृष्ण मेनन और के.डी. मालवीय को भी शास्त्री जी के मंत्रिमंडल से हटना पड़ा। इस बात का संकेत था कि शास्त्री  ऐसी व्यवस्था चाहते थे जो लाइसेंस राज  से दूर होकर बाजार पर अधिक निर्भर हो।

शास्त्री जी के नेतृत्व वाली सरकार के कुछ फैसलों में भी बदलाव की बयार महसूस की गई। जब शास्त्री जी ने प्रधानमंत्री का पद संभाला, तब तक तीसरी पंचवर्षीय योजना की विफलता स्पष्ट हो चुकी थी। अगस्त 1965 में प्रधानमंत्री ने संसद में घोषणा की कि आर्थिक गतिविधियों पर सरकारी नियंत्रण पर पुनर्विचार किया जाएगा। इसके तुरंत बाद, स्टील और सीमेंट जैसे क्षेत्रों के लिए विनियमन में ढील दी गई। इतना ही नहीं, शास्त्री जी ने उन सभी प्रमुख सार्वजनिक क्षेत्र परियोजनाओं की समीक्षा का आदेश भी दिया जो तब तक शुरू नहीं हुई थीं।

शास्त्री जी ने परियोजनाओं पर निर्णय लेने की प्रक्रिया को योजना आयोग से अलग-अलग आर्थिक मंत्रालयों में स्थानांतरित करके शासन को विकेंद्रीकृत करने की भी कोशिश की। शास्त्री जी ने आयोग के लिए अनिश्चित कार्यकाल के आधार पर नियुक्ति योजना को निश्चित अनुबंधों में बदल दिया। उन्होंने विशेषज्ञों, अर्थशास्त्रियों और वैज्ञानिकों से नीतिगत अंतर्दृष्टि प्राप्त करने के लिए 1964 में राष्ट्रीय विकास परिषद नामक एक समानांतर निकाय की भी स्थापना की। जिसने योजना आयोग के दायरे और भूमिका को कम कर दिया।

शास्त्री की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में, खाद्यान्न की कमी को कृषि में निवेश को स्थानांतरित करके हल किया जा सकता था। कालाबाज़ारी का समाधान प्रोत्साहन में था, न कि दबाव में; सार्वजनिक उपक्रमों की अक्षमता के लिए निजी क्षेत्र में जाना ज़रूरी था और आयात विकल्प के लिए निर्यात प्रोत्साहन की ज़रूरत थी। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने भी योजना आयोग के पर क़तर कर उसे नीति आयोग में बदला तथा राज्यों की आवश्यकताओं के अनुसार वित्तीय प्रबंधन पर जोर दिया। इस दृष्टि से राहुल गांधी और उनसे बुजुर्ग मल्लिकार्जुन खड़गे सहित कांग्रेस पार्टी को शास्त्रीजी की नीतियों निर्णयों को भी याद कर लेना चाहिए।

इन दिनों राहुल कांग्रेस की कर्नाटक और अन्य राज्य सरकारें अमूल दूध डेयरी के प्रवेश का विरोध कर रहे हैं। जबकि शास्त्री जी ने श्वेत क्रांति, दूध के उत्पादन और आपूर्ति को बढ़ाने के लिए एक राष्ट्रीय अभियान , आनंद, गुजरात के अमूल दूध सहकारी को समर्थन देकर और राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड बनवाया था। उन्होंने कंजरी में अमूल के मवेशी चारा  भंडार  के उद्घाटन के लिए 31 अक्टूबर 1964 को आनंद का दौरा किया। चूंकि उन्हें इस सहकारी की सफलता जानने में गहरी दिलचस्पी थी, इसलिए वे एक गांव में किसानों के साथ रात रुके, और यहां तक ​​कि एक किसान परिवार के साथ रात का भोजन भी किया। उन्होंने किसानों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में सुधार के लिए देश के अन्य हिस्सों में इस मॉडल को दोहराने के लिए कैरा जिला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ लिमिटेड (अमूल) के तत्कालीन महाप्रबंधक वर्गीज कुरियन के साथ विचार विमर्श किया।

चीन और पाकिस्तान से मुकाबले के लिए भारत की परमाणु शक्ति का कार्यक्रम भी शास्त्रीजी के कार्यकाल में शरु हुआ। 24 अक्तूबर, 1964 को  महान वैज्ञानिक  होमी भाभा ने आकाशवाणी पर परमाणु शक्ति पर बोलते हुए कहा था, "पचास परमाणु बमों का ज़ख़ीरा बनाने में सिर्फ़ 10 करोड़ रुपयों का ख़र्च आएगा और दो मेगाटन के 50 बनाने का ख़र्च 15 करोड़ से ज़्यादा नहीं होगा। दिसंबर 1965 में लाल बहादुर शास्त्री ने भाभा से शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु विस्फोट के काम को तेज़ी देने के लिए कहा। दूसरे बड़े वैज्ञानिक होमी सेठना के अनुसार पाकिस्तान के साथ 1965 के युद्ध के दौरान शास्त्री ने भाभा से कुछ ख़ास करने के लिए कहा।

भाभा ने कहा कि इस दिशा में काम हो रहा है। इस पर शास्त्री ने कहा आप अपना काम जारी रखिए लेकिन कैबिनेट की मंज़ूरी के बिना कोई प्रयोग मत करिएगा।  1965 में पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ जंग छेड़ दी। शास्त्री ने जंग और आर्थिक चुनौतियों के बीच प्रसिद्ध नारा ‘जय जवान जय किसान’ दिया। साथ ही अन्न बचाने के मकसद से लोगों को एक समय का खाना नहीं खाने का आह्वान भी किया। शास्त्रीजी ने कहा कि देश का हर नागरिक एक दिन का व्रत करे तो भुखमरी खत्म हो जाएगी। खुद शास्त्रीजी नियमित व्रत रखा करते थे और परिवार को भी यही आदेश था।

भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ इस जंग में बड़ी जीत हासिल की। 26 सितंबर, 1965 को भारत-पाकिस्तान युद्ध ख़त्म हुए चार दिन ही हुए थे जब प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने दिल्ली के रामलीला मैदान में हज़ारों लोगों के सामने ऐलान किया, "सदर अयूब ने कहा था कि वो दिल्ली तक चहलक़दमी करते हुए पहुंच जाएंगे। वो इतने बड़े आदमी हैं। लहीम शहीम हैं। मैंने सोचा कि उन्हें दिल्ली तक चलने की तकलीफ़ क्यों दी जाए। हम ही लाहौर की तरफ़ बढ़ कर उनका इस्तक़बाल करे।

मेरा सौभाग्य रहा है कि मुझे शास्त्री परिवार के तीन सदस्य हरेकृष्ण शास्त्री, सुनील शास्त्री और अनिल शास्त्री से कई बार मिलने बात करने और उनके राजनीतिक शैक्षणिक सामाजिक कार्यों को देखने समझने के अवसर मिले। कांग्रेस और भाजपा ने भी उनकी सेवाओं का उपयोग किया लेकिन वे शायद वर्तमान राजनीति की जोड़ तोड़ में अधिक सफल नहीं हो सके। शास्त्रीजी के बेटे सुनील शास्त्री बताते थे कि 'बाबूजी देश में शिक्षा सुधारों को लेकर बहुत चिंतित रहते थे। अक्सर हम भाई-बहनों से कहते थे कि देश में रोजगार के अवसर बढ़ें। इसके लिए बेहतर मूल्यपरकर शिक्षा की जरूरत है।'

अनिल शास्त्री अब भी लालबहादुर शास्त्री प्रबंधन और टेक्नोलॉजी संस्थान को बहुत कुशलता से संचालित कर रहे हैं। पिता के संस्मरण पर लिखी एक किताब में शास्त्रीजी के बेटे सुनील शास्त्री ने  लिखा है, बाबूजी की टेबल पर हमेशा हरी घास रहती थी। एक बार उन्होंने बताया था कि सुंदर फूल लोगों को आकर्षित करते हैं लेकिन कुछ दिन में मुरझाकर गिर जाते हैं। घास वह आधार है जो हमेशा रहती है। मैं लोगों के जीवन में घास की तरह ही एक आधार और खुशी की वजह बनकर रहना चाहता हूं।' महात्मा गांधी और लालबाहदुर शास्त्री का पुण्य स्मरण करते हुए यही संकल्प दोहराने की जरुरत है कि करोड़ों लोगों के जीवन में खुशियां बढ़ती रहे।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )


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