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वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल ने कुछ यूं समझाया 'भारत छोड़ो आंदोलन' का मनोवैज्ञानिक पहलू

महात्मा गांधी ने आठ अगस्त 1942 को मुंबई के गवालिया मैदान में करो या मरो का नारा दिया। उसी रात वे गिरफ्तार कर लिए गए।

राजेश बादल 1 year ago

राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तम्भकार।

बेशक अंग्रेजो! भारत छोड़ो का आह्वान महात्मा गांधी का था,लेकिन उससे देश की देह में जो हरारत पैदा हुई थी,उसका श्रेय अनगिनत देशभक्तों को भी जाता है। महात्मा का वह रौद्र रूप हिन्दुस्तान ने पहले कभी नहीं देखा था। मगर जब तिहत्तर साल के इस 'युवक' ने हुंकार भरी तो सारा मुल्क जैसे जोश और जज्बे से भर गया।अस्सी साल बाद जब आजादी के पचहत्तर साल पूरे हो चुके हैं तो महाराष्ट्र से प्रारंभ होकर देश भर में फैल गए इस सबसे बड़े अहिंसक आंदोलन का स्मरण प्रासंगिक है। यह भी विचार आवश्यक है कि 1942 में कौन सी परिस्थितियां थीं, जिन्होंने महात्मा गांधी को इस बड़े निर्णय के लिए बाध्य कर दिया था। करो या मरो जैसा नारा उन्होंने पहले कभी नहीं दिया था। वे जानते थे कि देश अब अभी नहीं तो कभी नहीं वाली मानसिकता में आ चुका है।   

महात्मा गांधी ने आठ अगस्त,1942 को मुंबई के गवालिया मैदान में करो या मरो का नारा दिया। उसी रात वे गिरफ्तार कर लिए गए। उनके साथ-साथ अन्य शिखर नेता जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल और मौलाना आजाद भी सीखचों के भीतर थे। द्वितीय पंक्ति के नेताओं ने भी महात्मा जी के करो या मरो मंत्र को स्वीकार कर लिया था और वे भूमिगत रहते हुए छद्म वेश में अपने-अपने ढंग से आंदोलन संचालित कर रहे थे। यही इस आंदोलन की कामयाबी का बड़ा कारण था।

जब गांधी जी कैद में नहीं होते थे तो सारा देश उनकी ओर अगले कदम या निर्देश के लिए टकटकी लगाकर देखा करता था। वे जैसा कहते, वैसा ही आंदोलन का स्वरूप बन जाता था। लेकिन इस आंदोलन के दरम्यान जैसे हिन्दुस्तान के करोड़ों नागरिकों में महात्मा गांधी का अंश दाखिल हो गया था और फिर उन्हें महात्मा गांधी के निर्देशों की जरूरत नहीं रही थी। किसी भी वास्तविक जन आंदोलन की यही पहचान है। उस आंदोलन में किसी की अगुआई की आवश्यकता नहीं होती। अत्याचार के खिलाफ हर नागरिक अपने भीतर से आवाज निकलते देखता था। यही सुबूत था कि महात्मा गांधी ने अपना काम कर दिया था। जब आत्मा से तार जुड़ गए तो फिर गांधी दैहिक रूप से उपस्थित हैं या नहीं, इससे क्या अंतर पड़ता था।

यह सत्य है कि आंदोलन कहीं-कहीं हिंसक भी हुआ मगर उसके मूल चरित्र पर कोई अंतर नहीं पड़ा। बकौल राजेंद्र माथुर, '1942 में भारत का मनोविज्ञान एक ऐसे आदमी का मनोविज्ञान था, जो अपनी मुर्दा, लाशनुमा जिंदगी से तंग आकर अपनी चिता स्वयं जलाने की आजादी चाहता था, जिससे वह जीवित नर्क की पीड़ा से किसी तरह छुटकारा पा सके। ब्रिटिश साम्राज्य में निष्क्रियता से सुरक्षित रहने के बजाय जापान के हाथों सक्रिय रूप से राख हो जाना हिन्दुस्तान को मंजूर था। गुलामी की जिंदगी के बजाय देश को इच्छित मृत्यु पसंद थी।

भारत रस्सियों से बंधा दास था, जो डूबती नाव में मौत का इंतजार कर रहा था। नाव का मालिक तूफान से लड़ने में व्यस्त था और कह रहा था कि इस समय आजादी की फिजूल मांग मत करो। ये बातें हम तूफान के बाद देखेंगे। दूसरी तरफ गुलाम देश कह रहा था कि आज और इसी पल रस्सियां तोड़ना जरूरी है क्योंकि नाव डूबी तो आप तो तैर कर निकल जाएंगे, लेकिन यह देश रसातल में चला जाएगा। इसलिए आइए! आप और हम साथ-साथ तूफान से लड़ें। यह इंग्लैंड को स्वीकार नहीं था। भारत को बांधकर वह जंगल की आग से लड़ रहा था। भारत बड़े से बड़े बलिदान के लिए तैयार था, लेकिन वह कहता था कि बलिदान से पहले आजादी का तिलक तो लगा दीजिए। स्वेच्छा से जान देना बलिदान है और अनिच्छा से या जबरन मौत के घाट उतारा जाना सिर्फ बूचड़खाने का नरसंहार है।'

उस दौर के भारत और गांधी के रूप में इस मुल्क की मानसिकता का इससे बेहतर विश्लेषण और नहीं हो सकता। दरअसल, गांधी के तर्क को गोरों ने गंभीरता से समझने का प्रयास ही नहीं किया।इसलिए दूसरे विश्वयुद्ध में उन्होंने भारत को गांधी विचार से जोड़ने का प्रयास नहीं किया। यदि वे ऐसा करते तो शायद बेहतर स्थिति में होते।

गांधी जी ने यही तो कहा था कि अगर हमले में भारत जापान के कब्जे में आ गया तो क्या भारत के लोग अंग्रेजों की गुलामी बनाए रखने के लिए जापान की गुलामी का विरोध करेंगे?  पर यदि आपने भारत को स्वतंत्र कर दिया तो उसमें नई जान आएगी। वह जान की बाजी लगाकर आजादी की रक्षा करेगा। महात्मा गांधी का तर्क वाजिब था। इसमें क्या अनुचित था, जब वह कहते थे कि भारत इन दिनों आपसे नाराज और काफी हद तक चिढ़ा हुआ है। यहां हर आदमी इंग्लैंड की हार पर खुशियां मनाता है। विचित्र है कि जापान के हाथों पराजय मिलने पर तुम हिन्दुस्तान, जापान को सौंपने के लिए तैयार हो लेकिन तुम भारत को भारतवासियों के हाथों में सौंपने के लिए तैयार नहीं हो। अगर भारत युद्ध में रौंदा गया तो तुम्हारे लिए सिर्फ ब्रिटिश साम्राज्य के एक सूबे का पतन होगा, मगर हमारे हाथ से तो सारा देश निकल जाएगा। युद्ध में कौन दांव पर लगा है?

साम्राज्य की नाक ज्यादा वजनदार है या भारत का अस्तित्व? आजाद करने के बाद अगर किन्ही अप्रिय स्थितियों में मान लीजिए भारत जापान के कब्जे में चला गया तो आपका क्या नुकसान होगा? लेकिन यदि ब्रिटिश सरकार के कब्जे से भारत छीना गया तो गोरी हुक़ूमत की शान में बट्टा लग जाएगा। आजादी की ताजी हवा में अगर हमारा दम घुटता है तो घुटने दीजिए क्योंकि गुलामी की जहरीली हवा में भी तो दम घुट ही रहा है।

जाहिर है कि महात्मा गांधी की यह ऐसी बुद्धिमत्ता पूर्ण सलाह थी, जो गोरी सरकार को उनके बड़े से बड़े विशेषज्ञ भी नहीं दे रहे थे। जब इस तर्क को खारिज कर दिया गया तो गांधी का गुस्सा लाजिमी था।संभवतया यही कारण था कि महात्मा ने अगस्त 1942 में उनके जीवन का सबसे तीव्र और आक्रोश भरा आंदोलन छेड़ने का फैसला किया।

(यह लेखक के निजी विचार हैं )


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