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'अधूरा रह गया दिलीप साहब के साथ वह इंटरव्यू...'
अनुभवी अभिनेता दिलीप कुमार जी के निधन के बारे में जानकर मन भर आया। उनके अभिनय की अनूठी शैली पीढ़ियों तक फिल्म प्रेमियों के बीच याद की जाती रहेगी
समाचार4मीडिया ब्यूरो 3 years ago
निर्मलेंदु वरिष्ठ पत्रकार ।।
अनुभवी अभिनेता दिलीप कुमार जी के निधन के बारे में जानकर मन भर आया। उनके अभिनय की अनूठी शैली पीढ़ियों तक फिल्म प्रेमियों के बीच याद की जाती रहेगी। मैंने उनकी लगभग सभी फिल्में देखी हैं। ज्यादातर फिल्मों में एक आदर्शवान चरित्र को जीने वाले इस अभिनेता से मैंने बहुत कुछ सीखा है। उनकी फिल्मों की न केवल कहानी से मैं प्रेरित रहता था, बल्कि संवाद से भी मैं बहुत कुछ सीखता था। अभिनय के फील्ड में मेरे गुरु रहे दिलीप साहब। संगीत के क्षेत्र में मेरे गुरु रहे मोहम्मद रफी साहब और जीवन के कर्मकांड में मेरे गुरु रहे सुरेंद्र प्रताप सिंह, जिन्हें लोग प्यार से एसपी कहते थे। इन तीनों के कारण ही मैं आज यहां तक पहुंचा हूं। मैं इन्हीं लोगों को देखकर सीखता और आज भी सीख रहा हूं।
बात सन 1998 की है। शायद अगस्त या सितबर माह था। मैं उन दिनों अमर उजाला के मुंबई ब्यूरो का ब्यूरो चीफ था। मैं दिलीप साहब का फैन ही नहीं, मुरीद भी हूं। दीवाना हूं। ऐक्टिंग के फील्ड में मैं उन्हें अपना गुरु मानता हूं, इसलिए मुंबई पहुंचते ही मेरी उनसे मिलने की इच्छा बढ़ गई। उनसे मिलने की प्रक्रिया यही थी कि उन्हें मुझे फैक्स भेजना पड़ेगा। वह स्वीकृति देंगे और समय भी तय कर देंगे। लेकिन फैक्स यहां से तो उनके पास पहुंच गया, लेकिन उधर से कोई जवाब नहीं आया। मैं विचलित था। समझ में नहीं आ रहा था कि किससे कहूं। तभी किसी ने मुझे कहा कि पाठक जी, जो कि पीआर का काम करते थे, उन्हें कहें। पाठक जी का पूरा नाम है आर.आर. पाठक। मुंबई में वह मेरे अच्छे दोस्त बन गये थे। वह मुझे 12 सालों से जानते थे। उनसे कहते ही बात बन गई। यह वाक्या आज से 23 साल पहले का है।
पाली हिल में उनके रिहाइशखाने में पहुंचे, तो दरवाजे पर दो पठान जैसे पहरेदार मिल गये। उन्हें देखते ही एहसास हो गया कि हम किसी खास व्यक्ति से मिलन आये हैं। पाठक जी को देखते ही उन्होंने मुस्कुराकर दरवाजा खोल दिया। दाहिने हाथ में एक बड़े से हॉल में ले गये और बिठा दिया। शायद पांच मिनट बाद ही सायरा बानो आयीं और झुककर नमस्ते करते हुए कहा, साहब अभी आ रहे हैं, तब तक आप चाय पीजिए। सायरा बानो से मिलकर लगा वह भी हमारी तरह आम इंसान ही हैं। कुछ सोच रहा था कि तभी चाय आ गई। चाय पी ही रहे थे कि एक आवाज आई, पाठक जी बहुत दिनों बाद आप तशरीफ ले आये। क्या बात है भाई, कभी मेरी गली में भी चक्कर लगा जाया करो। कहते हुए सामने बैठ गये। दिलीप साहब ने पाठक जी से पूछा, मेरी ओर इशारा करते हुए, इस शख्स का परिचय, पाठक जी ने जवाब दिया, आपका एक जबरदस्त फैन, जो कि पेशे से पत्रकार भी हैं। पत्रकार का नाम सुनते ही दिलीप साहब उछलते हुए बोले, अरे बाप रे बाप..., पता नहीं यह पत्रकार क्या क्या हमसे कुरेदकर ले जाएंगे। मैंने उनकी ओर देखा और अदब से झुक कर नमस्ते की और कहा, कुरेदेंगे नहीं, केवल यादों को टटोलेंगे। इस पर उनकी जो हंसी थी, वह इतनी तेजी से गूंजी कि मुझे राम और श्याम के एक किरदार की याद आ गई। श्याम का किरदार, जो कि हंसी ठिठोली करता, कभी मुस्कुराता, तो कभी गाता... कभी होटल में खा पीकर पैसे नहीं देता, कभी गाता... राम की लीला रंग लाई, श्याम ने बंसी बजाई... या फिर कभी गाता... आज की रात मेरे दिल की सलामी ले ले, कल तेरी बज़्म से दीवाना चला जाएगा...
दरअसल, जब इस गीत की चर्चा मैंने की, तो उन्होंने हंसते हुए जवाब दिया कि हां, गाने से पहले मेरा एक चांटे के साथ जोरदार स्वागत भी हुआ था। वहीदा ने कस के चाटा मारा था। फिर समझाते हुए कहा, हालांकि मैंने ही उन्हें कसकरके चांटा मारने के लिए कहा था, ताकि चांटों की गूंजी चारों ओर सुनाई दे। दिलीप साहब ने आगे कहा, हम कलाकार हैं, जब तक हम कैरेक्टर में नहीं घुसते, तब तक ऐक्टिंग नहीं निखरती। तभी मेरे मन में एक प्रश्न ने अंगड़ाई ली और मैंने पूछ ही लिया... आपने कभी विज्ञापन की दुनिया में काम क्यों नहीं किया? जवाब में उन्होंने कहा, मैं भाड़ नही हूं, एक्टर हूं जनाब, शुद्ध एक्टर और यह कहते हुए वह स्वयं गाने लगे... ये मेरा दीवानापन है, या मुहब्बत का सुरूर, तू न पहचाने तो है ये, तेरी नजरों का कुसूर। दरअसल, इस गीत के माध्यम से वह कहना ये ही चाह रहे थे कि यह उनकी मर्जी है। वह विज्ञापन के लिए काम करें या न करें, उनकी मर्जी।
मैंने इस गीत से संबंधित एक प्रश्न पूछ लिया कि आप तो रफी साहब से ही इस गीत को गवाना चाहत थे, लेकिन अंततः मुकेश को इस गीत को गाने का मौका कैसे मिल गया। उनका जवाब था, शंकर जयकिशन की कोशिश अच्छी थी। जब गाना मैंने सुना, तो मुझे लगा कि वही इस गीत के साथ न्याय कर सकते हैं। इसके बाद मैंने दिलीप साहब से पूछा कि आपने मदर इंडिया क्यों ठुकरा दी? प्रश्न पूछने के बाद पहले तो उन्होंने मुझे घूर कर देखा, थोड़ी देर तक मंद-मंद मुस्कुराते हुए बोले... बरखुरदार जो मेरी दो फिल्मों में पहले हीरोइन थीं, वह मेरी मां कैसे बन सकती हैं। मां बहुत बड़ी चीज होती हैं जनाब। मैं वह भावना कहां से लाता, मुझे लगा कि यह किरदार के साथ बेईमानी होगी। हां, यह सच है कि जब महबूब खान ने मुझे स्क्रिप्ट सुनाई, तो मैं हतप्रभ रह गया। लेकिन बेटे का रोल न बाबा न... एक्टिंग करते हुए कहा, कैसे मैं नरगिस को मां कहूंगा। दिल ने गंवारा नहीं किया। अब आप ही बताएं कि फिल्म मेला और बाबुल में नरगिस के साथ खुलेआम रोमांस करने के बाद लोग मुझे उस किरदार में एक्सेप्ट करते क्या। उनसे पूरी बातचीत नहीं हो पाई कि हमें लौट कर आना पड़ा, क्योंकि अचानक दिलीप साहब के घर में एक फोन आया कि उनके किसी जानने वाले का इंतकाल हो गया। तो हमारी इच्छा पूरी नहीं हुई और हम वापस दफ्तर लौट आये।
फिल्मों के प्राणाधार दिलीप साहब
एक तरफ जहां, ‘मधुमती’ में मुकेश, सुहाना सफर और यह मौसम हंसी, हमें डर हैं कि हम खो न जाए कहीं... गीत से दिलीप साहब की आवाज बनकर उभरे, तो वहीं जब जरूरत महसूस हुई, तो रफी साहब ने इस गीत को गाकर ... टूटे हुए ख्वाबों ने हमको यह सिखाया है, दिल ने जिसे चाहा था, ... अब समझने वाली बात है कि ये दोनों गाने अलग अलग जॉनर के हैं, लेकिन जब दिलीप साहब की आवाज बनती है, तो कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि दिलीप साहब नहीं गा रहे हैं।
नया दौर (1957), मधुमती (1958), यहूदी (1958), पैगाम (1959), मुगल-ए-आजम (1960), कोहिनूर (1960), गंगा-जमुना (1961) ये सब दिलीप कुमार के उत्कर्ष काल की फिल्में हैं। नया दौर में दिलीप साहब ने मधुबाला की जगह वैजयंतीमाला को रिप्लेस किया। मुगल-ए-आजम उनका चरमोत्कर्ष थी, जिसके लिए दिलीप-मधुबाला ने आपसी अनबन के बावजूद साथ में काम किया। गंगा-जमुना का निर्माण स्वयं दिलीप कुमार ने किया और इसके निर्देशक नितिन बोस थे। यह पूरबी (भाषा) में बनी पहली फिल्म थी और बाद में इसकी तर्ज पर भोजपुरी फिल्मों के निर्माण का एक नया सिलसिला ही चल पड़ा।
आत्मकथा में बचपन का जिक्र करते हुए लिखा है कि एक फकीर ने उनके बारे में ऐलान किया था कि ये कोई आम बच्चा नहीं है। उनकी दादी को बताया कि यह तो बेहद मशहूर होने और असाधारण ऊंचाइयों को छूने के लिए ही आया है। इसका खूब ध्यान रखना। अगर बुरी नजरों से बचा लिया, तो बुढ़ापे तक खूबसूरत रहेगा। हमेशा काला टीका लगाकर रखना। सच में उनके चेहरे की खूबसूरती का वही नूर आखिर तक झलकता रहा।
मेला, शहीद, अंदाज, जोगन, दीदार, दाग, शिकस्त, देवदास उनकी ट्रेजिक फिल्में थीं। डॉक्टर की सलाह पर उन्होंने आजाद, कोहिनूर, आन, नया दौर फिल्मों में खिलंदड़ प्रेमी की भूमिकाएं निभाईं। नया दौर फिल्म का गीत 'उड़े जब जब जुल्फें तेरी...' युवा दिलीप कुमार का सटीक चित्रण है। दर्शकों का उनके प्रति दीवानगी का यही आलम था। दाग और आन, देवदास और आजाद, मुगल-ए-आजम और कोहिनूर जैसी विपरीत स्वभाव वाली उनकी फिल्में आमने-सामने ही रिलीज हुई थीं। एक तरफ वे दर्शकों को पीड़ा की सुखानुभूति देते, तो वहीं दूसरी तरफ लोगों का मनोरंजन करते। दरअसल, अपने साथ वे नाटकीयता का एक तूफान लेकर आए थे। फिल्मों में उनके नए-नए रूप देखकर दर्शक दंग रह जाते थे। अभिनय के प्रति दिलीप कुमार का रवैया सदा पूर्णतावादी रहा। युवावस्था में वे फिल्मों के प्राणाधार होते थे, तो अपने दूसरे दौर की प्रौढ़ भूमिकाओं में भी उन्होंने नवीनताएं दी। बस ये ही है दिलीप साहब की खासियत।
(लेखक दैनिक भास्कर, नोएडा संस्करण के स्थानीय संपादक हैं)
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