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भाजपा और सरकार, दोनों को अब फूंक-फूंककर कदम रखने होंगे: शशि शेखर
राजनीति में चुनौतियां खत्म कहां होती हैं? मोदी ने देश-विदेश में पहले जैसे आत्मविश्वास को सफलतापूर्वक दर्शाया जरूर है, पर घरेलू मोर्चे पर नई आशंकाएं आकार ले रही हैं।
समाचार4मीडिया ब्यूरो 3 months ago
शशि शेखर, प्रधान संपादक, हिंदुस्तान।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछली 9 जुलाई को क्या कर रहे थे? वह मॉस्को में थे। उन्होंने उस दिन रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ शिखर-वार्ता की और साझा बयान जारी किया। इससे एक दिन पूर्व मोदी ने पुतिन से अनौपचारिक बातचीत के दौरान दो महत्वपूर्ण बातें कहीं। पहली यह कि मैं अपने साथ एक अरब चालीस करोड़ भारतवासियों का प्यार लेकर आया हूं। दूसरी, बमों के धमाकों के बीच शांति नहीं स्थापित हो सकती।इन दो वाक्यों का मतलब क्या है?
प्रधानमंत्री अपने पहले वाक्य के जरिये कह रहे थे, आप या दुनिया का कोई और सत्तानायक यह समझने की भूल न करे कि मुझे जो जनादेश मिला है, वह पहले से कमजोर है। मैं एक संप्रभु देश का सर्वशक्तिमान प्रधानमंत्री हूं। यकीनन, पुतिन ने उनके इस भाव को जस का तस ग्रहण किया। अब आते हैं दूसरे बयान पर। वह बमों और हिंसा का उल्लेख कर पश्चिमी देशों को संदेश दे रहे थे कि भारतीय विदेश नीति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।
जो मानते हैं कि भारत को खुले तौर पर अमेरिका के साथ जाना चाहिए, उन्हें भी इस दौरान समुचित प्रत्युत्तर मिला।यहां ‘क्वाड’ का उल्लेख जरूरी है। यह अनौपचारिक, पर महत्वपूर्ण रणनीतिक मंच है, जिसमें भारत के साथ अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की सहभागिता है। अब जब अमेरिका नाटो के 75वें वर्ष में उसे पूर्वी यूरोप से एशिया तक ले जाना चाहता है, तब नाटो का हिस्सा बने बिना हम क्वाड के जरिये अपनी संतुलनकारी नीति को कायम रख सकते हैं। भारतीय विदेश नीति सबको साथ लेकर चलने के साथ राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि स्थान देती है। यही वजह है कि सीमा विवाद के बावजूद चीन हमारा प्रमुखतम व्यापारिक सहयोगी है। अमेरिका की घुड़कियों के बावजूद हम रूस से हथियार और तेल खरीदते हैं।
चीन और रूस चाहें या न चाहें, अमेरिका सहित सभी पश्चिमी देशों से भारत के आत्मीय रिश्ते हैं।लेकिन मैं यहां विदेश नीति पर चर्चा नहीं करना चाहता। मेरा मकसद इसी 9 जुलाई को पूरे हुए मोदी 3.0 के पहले महीने पर बात करना है।जनादेश के तत्काल बाद से सवाल उठने लगे थे कि भारतीय जनता पार्टी इस बार बहुमत हासिल करने से वंचित रह गई। उसे अब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन, यानी राजग के सहयोगियों पर निर्भर रहना होगा। नरेंद्र मोदी ने अहमदाबाद से नई दिल्ली तक सिर्फ बहुमत की सरकारें चलाई हैं। वह इस स्थिति में अपने दायित्व का निर्वाह कैसे करेंगे?
यही वजह है कि उनके पहले महीने के क्रिया-कलापों पर चर्चा जरूरी है। इस एक माह ने आने वाले चार साल 11 महीनों की प्रस्तावना रच दी है।मंत्रिमंडल गठन से शुरू करते हैं। मतगणना के बाद से कुछ लोग मानते थे कि मोदी को मंत्रिमंडल के गठन में खासी मशक्कत करनी होगी। चर्चाएं थीं कि तेलुगू देशम पार्टी और जनता दल (यूनाइटेड) कड़ा मोल-भाव करेंगे। ऐसा हुआ क्या? किसी भी मंत्रिमंडल की पहचान कैबिनेट कमेटी ऑफ सिक्युरिटी, यानी सीसीएस से होती है। इस समूह के पास अकूत शक्ति होती है। उसमें सभी पुराने चेहरे कायम रहे।
इसी तरह, इन दोनों बडे़ सहयोगियों को जो विभाग मिले, उनकी बहुत चर्चा न तो पहले होती थी, न आगे होने वाली है। हमेशा सबल और समर्थ तरीके से अगुवाई के अभ्यस्त नरेंद्र मोदी के वक्त में किसी और की चर्चा की जगह भी कहां है?मंत्रिमंडल की मानिंद लोकसभा का अध्यक्ष कौन होगा, इस पर भी अफवाहों का बाजार गर्म था। समझदारों को तो तभी इशारा मिल गया था, जब महज चंद दिन पहले बीजू जनता दल से पुराना नाता तोड़कर भारतीय जनता पार्टी के शिविर में आए भतृर्हरि महताब को प्रोटेम स्पीकर नियुक्त किया गया।
उस समय उनसे वरिष्ठ सांसद सदन में मौजूद थे। विपक्ष ने शोर मचाया कि यह गलत है, पर उसकी एक न चली। बाद में ओम बिरला अध्यक्ष की आसंदी पर पुन: जा विराजे। बिरला अपने पिछले कार्यकाल में खासे विवादों में रहे थे। उन्होंने दर्जनों सांसदों को निलंबित किया था। राहुल गांधी और महुआ मोइत्रा जैसे सांसदों को सदस्यता से बेदखल कर दिया था। तमाम लोग लोकसभा अध्यक्ष के पद पर उनकी वापसी को असंभव मानते थे। इस फैसले के जरिये भाजपा ने जता दिया कि उसकी प्रभुता जस की तस है। बाद में, राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस के दौरान तमाम तरह की बयानबाजी हुई, लेकिन न तो सरकार विचलित हुई, न लोकसभा के अध्यक्ष। संसद के इस सत्र ने कई प्रश्न खड़े कर दिए हैं। आरोप-प्रत्यारोप देखकर लगता है कि सियासी प्रतिद्वंद्विता की जगह निजी रंजिश ने ले ली है।
संसार के सबसे बडे़ लोकतंत्र के लिए यह शुभ शकुन नहीं है। देश के तमाम बडे़ मुद्दों पर पक्ष-विपक्ष में आम राय जरूरी होती है। उसका अभाव भी खलने लगा है। दोनों तरफ के ‘माननीय’ इस पर विचार क्यों नहीं करते? क्या सरकार बजट सत्र के पहले इसकी पहल करेगी? परंपरानुसार पहली जिम्मेदारी सत्ता पक्ष की बनती है।अब आते हैं भारतीय जनता पार्टी पर। लगातार दो बार बहुमत हासिल कर प्रधानमंत्री और गृह मंत्री ने पार्टी पर तगड़ी पकड़ बना ली थी। अफवाहें थीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को इससे परेशानी है। कयास थे कि इस बार संघ दखल देना चाहेगा। क्या ऐसा हुआ?
अभी तक तो इसका कोई असर नहीं दिखाई पड़ रहा। मौजूदा राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का कार्यकाल पिछली 30 जून को समाप्त हो गया है। वह पहले से ‘एक्सटेंशन’ पर हैं। एक पखवाड़ा बीत रहा है, पर आज भी नड्डा बतौर पार्टी अध्यक्ष फैसले ले रहे हैं। तय है, पार्टी पर मोदी-शाह की पकड़ यथावत है।क्या मान लिया जाए कि प्रधानमंत्री मोदी पूरी तरह चुनौती रहित हैं?राजनीति में चुनौतियां खत्म कहां होती हैं? मोदी ने देश-विदेश में पहले जैसे आत्मविश्वास को सफलतापूर्वक दर्शाया जरूर है, पर घरेलू मोर्चे पर नई आशंकाएं आकार ले रही हैं।
इसी महीने वित्त मंत्री ‘मोदी 3.0’ का पहला बजट पेश करेंगी। क्या उस पर राजग सहयोगियों की छाप होगी? आंध्र और बिहार, दोनों विशेष आर्थिक पैकेज की मांग कर रहे हैं। तेलुगू देशम और जद (यू) इसके लिए जोर लगाएंगे। अगले चार महीनों में चार राज्यों में चुनाव होने हैं। उन पर भी तवज्जो की दरकार रहेगी। यदि ऐसा हुआ, तो आर्थिक सुधारों का क्या होगा?यही नहीं, जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों पर बढ़ते हमलों ने तमाम चिंताओं के बीज बो दिए हैं।
वहां सितंबर तक विधानसभा चुनाव भी होने हैं। उधर, विपक्ष अग्निपथ, जातीय जनगणना और बेरोजगारी पर जमकर बरस रहा है। तय है, अगले कुछ महीने भाजपा और सरकार, दोनों को फूंक-फूंककर कदम रखने होंगे। गुजरे जमाने में वही सार्थवाह अपनी मंजिल तक पहुंचते थे, जो राजपथ पर पहला कदम रखने से पहले आखिरी पग तक की विघ्न-बाधाओं का माकूल इंतजाम रखते थे।नरेंद्र मोदी की नई पारी का पहला महीना, क्या इसकी मुनादी नहीं करता है?
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) - साभार, हिंदुस्तान।
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