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सुप्रीम कोर्ट की चिंता संवैधानिक है मिस्टर मीडिया!

पेगासस मामले पर सर्वोच्च न्यायालय की उलझन समझ में आने वाली है। हुक़ूमते हिन्द ने अपना उत्तर देने से इनकार कर दिया है। सॉलिसिटर जनरल का एक तर्क किसी के पल्ले नहीं पड़ा।

राजेश बादल 3 years ago

राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार ।।

पेगासस मामले पर सर्वोच्च न्यायालय की उलझन समझ में आने वाली है। हुक़ूमते हिन्द ने अपना उत्तर देने से इनकार कर दिया है। सॉलिसिटर जनरल का एक तर्क किसी के पल्ले नहीं पड़ा। उन्होंने कहा कि हमारे पास छिपाने के लिए कुछ नहीं है। आम नागरिकों की खुफ़ियागिरी पर जनता में चर्चा नहीं होनी चाहिए। अब सॉलिसिटर जनरल साहब को कोई कैसे समझाए कि यह समूचा  देश उत्तर चाहता है।

राष्ट्रीय सुरक्षा के बारे में तो भारतीय मतदाता भी नहीं जानना चाहते। जब एक बार किसी दल को बहुमत से सरकार बनाने का मौक़ा दिया है तो मुल्क़ की हिफाज़त करना भी उसी निर्वाचित सरकार की ज़िम्मेदारी है। एक नागरिक नहीं चाहता कि उनकी हुक़ूमत बताए कि आतंकवादियों से वह कैसे निबट रही है अथवा चीन और पाकिस्तान के षड्यंत्रों का मुक़ाबला कैसे कर रही है? वह तो सिर्फ़ दो तीन जानकारियां चाहता है कि परदेसी जासूसी सॉफ्टवेयर ख़रीदा गया है या नहीं। अगर ख़रीदा गया है तो किस मंत्रालय ने, कितने पैसे में और किन शर्तों पर खरीदा है। यह जानना उसका संविधान प्रदत्त अधिकार है। संसद में इसीलिए पाई पाई का हिसाब रखा जाता है। इसके अलावा संविधान में आम आदमी को अनुच्छेद-21 के तहत दिए गए निजता के अधिकार का उल्लंघन तो नहीं किया गया है? 

अगर इस अदृश्य जासूसी तकनीक से एक पत्रकार, एक राजनेता, एक न्यायाधीश, विपक्षी नेता और सामाजिक कार्यकर्त्ता के घर परिवार, कारोबार और रिश्तेदार की बातें सरकार तक पहुंच रही हैं तो ऐसा क्यों होना चाहिए? यदि इन श्रेणियों में से किसी एक नागरिक की भी खुफ़ियागिरी हुई है तो सरकार को बताना चाहिए कि वह राष्ट्रद्रोही है और उसके सबूत देश की आला अदालत के सामने रख देना चाहिए। खुले तौर पर नहीं रखना चाहते तो बंद लिफ़ाफ़े में अदालत को सौंप दीजिए। फिर माननीय न्यायालय को तय करने दीजिए कि वाकई उस लिफ़ाफ़े में बंद जानकारी को उजागर करना हिन्दुस्तान के हित में नहीं है तो फिर यह देश कभी भी हुकूमत से कोई जवाब तलब नहीं करेगा। अगर अदालत पाती है कि उसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है तो उसे सामने लाना राष्ट्रहित में बेहद ज़रूरी है।

भारतीय मतदाता ने अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा टैक्स के रूप में इसलिए सरकारी ख़ज़ाने में जमा नहीं किया है कि उसका दुरूपयोग उसी के विरोध में हो। आख़िर किस देश में ऐसा हो सकता है। कम से कम लोकतंत्र और क़ायदे-क़ानून से चलने वाले किसी राष्ट्र में तो ऐसा नहीं हो सकता।

एक बार कल्पना करिए कि उस अंतर्ध्यान ख़ुफ़िया तकनीक से सरकार अपने किसी एक सर्वर में ये जानकारियां एकत्रित कर ले और वहां से यह लीक हो जाए तो फिर क्या सरकार के हाथों के तोते नहीं उड़ जाएंगे। इसके अलावा इस बात की क्या गारंटी है कि इस सर्वर में मौजूद सूचनाओं की कोई गुप्त कॉपी किसी अन्य देश में नहीं हो रही होगी। पहले भी संसार में ऐसे कई ख़ुलासे हो चुके हैं। अगर उस सूचना भण्डार से कोई जानकारी लीक हो गई तो फिर केंद्र सरकार के हाथ में कुछ नहीं रहेगा। वह अपने ही मतदाताओं के सामने कठघरे में खड़ी हो जाएगी। यही नहीं, इज़रायल समेत संसार के क़रीब एक दर्ज़न देश इसकी औपचारिक जांच कर रहे हैं। यदि उस वैधानिक जांच के दरम्यान किसी चरण में उस देश के अलावा भारत की सूचनाएं भी छप गईं तो कौन मुंह दिखाने के लायक रहेगा? भारत सरकार को यह बात समझ लेनी चाहिए।

दरअसल सुप्रीम कोर्ट की राय में भारत सरकार के लिए एक बेहद बारीक़ छिपा हुआ सन्देश है। अदालत अपनी परिधि में इससे अधिक कुछ नहीं कह सकती। यदि कुपित होकर शिखर न्यायालय ने कोई निर्णय दिया तो फिर कुछ नहीं बचेगा। अभी भी वक़्त है। हुक़ूमत को समय रहते समझ लेना चाहिए। अन्यथा इतिहास बड़े से बड़े शासक को माफ़ नहीं करता मिस्टर मीडिया !

हैं कहां हिटलर, हलाकू, ज़ार या चंगेज़ ख़ां ,मिट गए सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िए

ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए, अपनी कुर्सी के लिए जज़्बात को मत छेड़िए    

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल की 'मिस्टर मीडिया' सीरीज के अन्य कॉलम्स आप नीचे दी गई हेडलाइन्स पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं-

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