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संसद में जिम्मेदारी भरे व्यवहार का प्रदर्शन करें सांसद: शशि शेखर
हमारी संसद और सांसद आज नहीं तो कल, इस मर्म को समझ जाएंगे। ऐसा कहने की सबसे बड़ी वजह यह है कि हम फ्रांस, चीन या रूस की तरह नहीं हैं।
समाचार4मीडिया ब्यूरो 3 months ago
शशि शेखर, प्रधान संपादक, हिंदुस्तान।
फ्रांस के इतिहास में 8 नवंबर, 1793 की वह दोपहर एक दर्दनाक वाकये के चलते उन पन्नों पर दर्ज है, जिन्हें तवारीख खुद तकलीफ के साथ याद करती है। उस दिन जेन मैरी रोलैंड को गिलोटिन पर चढ़ाया गया था। उनके आखिरी अल्फाज थे- ‘ओ आजादी, तेरे नाम पर कैसे-कैसे जुल्म ढाए गए!’ मुझे संसद की कार्यवाही देखते वक्त मैडम मैरी अक्सर याद आती हैं और मन में कौंधता है- हे लोकतंत्र, तेरे नाम पर...।
लोकतांत्रिक व्यवस्था से चुनकर जनतंत्र के सबसे पवित्र प्रासाद में पहुंचे हमारे सांसद कैसा आचरण करते हैं? यू-ट्यूब के अंतरिक्ष में जब कोई शोधार्थी वर्षों बाद इस तमाशानुमा बहस को देखेगा, तो क्या कहेगा?अगर वह बहुत सकारात्मक रुचि-अभिरुचि का व्यक्ति हुआ, तो शायद उसे फ्रांस का उदाहरण याद आ जाए। वहां 1789 में राज्य-क्रांति हुई थी। इसकी शुरुआत अजब-गजब थी। राजा से रोटी की मांग करते अनियोजित तौर पर इकट्ठा हुए लोगों के ऊपर पुलिस ने वर्साय में गोली चला दी थी।
अपने साथियों के शव कंधों पर लाद लोग पेरिस लौटे थे। उसी एजेंडा रहित बदहाल भीड़ ने मशहूर खगोलविद् जीन-सिल्वेन बैली की सदारत में उस दिन टेनिस कोर्ट पर जो शपथ ली, उसने धरती से राजतंत्र की विदाई की शोकांतिका लिख दी। हालांकि, फ्रांस को अपनी नई व्यवस्था गढ़ने में अराजकता भरे पचास वर्षों से गुजरना पड़ा। खुद मैरी उसका शिकार हुईं। हमारी संसद और सांसद आज नहीं तो कल, इस मर्म को समझ जाएंगे। ऐसा कहने की सबसे बड़ी वजह यह है कि हम फ्रांस, चीन या रूस की तरह नहीं हैं।
ईसा से सदियों पहले हमारे यहां लोकतंत्र की जो बेल रोपी गई थी, उसे 15 अगस्त, 1947 को अपने नसीब से साक्षात्कार का सौभाग्य हासिल हुआ। तब से आज तक हमारी संसदीय व्यवस्था अपनी रहगुजर खुद-ब-खुद गढ़ रही है। भारत के साथ या आसपास जन्मे पड़ोसी मुल्कों का हाल देख लीजिए, स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। हम कुछ लोगों की उम्मीद के मुताबिक भले सरपट न दौड़ रहे हों, पर अपने हक-हुकूक को लेकर खासे जागरूक हैं। पिछले महीने संपन्न हुए चुनाव का उदाहरण ले लीजिए। मतदान की तारीखें घोषित होने तक कौन सोचता था कि पिछली दो बार से सत्ता की चौहद्दियों पर पूरी मजबूती से काबिज भारतीय जनता पार्टी तीसरी बार बहुमत हासिल करने से वंचित रह जाएगी? क्या नहीं था उसके पास?
प्रधानमंत्री मोदी का सक्षम नेतृत्व, सबसे बड़ा पार्टी संगठन और अकूत संसाधन। मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस उसके समक्ष कहीं ठहरती नहीं नजर आती थी। छोटे-मोटे क्षेत्रीय दलों की तो बिसात ही क्या थी, पर वे ही भाजपा के विजय-रथ की सबसे बड़ी बाधा साबित हुए। यह जनादेश दोनों पक्षों को क्या संदेश देता है?सत्तारूढ़ दल के लिए साफ पैगाम है कि आपको अपनी रीति-नीति फिर से गढ़नी होगी। चुनावी राजनीति के लिए आपने जो रसायन बनाया था, वह पहले जैसा कारगर नहीं रहा। इसी तरह, विपक्ष के लिए सबक है कि इतराइए मत।
आप आगे बढे़ हैं, पर अभी भारतीय जनता पार्टी की कुल सीटों से कम हैं। सत्ता में वापसी के लिए आपको बहुत मेहनत करनी है। इन सबक और संदेशों का पहला इम्तिहान संसद में होना था। इस परीक्षा में कौन पास हुआ और कौन फेल? शायद आप भी मेरी तरह राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई बहस से दहल गए होंगे। सांसदों और सदन के नेताओं से उम्मीद की जाती है कि वे जिम्मेदारी भरे व्यवहार का प्रदर्शन करेंगे, लेकिन हुआ इसका उल्टा। ऐसा लग रहा था कि सत्ता पक्ष अपेक्षित परिणाम न मिलने की वजह से आक्रमण को ही बचाव मान रहा है।
संभवत: ऐसा पहली बार हुआ है, जब सत्ता पक्ष ने विपक्षी आचरण के खिलाफ पहले सत्र में ही निंदा प्रस्ताव पारित करा दिया। इसके विपरीत विपक्ष प्रतिरोध के बजाय प्रतिशोध की मुद्रा में दिखाई पड़ा। मसलन, महुआ मोइत्रा अच्छा बोलती हैं। उनकी शैली जबरदस्त है और लहजा धारदार। उन्होंने तार्किक दृष्टि से अपनी बात कहनी शुरू की, पर यह कहना भी नहीं भूलीं कि आपने मुझे इस सदन से बाहर करने की जो गलती की थी, उसकी भारी कीमत चुकाई। महुआ ने कहा, ‘पिछली बार जब मैं यहां बोलने के लिए खड़ी हुई थी, तो मुझे बोलने नहीं दिया गया।
लेकिन सत्ताधारी दल ने एक सांसद की आवाज दबाने की बहुत भारी कीमत चुकाई है। मुझे बैठाने के चक्कर में जनता ने आपके 63 जन को ‘परमानेंटली’ बैठा दिया।’ इसी तरह, पिछली बार तथाकथित ‘अमर्यादित आचरण’ के लिए जो सौ से अधिक सांसद निलंबित किए थे या जिनकी सदस्यता खारिज कर दी गई थी, वे भी जैसे बदला चुका रहे थे। नतीजतन, दोनों सदन की आसंदियों पर बैठे महानुभावों को सीधे आक्षेप झेलने पडे़। क्या पक्ष-विपक्ष के नेताओं को अगले पांच साल के लिए इस सदन में गंभीर चिंतन नहीं करना चाहिए? उनके पास विचार-मंत्रणा के लिए तमाम मुद्दे हैं।
वे जिस नई दिल्ली में रहते हैं, पिछले हफ्ते तक उसका कंठ पानी की कमी से सूख रहा था। यहां पहली बारिश भी राहत नहीं, आफत लेकर आई। कुछ ही घंटे में राजधानी के तमाम हिस्से जलाशय बन गए। आधा दर्जन से अधिक लोगों को जान गंवानी पड़ी और करोड़ों की संपत्ति बर्बाद हो गई थी। इससे पहले जल संकट के दौरान पानी के लिए गर्मियों में बाकायदा कत्ल हुआ और खून बहा था। हमारे सांसद जिस महानगर में रहते हैं, अगर वही बेहाल है, तो संसद देशवासियों के लिए खुशहाली के सपने कैसे बुन सकती है? देशहित के कई मुद्दों पर दोनों पक्षों में आमराय बनानी होती है।
जब प्रतिस्पद्र्धा निजी रंजिश को हवा दे रही हो, तो इसकी उम्मीद कैसे की जा सकती है?प्रतिशोध और प्रतिकार की यह प्रवृत्ति सिर्फ सदन के अंदर नहीं दिख रही। बदले की राजनीति देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग तरीके से आकार ले रही है। गुजरी जून में सत्ताबदर हुए जगन रेड्डी के खिलाफ आंध्र प्रदेश के नए निजाम की कार्रवाई इसका उदाहरण है। जगन ने मौजूदा मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू को सलाखों के पीछे धकेल दिया था।
अब नायडू उन्हें ध्वस्त करने पर आमादा हैं। इसी तरह, कर्नाटक और तेलंगाना में आरोप है कि कांग्रेस अपने विपक्षियों को उसी अंदाज में ‘निपटा’ रही है, जैसा आरोप वह दिल्ली की हुकूमत पर लगाती आई है।सदन के अंदर और बाहर हमारे सत्तानायकों का यह चरित्र और चेहरा लोकतंत्र के लिए शुभ संदेश नहीं देता। इस प्रवृत्ति को रुकना चाहिए, पर इसे थामेगा कौन? यह नेक काम भी तो हमारे ‘माननीयों’ को करना है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - हिंदुस्तान डिजिटल।
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