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मुश्किल दौर में है अफगानी मीडिया, भारतीय पत्रकारों को आगे आना होगा मिस्टर मीडिया!
इन दिनों अफगानिस्तान के घटनाक्रम ने हिन्दुस्तानी पत्रकारिता की चिंताएं भी बढ़ा दी हैं। दो दशक से उस खूबसूरत पहाड़ी मुल्क में आजाद ख्याल की अखबारनवीसी पनपी है
राजेश बादल 3 years ago
राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार
इन दिनों अफगानिस्तान के घटनाक्रम ने हिन्दुस्तानी पत्रकारिता की चिंताएं भी बढ़ा दी हैं। दो दशक से उस खूबसूरत पहाड़ी मुल्क में आजाद ख्याल की अखबारनवीसी पनपी है। उसका थोड़ा बहुत श्रेय भारत को भी जाता है। यह अलग बात है कि भारत समेत समूचे उपमहाद्वीप की पत्रकारिता इन दिनों अनेक खतरों का सामना कर रही है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ऐसी अघोषित बंदिशें किसी भी देश की लोकतांत्रिक सेहत को नुकसान पहुंचाती हैं। अफगानिस्तान के पत्रकार भी अब लंबे समय तक नए संकटों से जूझेंगे। निश्चित रूप से भारतीय पत्रकार वर्ग को उनके समर्थन में आगे आना होगा।
शुक्रवार को प्रेस क्लब ऑफ इंडिया ने इन्हीं सरोकारों के चलते एक आयोजन किया। क्लब के अध्यक्ष उमाकांत लखेरा इस पहल के लिए साधुवाद के पात्र हैं। उनके कमान संभालने के बाद क्लब ने जिस तरह वैचारिक अंगड़ाई ली है, उससे यह संस्था अपनी मौजूदा छवि से बाहर आई है। बहरहाल! शुक्रवार के इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में देसी-परदेसी पत्रकार शामिल हुए और अफगानिस्तान के मसले पर जानकारों की राय समझने का प्रयास किया। अफगानिस्तान पर खास शोध कर चुके संपादक - पत्रकार वेद प्रताप वैदिक, वहां राजदूत से लेकर अनेक भूमिकाएं निभा चुके विवेक काटजू और अफगानी मुद्दों पर राजनयिक की नजर रखने वाले गौतम मुखोपाध्याय ने अपने विचार रखे। संचालक की भूमिका में बीबीसी के पूर्व पत्रकार सतीश जेकब थे।
सार यह निकल कर आया कि यकीनन उस देश के लोकतांत्रिक ढांचे पर तालिबानी हमला हुआ है। वे अपने देश में ही खलनायक बनकर उभरे हैं, लेकिन गांधी जी के सिद्धांत- पाप से घृणा करो, पापी से नहीं आज प्रासंगिक है। उधर, आज के विश्व में तालिबान को भी अपने आप को बदलना होगा। बीस बरस पहले की बर्बर छवि से अगर वे मुक्त नहीं हुए तो फिर उनका अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। आधी आबादी के साथ नाइंसाफी करके वे अफगानिस्तान को आगे नहीं ले जा सकते। इसलिए हिन्दुस्तान के चीन, रूस और पाकिस्तान के साथ इन दिनों जैसे रिश्ते हैं, वे भारत सरकार के लिए यह संदेश देते हैं कि तालिबानी सरकार के साथ संवाद आवश्यक है।
कार्यक्रम में उपस्थित अन्य अनेक पत्रकारों से मैनें चर्चा की। उन सबकी यही राय थी कि अफगानी मीडिया के लिए यह बेहद मुश्किल दौर है। उस देश के साथ भारत के ऐतिहासिक-पौराणिक रिश्ते रहे हैं। वहां मानव अधिकारों की रक्षा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए भारतीय पत्रकारों को आगे आना होगा। अगर हम पास पड़ोस में पत्रकारिता के दमन पर चुप्पी साधे रहे तो आवश्यकता पड़ने पर हमारे लिए भी पड़ोसी मुल्कों से समर्थन की आवाज नहीं उठेगी। वर्तमान में भारतीय उपमहाद्वीप भले ही अनेक देशों में बंटा हो, मगर अतीत की जड़ें आज भी इन सारे मुल्कों को जोड़ती हैं। यह बात समझनी होगी मिस्टर मीडिया!
(यह लेखक के निजी विचार हैं)
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