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असहमति और आलोचना पत्रकारिता की पहली शर्त है मिस्टर मीडिया!

ऐसा तो कभी नही हुआ। भारतीय लोकतंत्र की एक बुजुर्ग पार्टी करीब करीब साल भर से खुले आम मीडिया को कटघरे में खड़ा कर रही है। पत्रकारों और संपादकों के पास उसका कोई उत्तर नहीं है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो 1 year ago

राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार ।।

आज की चुप्पी,कल का गंभीर अपराध है

ऐसा तो कभी नही हुआ। भारतीय लोकतंत्र की एक बुजुर्ग पार्टी करीब करीब साल भर से खुले आम मीडिया को कटघरे में खड़ा कर रही है। पत्रकारों और संपादकों के पास उसका कोई उत्तर नहीं है। यदि आरोप सच हो तो आरोपी के पास जवाब नहीं होता। पत्रकारिता ने कांग्रेस के आरोपों पर कोई सफाई आज तक नही दी है। पार्टी अगर कहती है कि मीडिया के एक बड़े वर्ग ने उसका बायकॉट कर रखा है तो उसे स्वीकार करने के अलावा अन्य विकल्प नहीं है। इस प्रसंग ने इतना गंभीर रूप ले लिया है कि अब चारों तरफ से भारतीय पत्रकारिता पर सवाल उठाए जा रहे हैं। देश में और देश के बाहर भी।

दरअसल आजादी के बाद इस देश की पत्रकारिता में अनेक राजनीतिक विचारधाराएं असर डालती रही हैं। लेकिन वे अत्यंत न्यून मात्रा में थीं। जो पत्रकार उन विचारधाराओं का संरक्षण करते थे, वे भी इसका ध्यान रखते थे कि उनके लेखन से संतुलन बिंदु गायब न हो जाए। जब वे अपनी डेस्क पर या मैदान में रिपोर्टिंग करते थे। उनका मानना था कि विचारधारा अपनी जगह है और कर्तव्य अपनी जगह। उससे कभी पेशे का संतुलन नही टूटना चाहिए। इस भावना के चलते कभी भी आपस में द्वेष या रंजिश का भाव नहीं पनपा। बिहार प्रेस बिल रहा हो या मानहानि विधेयक या आपातकाल में सेंसरशिप। सारे पत्रकार और संपादक निजी विचारधारा भूलकर सड़कों पर उतरते थे। आज हम देखते हैं कि साफ साफ दो धड़ों में बंट गई पत्रकारिता एक दूसरे को काटने को दौड़ती है। संतुलन भूलकर चारण वृति शिखर पर है।

प्रश्न यह है कि इसका अंजाम क्या होगा? एक निष्कर्ष तो फौरन निकाला जा सकता है कि लोकतंत्र तानाशाही के आक्रमण से अधमरा हो जाएगा। दूसरी बात पत्रकारिता में आने वाली पीढ़ियां वैचारिक रूप से विकृत और प्रदूषित हो जाएंगी। जब इस पवित्र पेशे में संतुलन और स्वस्थ आलोचना नहीं रहेगी तो नई नस्लें उसी को सच मानेंगीं। धीरे धीरे हम मध्य काल के उस सामंती युग में पहुंच जाएंगे, जब चारण, भाट और चाटुकार राजा की विरुदावलि गाते थे और समाज उसे सच मानता था, क्योंकि उस समाज को राजा की नीतियों की आलोचना करने का कोई अधिकार ही नहीं था। धीरे धीरे राजा की प्रशंसा में लिखी या गाई गई प्रशस्ति अंतिम सच मान ली जाती थी। यदि चारण कहता कि अमुक योद्धा में एक हजार हाथियों की ताकत थी, तो प्रजा मानती थी कि वाकई यह सच है। यदि भाट कहता कि एक राजा के पास उड़ने वाला घोड़ा है तो वह भी सत्य मान लिया जाता।

तात्पर्य यह कि उस अधिनायकवादी सत्ता में असहमत होने, आलोचना करने अथवा सत्य कहने का साहस कोई जुटा ही नही पाता था। यदि किसी ने ऐसा किया तो वह राजद्रोही करार देकर सूली पर चढ़ा दिया जाता। राजाओं के जमाने में ही नहीं, गोरी हुकूमत के समय में भी यह सिलसिला जारी रहा। भगत सिंह से अंग्रेज क्यों खौफ खाते थे? इसलिए नहीं कि वे हथियारों के दम पर फिरंगियों को इस मुल्क से निकालना चाहते थे, बल्कि इसलिए कि वे असहमत विचारों की ऐसी ज्वाला थे, जिससे बड़े से बड़ा तानाशाह घबराता था। महात्मा गांधी भी इसी तरह के विचार पुंज का नाम था। सारा संसार उन्हें यूं ही सलाम नहीं करता।

लब्बोलुआब यह कि किसी भी देश में असहमति के सुरों को नही रोका जा सकता। भारतीय पत्रकारिता को अपने भीतर इसे धड़कता हुआ महसूस करना चाहिए। यह तभी हो सकता है, जब मीडिया न्यायाधीश की तरह बरताव करे। असहमति और आलोचना पत्रकारिता की पहली शर्त है मिस्टर मीडिया!


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