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‘हमेशा हौसला देते हैं दादीमां के ये शब्द’

इसी 20 दिसंबर को तकरीबन 88 साल की उम्र में दादी मां ने हम सबका साथ छोड़ दिया

समाचार4मीडिया ब्यूरो 4 years ago

अनुरंजन झा, वरिष्ठ पत्रकार।।

सीताराम, सीताराम, सीताराम कहिए! जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए! शायद यही वो शब्द होंगे जो हमारे कानों में होश संभालने के बाद सबसे पहले पड़े होंगे। ये शब्द हमें हमेशा हौसला देते हैं। तमाम कठिनाइयों में जूझने का जज्बा देते हैं, मुश्किलों में संभलने की हिम्मत देते हैं और खुशी में आनंद का अनुभव कराते हैं। ये शब्द हमारे लिए एक मंत्र की तरह है। सुबह इन शब्दों की धुन कान में पड़ती, तभी नींद खुलती। यह सिलसिला वर्षों तक चलता रहा, जब तक हम गांव में रहे। ये शब्द हर सुबह मेरी दादीमां गुनगुनाती थीं, बिना नागा। मेरी दादीमां, मेरी पहली गुरु, मां से बढ़कर मां और सनातनी परंपरा का निर्वहन करते हुए दीक्षा देने वाली मेरी ‘गुरुमां’। मेरी दादीमां अब नहीं हैं। इसी 20 दिसंबर को तकरीबन 88 साल की उम्र में दादी मां ने हम सबका साथ छोड़ दिया।

आज से तकरीबन 33 साल पहले अप्रैल 1987 में जब बाबा एक सड़क दुर्घटना में अचानक हम सबको छोड़ गए, तब हमने देखा था कि कई दिनों तक दादीमां न रोई थीं, न कुछ बोली थीं। बिल्कुल चुप हो गईं, लेकिन फिर अचानक जैसे उनको यह अहसास हुआ हो कि बाबा का अधूरा काम उन्हीं को करना है। फिर वो करती रहीं, बिना अपनी परवाह किए। शिक्षक थीं मेरी दादीमां, पहले प्राथमिक और बाद में माध्यमिक विद्यालय की प्रधानाध्यापिका। बाबा भी प्रधानाध्यापक थे, बाबा यानी ‘दिनेश जी माट साहेब’ दिनेश चंद्र झा और यही दोनों हमारे गुरु। हम सबकी सारी बुनियादी शिक्षा इन्हीं दोनों की देखरेख में हुई। लिखने की प्रेरणा मिली कविजी बाबा यानी बाबा के बड़े भाई रमेश चंद्र झा जी से, अब तीनों में से कोई नहीं है हमारे पास। कोई ऐसा दिन नहीं होता जब दादीमां, बाबा को याद नहीं करती रही हों, उनके किस्से नहीं सुनाती रही हों। आखिरी दिनों तक।

घर के ठीक सामने स्कूल था, जो अब भी है। उसी स्कूल में दादीमां बहाल हुईं और रिटायर भी। वो स्कूल दादीमां के नाम से ही इलाके में जाना गया। आसपास के कई गांवों की लड़कियां पढ़ने आतीं। बाबा ने अपने मित्रों के साथ मिलकर एक संपूर्ण कन्या विद्यालय बनवाया था, क्योंकि वो चाहते थे कि इलाके की लड़कियां शिक्षित हों, बाबा अक्सर कहते कि पिता से ज्यादा घर में मां का शिक्षित होना जरूरी है। पिता शिक्षित होंगे तो बच्चे शिक्षित होंगे, लेकिन अगर मां शिक्षित होगी तो बच्चे संस्कारी होंगे। हमारे गांव समेत आसपास के तमाम गांवों की वो महिलाएं जो अब दादी-नानी बन गई हैं, सबकी गुरु थीं मेरी दादीमां। ‘बहिनजी’ सबके लिए एकसमान। अक्सर हमने देखा है कि गांव की लड़कियां जब नाती-पोतों के साथ मायके आतीं तो दादीमां से मिलने जरूर आतीं। ‘बहिनजी’ कहकर दरवाजे से आवाज लगातीं और दादीमां बड़े आदर से सबका ख्याल रखतीं। पीढ़ी दर पीढ़ी गांव की लड़कियों को पढ़ाया, शिक्षित और संस्कारी बनाया। हालांकि 27-28 साल पहले वो रिटायर हो गईं, लेकिन कई सालों तक लगातार स्कूल जाती रहीं, बच्चों को पढ़ाती रहीं। बाद में घर के दरवाजे पर भी बच्चे पढ़ने आते रहे। धीरे-धीरे सब रुक गया। अपने परपोते-परपोतियों में व्यस्त रहने लगीं,  लेकिन सुबह की धुन जारी रही।

कैसा भी मौसम हो, सुबह 4 बजे के आसपास जग जाना, बिस्तर से उठने से पहले हाथ में घड़ी का बांधना,  बच्चे जगें, उससे पहले उनके नाश्ते की तैयारी में जुट जाना उऩकी आदत में शुमार था। जब वो स्कूल जाती रहीं तो अक्सर पूजा-पाठ कर स्कूल चली जातीं और टिफिन टाइम में घर आकर खाना खातीं। शाम में छुट्टी के बाद जब घर लौटतीं तो शाम की चाय के साथ अखबार बारीकी से पलटतीँ। रिटायर होने के बाद अखबार पढ़ने का रुटीन शाम से सुबह शिफ्ट हो गया। हमने गांवों में अक्सर औरतों को गॉसिप में मशगूल देखा है, लेकिन दादीमां को यह बिल्कुल पसंद नहीं था, हमने सिर्फ बड़ी दादी से उनको खूब बातें करते देखा था लेकिन 1990 में उनके अचानक निधन के बाद से तो दादीमां अपने स्कूल और घर तक सीमित रह गईं।

दादीमां हम सब भाई-बहनों को खूब प्यार करतीं। उनके बच्चों की शिकायत कोई करे, उनको पसंद नहीं था। उनके बच्चे गलती करें, ये भी उनको नागवार गुजरता। मुझ पर खूब प्यार लुटातीं, जब हम दिल्ली पढ़ने चले आए, दादीमां रिटायर नहीं हुई थीं, लेकिन उनकी नौकरी का आखिरी दौर चल रहा था। हम जैसे ही नौकरी में आए, दादीमां मेरे पास आ गईं। महीनों रहीं, दिल्ली के मेरे कई दोस्त उनके इतने आत्मीय हुए कि उनके बारे में अक्सर बातें करतीं। जब मेरे बेटे का जन्म हुआ तो फिर दिल्ली आकर काफी समय रहीं, चौथी पीढ़ी के साथ उनके आनंद की सीमा नहीं रहती। कभी दिल्ली, कभी मुंबई सभी परपोतों-पोतियों की भी जमकर परवरिश की। पतली-दुबली काया की मेरी दादीमां कभी थकती नहीं थीं। निश्चित तौर पर परपोतों-पोतियों को देखकर वो अपना दुख भूल जातीं, उनके सामने भी ये जरूर कहती कि बाबा उनको छोड़ गए, ताकि वो सब जिम्मेदारी निभा सकें।

जिम्मेदारी और वो भी ऐसी जिसके बारे में अब सिर्फ कहानियां ही कहीं जा सकती हैं। 14 साल की उम्र में शादी,  आजादी से पहले आजादी के परवानों के भरे-पूरे परिवार की बहू बनना, जिसका पति कलकत्ता (अब कोलकाता) के प्रेसीडेंसी कॉलेज में शिक्षा ले रहा हो और फिर 16 साल की उम्र में मां बन जाना। देश की आजादी के अगले साल मेरे पिताजी का जन्म हुआ, 28 साल की उम्र तक चार बच्चों को जन्म देना औऱ फिर 32 साल की उम्र में शिक्षक की नौकरी शुरू करना, यह सोचकर लगता है कि ऐसा कोई दैवीय शक्ति ही कर सकती है और दादीमां थी हीं देवी, महालक्ष्मी देवी।

मेरे परदादा अक्सर कहते थे कि मैं लक्ष्मी (लक्ष्मीनारायण झा) हूं और मेरी बहू महालक्ष्मी। सोचिए जरा, मेरी दादीमां महज 38 साल की उम्र में दादीमां बन गईं थी, मेरे बड़े भाई का जन्म हुआ तो मेरी दादीमां महज 38 साल की थीं यानी जिस उम्र में आज की लड़कियां मां बनने के सपने संजो रही होती हैं। दादी बनने के बाद पचास साल तक अपने पूरे परिवार की जिम्मेदारी उठाती रहीं। हाथ खोलकर दिया, सबको दिया, पूरे परिवार को दिया, पूरे समाज को दिया कभी किसी से एक रुपया नहीं लिया। साठ साल की उम्र तक तनख्वाह परिवार पर खर्च करती रहीं, बाद में पेंशन की रकम भी बेटे-पोते को ऐसे हर महीने थमा देतीं जैसे पेंशन उनकी नहीं, उनके बच्चों की ही है। अपने लिए उनको कुछ नहीं चाहिए था, अपने लिए उनको जो चाहिए था वो थी जिम्मेदारियां, जिसे बाबा छोड़ गए थे।

पिछले एक साल में उनका स्वास्थ्य अचानक खराब होता चला गया। पिछले साल छठ व्रत किया और काफी मान मनौव्वल के बाद इस साल से व्रत नहीं करने पर राजी हुईँ, लेकिन पिछले छह महीने में भूलने लगीं। जो पास है वो याद है, जो दूर गया, उसे भूल गईँ। सामने आने पर पहचानतीं। कोई बीमारी नहीं, कोई परेशानी नहीं लेकिन अब वो संतुष्ट नजर आती थीं। शायद उनको अब लगता था कि उनकी जिम्मेदारियां पूरी हो गई हैं और यही एहसास उनकी जिजीविषा पर भारी पड़ने लगा शायद। वो जब तक जिम्मेदारियों के बोझ तले खुद को खड़ा करती रहीं, जीवित रहीं और जैसे ही उनको लगा कि उनकी जिम्मेदारियां पूरी हो गईं, उन्होंने आखें मूंद लीं।

दादीमां से जुड़े मेरे पास चार दशक से ज्यादा के किस्से हैं। लिखने लगूं तो न जाने कब तक लिखता रहूं, बस इतना ही कहूंगा कि आज जो कुछ भी हूं, उसमें मेरी दादीमां का एक बड़ा हिस्सा है। जब मैं उनको आखिरी बार कंधा दे रहा था तो बार-बार मेरे होश संभालने के बाद का यह चार दशक फ्लैश बैक की तरह आंखों से गुजर रहा था। इसी महीने की 30-31 तारीख को उनका अंतिम कर्म है। ईश्वर से मेरी प्रार्थना है कि उनको अपने चरणों में जगह दें और हर किसी को ऐसी ही दादीमां। दादीमां को विनम्र श्रद्धांजलि।

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