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'पंचतत्व में विलीन हो चुके सुनील को क्या पता कि हम उन्हें कितना याद कर रहे हैं'
रात हो रही थी और लगभग थक सा गया था, लेकिन मन बार-बार सोशल मीडिया पर अटका हुआ था। एक बार फिर हिम्मत कर फेसबुक ओपन किया तो पहली खबर सुनील के न रहने की मिली।
समाचार4मीडिया ब्यूरो 3 years ago
मनोज कुमार, वरिष्ठ पत्रकार ।।
रात हो रही थी और लगभग थक सा गया था, लेकिन मन बार-बार सोशल मीडिया पर अटका हुआ था। एक बार फिर हिम्मत कर फेसबुक ओपन किया तो पहली खबर फिल्म समीक्षक सुनील मिश्र के नहीं रहने की मिली। दयाशंकर मिश्र ने यह सूचना पोस्ट की थी। सहसा यकीन नहीं हुआ, लेकिन दयाशंकर के पोस्ट पर अविश्वास करने का भी कोई कारण नहीं था। वे एक जिम्मेदार लेखक-पत्रकार हैं अत: मन मारकर खबर पर यकीन करना पड़ा। इसके बाद तो कई लोगों ने यह सूचना शेयर किया। इस खबर को पढ़कर सुनील पर गुस्सा आया। कुछ पलों में उसने पराया कर दिया। हम लोगों के बीच में कोई व्यवसायिक रिश्ता नहीं था, लेकिन जो था, वह हम दोनों ही जानते थे।
पांचेक साल पहले जब मेरे दिल की चीर-फाड़ की नौबत आयी थी तो सबसे पहले चिंता करने वालों में सुनील था। इसके बाद पिछले लॉकडाउन से लेकर अब तक अपनी बीमारी से दो-चार हो रहा हूं। इस बीच एक बार सुनील से मुलाकात हुई। वही चाय पीकर जाना लेकिन कश्मीर से कन्याकुमारी तक जो चाय का हाल है, सो चाय समय पर नहीं आयी। अगली बार साथ चाय पियेंगे के वायदे के साथ मैं चला आया। शारीरिक रूप से अपेक्षाकृत कमजोर होने के बाद बहुत देर तक बैठा नहीं जा रहा था। हां, इस बीच इंस्टाग्राम में जो संवाद का सिलसिला शुरू किया था, उसे किताब की शक्ल में लाना फाइनल हुआ था।
सुनील मेरे उन चंद दोस्तों में है जिनसे लगातार बातचीत नहीं होती थी। मुझे कोई दिक्कत, खासतौर पर हेल्थ को लेकर तो उसे एक पंक्ति का फोन करना होता था और उसकी तरफ से भी यही था। कुछेक दोस्तों के साथ मेरा यह एक वायदा है। इतनी यारी के बाद सुनील बेवफा निकला। अरे, भले मानुष कम से कम एक फोन तो कर देता। उसकी तबीयत खराब होने से लेकर बिछुड़ने तक की कोई खबर नहीं मिल पाना जीवन भर सालता रहेगा।
कोई 30 साल पुरानी बात होगी। मैं रायपुर से देशबन्धु में नौकरी करने भोपाल आया था। यहां जिन चंद लोगों से पहले पहल मुलाकात हुई, उसमें सुनील एक था। सुनील से पटरी बैठने का कारण भी था कि हम लोग सिनेमा और संस्कृति पर लिखते थे। हम लोग की प्राथमिक शाला भाऊ साहब खिरवडक़र होते थे। हम लोग मालवीय नगर स्थित आदिवासी लोक कला परिषद के कार्यालय में जाते थे। कभी डांट, कभी प्यार, कभी टिप्स और भाऊ साहब का मन हो गया तो गरम समोसे के साथ चाय। यहीं पर हम दोनों ने तीजन बाई पर लिखना शुरू किया। सुनील ने उन पर लेख लिखा तो मैं उनसे बातचीत को कागज पर उतारा। तब दिल्ली से प्रकाशित प्रमुख सांस्कृतिक पत्रिका ‘सारंगा स्वर’ में हम साथ साथ छपे। और भी ऐसे कई मौके आए। इस बीच सुनील सरकार के मुलाजिम हो गए। हाऊसिंग बोर्ड के तब के अध्यक्ष कनक तिवारी के साथ उनकी पटरी बैठी और गांधी 125वीं जयंती के लिए वे गंभीरता से कार्य करने लगे। तब मोतीलाल वोरा मुख्यमंत्री थे।
जिंदगी खरामा-खरामा चल रही थी। सुनील को थोड़ा स्थायित्व मिल गया था लेकिन मेरी नाव अब तक हिचकोले खा रही है। खैर, इस बीच सुनील संस्कृति विभाग में आ गए। यहां मेरा पुराना रिश्ता श्रीराम तिवारी से है। यह रिश्ता जब वे फिल्म विकास निगम के महाप्रबंधक होते थे, तब से बना। सुनील और मैं उनके करीब थे। एक तरह से गुरु के भाव के साथ औपचारिक ना सही, लेकिन गंडा बांध दिया था। भाऊ साहब के बाद औपचारिक गुरु के रूप में उनकी संगत में आ गए। सुनील संस्कृति में रहे और मुझे संविदा के तौर पर वन्या में लिया गया। पहले बच्चों की पत्रिका ‘समझ झरोखा’ का संपादक बनाया गया और साथ में फीचर सेवा ‘वन्या संदर्भ’ का जिम्मा मिला। अब तकरीबन रोज ही मिलना होता था। सुनील चाहते थे कि मुझे वहां स्थायित्व मिल जाए लेकिन ‘भाग ना बांचे कोई’ कहावत चरितार्थ हो गई। राजनीतिक रसूख के चलते एक अन्य को संपादक बना दिया गया। सुनील दुखी थे। लेकिन उसके हाथ में कुछ नहीं था। एक बार फिर मेरी वन्या में सामुदायिक रेडियो समन्वयक के रूप में हुई। सुनील ने कहा कि अब तो जम जाओगे। लेकिन फिर वही ‘भाग ना बांचे कोई’। तिवारी जी के रिटायरमेंट के साथ नए एमडी ने बिना किसी कारण बताये बाहर का रास्ता दिखा दिया।
इस सब उतार-चढ़ाव में सुनील लोगों से मेरी तारीफ किया करते थे। वे मेरे काम को लेकर हमेशा अनुरागी बने रहे। जब मेरी तबीयत डांवाडोल हो रही थी तब उन्होंने अपने ड्राइवर अनिल को हिदायत दे रखी थी कि जब इन्हें जाना हो, छोड़ देना और ले आना। सुनील को पता था कि मेरा पूरा जीवन पब्लिक ट्रांसपोर्ट पर चलता है। वो हमेशा मुझे भैया का संबोधन देते रहे और मैं सीधे सुनील कहता था। हल्के से मुस्कराना और कहना सब ठीक होगा। सुनील को पता था कि समोसा मेरा प्रिय है तो जब कभी डायरेक्टरेट पहुंचा, मेरे लिए समोसा आ जाता था। एकाधिक बार से ज्यादा मिठाई भी होती थी। बिना किसी अवसर के। कल कंचन ने लिखा कि सुनील उसे गुड़िया कहते थे। सच लिखा है। हम दोनों के लिए कंचन हमेशा गुड़िया ही रही। आज सुनील चले गए हैं। लोग याद कर रहे हैं। भला-भला लिख रहे हैं लेकिन पंचतत्व में विलीन हो चुके सुनील को क्या पता कि हम उन्हें कितना याद कर रहे हैं। ‘सु’ अपने साथ ले गए और ‘नील’ हमें छोड़ गए। औरों के लिए सुनील लेखक, फिल्म के जानकार और जाने क्या क्या होंगे लेकिन हम दोनों उन दिनों के साथी हैं जब हम तय किया करते थे कि एक कूलर घर वालों के लिए होगा और हमारा काम तो पंखे से चल जाता है। फिर से कहूंगा सुनील भला कोई ऐसे जाता है? ‘सु’ अपने साथ ले गए और ‘नील’ हमें छोड़ गए।
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