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मिस्टर मीडिया: पत्रकारों का धर्म बनता है कि वे अपने गले में घंटी बांधने का काम स्वयं करें!

पत्रकारों के लिए वकील या डॉक्टर की तरह पेशेवर डिग्री कितनी जरूरी है? यह सवाल दशकों से भारतीय पत्रकारिता और बौद्धिक गलियारों में तैरता रहा है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो 1 year ago

राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार ।।

गैर जिम्मेदार पत्रकारिता और एक सकारात्मक चिंतन

पत्रकारों के लिए वकील या डॉक्टर की तरह पेशेवर डिग्री कितनी जरूरी है? यह सवाल दशकों से भारतीय पत्रकारिता और बौद्धिक गलियारों में तैरता रहा है। मौजूदा काल खंड में पत्रकारिता का गैर जिम्मेदार चेहरा और गिरता स्तर एक बार फिर इस बहस को जन्म दे रहा है। सुखद यह है कि अब पहल समाज की ओर से हो रही है। पहले पत्रकार बिरादरी कहती थी कि सरकार या कोई अन्य नियामक संस्था दख़ल न दे। हम खुद ही अपना घर ठीक कर लेंगे। कमोबेश यही बात पत्रकारिता की आचार संहिता के मामले में कही जाती रही। संभवतया इसके पीछे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हक की रक्षा करना रहा होगा, लेकिन चालीस वर्षों में न तो पत्रकारों ने अपना घर ठीक किया और न गिरते स्तर पर लगाम लगाई। ऐसे में कोई समाज या देश कब तक लोकतंत्र के इस कथित चौथे स्तंभ की मनमानी बर्दाश्त कर सकता है? अलबत्ता सरकार पत्रकारों पर चाबुक चलाने या उन्हें अपने पाले में रखने के प्रयास कर सकती थी, जो इन दिनों वह कर रही है। कह सकते हैं कि अब पत्रकारों के हाथ से बाजी फिसल चुकी है। प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की नई पहल को आप इसका नमूना मान सकते हैं। 

बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल हुई। इसमें मांग की गई कि पत्रकारों के लिए शैक्षणिक और पेशेवर अध्ययन अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। इसके मद्देनजर प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने बीते दिनों एक कवायद की। उसने एक उप समिति का गठन किया। समिति के संयोजक प्रो. जे.एस. राजपूत, वरिष्ठ पत्रकार, दैनिक भास्कर के समूह संपादक प्रकाश दुबे और वरिष्ठ पत्रकार सुमन गुप्ता समिति के सदस्य थे। समिति ने देश के तमाम पत्रकार संगठनों, शैक्षणिक संस्थानों, विश्वविद्यालयों और चुने हुए वरिष्ठ पत्रकारों को आमंत्रित किया और उनकी राय जानी। मैंनें भी इसमें हिस्सा लिया। करीब ढाई घंटे चली इस बैठक में देश भर के चुनिंदा शैक्षणिक संस्थानों के प्रतिनिधि, पत्रकार संगठनों के नुमाइंदे भी शामिल हुए। लंबी बैठक का निचोड़ यह था कि पत्रकारों के लिए एक तो सर्वमान्य पाठ्यक्रम होना चाहिए, जो उन्हें प्रतिबद्ध और निष्पक्ष-निर्भीक पत्रकार बनाए। मेरा कहना था कि ऐसे पाठ्यक्रम तो पिछले पच्चीस बरस से चल रहे हैं। मुश्किल यह है कि ये पाठ्यक्रम आज के अखबारों, चैनलों, रेडियो और डिजिटल माध्यमों के हिसाब से अपडेट नहीं हुए हैं। करीब चौबीस विश्वविद्यालयों के साथ मेरे अपने अनुभव के आधार पर यह बात रखी थी। जब हम अपने न्यूज रूम के लिए डिग्रीधारी पत्रकारों का चुनाव करते हैं तो उन्हें नए सिरे से प्रशिक्षित करना पड़ता है। ऐसे में किसी भी डिग्री या डिप्लोमा का लाभ ही क्या? विश्वविद्यालय अनुदान आयोग भी इस मामले में कुछ नहीं कर रहा है। यही नहीं, पत्रकारिता पढ़ाने वाले अनेक शिक्षकों ने एक दिन भी पत्रकार के रूप में काम नहीं किया होता। उन्हें मैदानी अनुभव नहीं होता। हालांकि जयपुर के संजीव भानावत जैसे कुछ प्राध्यापक अपवाद भी हैं। कुछ विश्वविद्यालय अपनी आर्थिक सेहत ठीक रखने के लिए फ्रेंचाइजी केंद्र खोलने की अनुमति देते हैं। सवाल यह है कि जब यूनिवर्सिटी के अपने मुख्यालय पर काबिल शिक्षक नहीं मिलते तो एक जिला या तहसील स्तर पर ऐसे केंद्र कहां से शिक्षक लाएंगे?

इन प्रश्नों के घेरे में हम आशा कर सकते हैं कि प्रेस काउंसिल कुछ ठोस कदम उठाएगी। हालांकि उसकी अपनी सीमाएं भी हैं। टीवी, रेडियो और डिजिटल माध्यम उसके क्षेत्राधिकार में नहीं आते। बीस साल से मैं अनेक मंचों पर एक मीडिया काउंसिल के गठन की बात उठा रहा हूं, जो पत्रकारिता के सभी अवतारों के लिए हो। अभी तक तो कुछ नहीं हुआ और मान लीजिए सरकार नहीं भी करे तो पत्रकारों और संपादकों का अपना धर्म बनता है कि वे अपने गले में घंटी बांधने का काम स्वयं करें। अन्यथा अब वक्त और समाज आपके सामने  चाबुक लेकर खड़ा है मिस्टर मीडिया!  


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