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जिंदगी मौत न बन जाए संभालो यारो: आलोक श्रीवास्तव
ऐसे हालात में मीडिया कम्पनियों में HR नाम की संस्था से भी बेहद कोफ़्त होने लगी है। दीपावाली के दीपक जलाना और होली के रंग लगाना उनका काम नहीं है।
समाचार4मीडिया ब्यूरो 3 months ago
आलोक श्रीवास्तव, लेखक, कवि और वरिष्ठ मीडियाकर्मी।
वरिष्ठ पत्रकार भाई अरुण नौटियाल भी चले गए। एक अनुभवी और खरा पत्रकार फिर असमय जाता रहा या यूँ कहिए जाने दिया गया। हम और हमारा सिस्टम बाय डिज़ाइन फिर चूक गए। पता चला कि उनके जाने का कारण साइलेंट हार्टअटैक था। ज़ाहिर है दिल पर कोई बड़ा बोझ या प्रेशर रहा होगा। यह प्रेशर पेशे का भी हो सकता है।
बीते 30 सालों से अपनी ज़िंदगी को न्यूज़रूम के इर्द गिर्द जीने वाले अरुण जी ने कुछ दिनों पहले ही अचानक अपने मीडिया संस्थान से इस्तीफा दिया था। चुपचाप घर चले आए थे। यह उनका एक और साइलेंट एग्जिट था। इसके कारण वह और उनका मीडिया संस्थान ही बेहतर जानते होंगे। इसी मीडिया में 25 साल के अपने अनुभव से इतना ज़रूर कह सकता हूँ कि अपनी मर्जी से कोई पेशेवर पत्रकार कभी ऐसा एग्ज़िट नहीं लेता। हालात बनते हैं या बनाए जाते हैं, जिनकी परिणीति उसे यहाँ तक पहुँचा देती है।
जानता हूँ कि सोशल मीडिया पर शोक श्रद्धांजलियाँ और उन्हें याद करते संदेश अभी कुछ दिन चलेंगे। फिर स्मृतियों के संदूक में वहीं बंद हो जाएँगे जहाँ हमारे न जाने कितने साथी पहले से मौजूद हैं। सब आगे बढ़ जाएँगे, बस पीछे रह जाएगा एक और परिवार, अपने सीने पर दर्द का पहाड़ लिए। लेकिन ज़िंदगी से ऐसे अनुभवी और क़द्दावर पत्रकारों का यह साइलेंट एग्जिट आख़िर क्यों हो रहा है? क्या इसके समाधान में किसी की रुचि नहीं है?
क्या क्वाटर रिज़ल्ट, बैलेंसशीट मुनाफे, TRP की रेस में हम अपने पत्रकार साथियों को संख्या और बजट में गिनने लगे हैं ? अफसोस है कि अब अनुभव बोझ हो गया है जिसके लिए 'डेडवुड' जैसे जुमलों का इस्तेमाल होता है। उस पर कड़वा और घिनौना सच यह कि आगे बढ़ने की भूख में हम अपने ही साथियों को खाने लगे हैं। बिना यह सोचे कि सिस्टम अगर नरभक्षी हो गया है, तो बचेगा कोई भी नहीं।
जो आज अपने वरिष्ठ साथियों की मेहनत पर फ़तवे जारी कर रहे हैं, हिसाब उनका भी बन रहा है। उम्र उनकी भी बढ़ रही है। मत भूलिए कि कम्पनियों की बैलेंसशीट में हर ओहदा एक संख्या हैं और आदमी केवल हेडकाउंट। ऐसे हालात में मीडिया कम्पनियों में HR नाम की संस्था से भी बेहद कोफ़्त होने लगी है। दीपावाली के दीपक जलाना और होली के रंग लगाना उनका काम नहीं है। बल्कि संस्थान में काम करने वाले जीते-जागते इंसान को सँभालना और बेहतर काम के योग्य बनाए रखना उनकी ज़िम्मेदारी है।
उसे काम करने वालों के लिए भी उतना ही फिक्रमंद होना चाहिए जितना काम करवाने वालों के लिए। लेकिन HR नाम की यह लाचार और लिजलिजी संस्था 'घुटन-फैक्ट्री' में एक खिड़की तक नहीं खोल पा रही है। तभी तो छुट्टी का हिसाब रखने वालों की भी बड़ी बे-मुरव्वती से छुट्टी कर दी जाती है। कोई कुछ नहीं बोलता, क्योंकि लोगों की आवाज़ बनने का दावा करने वालों का यह साइलेंट सच है। देश-दुनिया की ख़बर लेने वाले मीडिया कर्मियों की ख़बर, उनके अपने साथी ही नहीं ले रहे हैं, तो कोई और क्या ही लेगा?
अब भी समय है, सोचिए ! और कुछ बढ़े न बढ़े, उम्र सबकी बढ़ती ही है। जीवन सबका है और परिवार भी सबके हैं। अपने साथियों, बड़े-बूढ़ों या सीनियर्स के अपमान का यह पाप लेकर हम अपने लिए या अपनों के लिए किसी सुखद परिणाम की कल्पना कैसे कर पाएँगे?
समय मिले तो प्रेमचंद की कहानी ‘बूढ़ी काकी’ एक बार फिर पढ़िएगा, क्योंकि यह सब देख, आने वाली पीढ़ी का कोई बच्चा हमारे लिए भी जूठन के कुल्हड़ ज़रूर सम्भाल रहा होगा। भाई अरुण नौटियाल को विनम्र व भावभीनी श्रद्धांजलि और उनके परिवार के लिए साहस की प्रार्थना।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
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