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वरिष्ठ पत्रकार निर्मलेंदु साहा ने याद किया एस.पी. सिंह व सुब्रत रॉय के साथ का वो सफर

हृदय विदारक यह खबर ‘समाचार4मीडिया’ में पढ़कर दंग रह गया कि सहाराश्री यानी सुब्रत रॉय नहीं रहे। वह एक ऐसे इंसान थे, जिन्होंने हमेशा मुझे प्रेरित किया।

समाचार4मीडिया ब्यूरो 10 months ago

निर्मलेंदु साहा, वरिष्ठ पत्रकार ।।

इन दिनों मैं कोलकाता में हूं। सुबह करीब-करीब आठ बजे अपने परम मित्रों को प्रणाम नमस्ते मैसेज भेजने के बाद, जब अचानक मैंने मेल चेक किया, तो हृदय विदारक यह खबर ‘समाचार4मीडिया’ में पढ़कर दंग रह गया कि सहाराश्री यानी सुब्रत रॉय नहीं रहे। वह एक ऐसे इंसान थे, जिन्होंने हमेशा मुझे प्रेरित किया। मैंने जिसे चाहा, उसे उन्होंने रख लिया। वह दिन मैं कभी भूल नहीं सकता कि जब वह मुझे सहारा में एंट्री लेते ही आगे बढ़कर गले लगा लेते और पूछते कि कैसे हो निर्मल। 

सहाराश्री के निधन की खबर पढ़ते ही मुझे वो सब बातें याद आ गयीं, जब वह मेरे जैसे नाचीज को अपने पास बिठाकर पत्रकारिता पर जिस तरह से बातें किया करते थे। इसके साथ ही याद आ गये मेरे गुरु, मेरे मेंटर, मेरे पथप्रदर्शक एस.पी. सिंह और याद आ गये दिनेश चंद्र श्रीवास्तव जी, जिन्होंने मुझे गले से लगा लिया था, जिन्होंने मेरे कहने पर टीआरएफ के कई बच्चों को नौकरी दी। सच कहूं, तो एक पूरी की पूरी टीम को ही सहाराश्री ने ऐब्जर्ब कर लिया था। ‘नवभारत टाइम्स’ छोड़ने के बाद किस तरह से एस.पी. सिंह सहारा पहुंचे और उसके बाद क्या हुआ, क्यों वे वहां केवल चार दिनों तक रहे, लेकिन मुझे मजबूरत 15 दिनों तक रहना पड़ा। वे यादें आज भी मेरे दिमाग में ताजी हवा की झोके की तरह हिचकोले खा रही हैं।

दरअसल, उस दिन समीर जैन से मिलने के बाद मैं बहुत खुश था। मैं खुश इसलिए भी था, क्योंकि मेरी एक अलग पहचान बन गयी थी और वह भी एक ही दिन में। अखबार को मैंने और नवभारत के सभी वरिष्ठ साथी मिलकर कई दिनों के अथक मेहनत के बाद मॉड्यूलर ले आउट के साथ लॉन्च करने में सक्षम हो पाये थे। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि इस टीम का लीडर मैं ही था। मेरे कंधों पर ही यह जिम्मेदारी सौंपी गयी थी, लेकिन एस.पी. के नहीं होने के कारण खुशी का इजहार खुल कर नहीं कर सका, क्योंकि एस.पी. भैया बाहर गये हुए थे। कहीं-न-कहीं मन में एक ‘किंतु’ था। एस.पी. के बिना मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। जब मैं समीर जैन से मिलने गया, तो वहां ‘नवभारत टाइम्स’ के दो-तीन वरिष्ठ पत्रकार मौजूद थे। समीर जैन से मिलकर अपने विभाग में लौटते ही सभी मुझे बधाई देने लगे। बधाई और प्यार मोहब्बत का यह सिलसिला दिनभर चलता रहा। शाम को एस.पी. का फोन आया। मुझसे नीरज, एस.पी. के पीए ने कहा कि एस.पी. का फोन है। मुझे पहले लगा कि एस.पी. हॉलीडे टूर से लौट आए हैं, लेकिन उनके साथ फोन पर बात की, तो पता चला कि वे दो दिन बाद आएंगे। फोन पर उन्होंने पूछा कि क्या हो रहा है। मैंने विस्तारपूर्वक सब बताया। वे बहुत खुश हुए। उन्होंने फोन पर दोबारा कहा, निर्मल अब तुम्हारे भगवान पर मेरी आस्था और बढ़ गई है।’

उन्होंने कहा, ‘रविवार की सुबह घर आना।’ वे दो दिन बाद लौट आए। उस दिन शायद शनिवार था। एस.पी. ऑफिस नहीं आए। मैं रविवार को उनके घर गया। उन्होंने काफी बातें की। फिर कहा, निर्मल लगता है हम सबके अच्छे दिन आ रहे हैं। मैंने पूछा कि ऐसी क्या खास बात है। उन्होंने कहा, निर्मल खुद समीर जैन ‘नवभारत टाइम्स’ में रुचि ले रहे हैं। इसलिए अब लगता है कि हम जैसा अखबार निकालना चाहते हैं, वैसा संभव हो जाएगा।

दरअसल, एस.पी. ‘बेखौफ’ पत्रकारिता करना चाहते थे, जो वे कर नहीं पा रहे थे। उन्हें लगा कि समीर जैन के आते ही यह संभव हो जाएगा, इसलिए वे बहुत खुश थे। मैंने उन्हें इतना खुश कभी नहीं देखा था! उस दिन मैं उनके घर तीन-चार घंटे तक था। उन्हें बेइंतहा खुश देख कर मैं बेहद ‘गदगद’ हो गया। उनका उस तरह से खुलकर हंसना और भाभी जी का उस हंसी में शामिल होना मुझे आज भी याद है। भाभी जी ने वहां से किचन की ओर जाते-जाते मुझसे कहा, ‘खाना खाकर जाना। आज मछली बनी है।’

अगले दिन से मैं अपने काम में फिर व्यस्त हो गया। उन्हीं दिनों अचानक एस.पी. ने एक दिन शाम को कहा कि घर जाने से पहले मिलकर जाना। कुछ लोग एस.पी. के सामने खड़े थे, इसलिए मैंने कुछ नहीं पूछा। मैंने जाने से पहले उन्हें इंटरकॉम पर फोन किया कि भैया, मैं जा रहा हूं। उन्होंने कहा, ‘मैं भी निकल रहा हूं। तुम नीचे मेरी गाड़ी के पास प्रतीक्षा करो।’ मैं तुरंत नीचे गया। थोड़ी देर बाद वे आए और मुझे कहा कि चलो, रास्ते में बताते हैं। गाड़ी में बैठने के बाद उन्होंने कहा, टीआरएफ (टाइम्स रिसर्च फाउंडेशन) के तहत जिन लोगों ने पत्रकारिता का कोर्स किया है, उनके संबंध में डिसीजन हुआ है कि उन्हें इस बार ‘ऐब्जॉर्ब’ नहीं किया जाएगा।’ मैं चौंका, ऐसा कैसे हो गया! उन्होंने जवाब में उस समय बस इतना ही कहा, तुम्हारी दूसरे अखबारों में जान-पहचान बहुत है। कुछ अच्छे नवयुवक हैं, उन्हें एडजस्ट करवाओ। मेरी यह नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि मैं उन्हें कहीं-न-कहीं एडजस्ट करवाऊं!’ मैंने कहा कि ठीक है भैया।

दरअसल, हुआ यह था कि किसी लड़की को नौकरी दिलवाने के लिए मैं गोपाल टावर में दिनेश जी से मिलने गया था। उस लड़की का नाम मैं भूल गया। उसी लड़की ने मुझे बताया कि ‘राष्ट्रीय सहारा’ अखबार बहुत जल्द निकलने वाला है। मैं वहां पहुंचा तो दिनेश जी ने मुझे ही ऑफर दे दिया। सुब्रत रॉय साब ने मुझे डबल सैलरी देने की बात कही। मैंने जवाब में कहा था कि 25000 रुपये भी देंगे, तो भी मैं एस.पी. सिंह को छोड़कर नहीं आऊंगा। हालांकि उस लड़की को तुरंत रख लिया गया था। यहीं से मेरी रॉय साब के साथ ट्यूनिंग बननी शुरू हो गयी। सच तो यही है कि मेरी एस.पी. सिंह के प्रति भक्ति देखकर रॉय साब खुश हो गये। जवाब से रॉय साहब और दिनेश जी अति प्रसन्न हुए। फिर मैंने एस.पी. को कहा, दिनेश चंद्र श्रीवास्तव बहुत अच्छे इंसान हैं। उनसे बात करता हूं।’ उस दिन एस.पी. बहुत गंभीर थे, लेकिन उन्होंने और कुछ नहीं कहा। मेरी भी हिम्मत नहीं हुई कि उनसे पूछूं, ‘अचानक यह क्या हुआ कि..  मैं कुछ पूछ नहीं पाया! दरअसल, मुझे मालूम था कि जब वे खुलते हैं, तो बहुत खुलते हैं और जब वे गंभीर हो जाते हैं, तो बहुत गंभीर रहते हैं। हिम्मत नहीं होती थी कि उनसे बात करूं ! दरअसल, उनका वह गंभीर रूप देख कर हम सबकी घिग्घी बंद हो जाती थी।

एस.पी. को गंभीर देख कर मैं परेशान हो गया। उसी दिन रात को दिनेश जी से होटल में संपर्क किया। फिर सुब्रत रॉय (राष्ट्रीय सहारा के मालिक) से भी मिला। दिनेश जी और सुब्रत रॉय ने सात-आठ लड़के-लड़कियों को नौकरी पर रख लिया। उन लोगों में विनोद रतूड़ी और उनकी पत्नी भी थी। दो तीन लोगों के लिए एस.पी. ने भी ‘हिन्दुस्तान’ और ‘जनसत्ता’ में बात की। ‘दैनिक जागरण’ में नरेंद्र मोहन जी को कह कर दिलीप मंडल और तीन लोगों को रखवाया! ‘अमर उजाला’ में भी अतुल माहेश्वरी जी ने चार लोगों को रखवाया! चार पांच दिन इसी काम में व्यस्त होने के कारण मेरी एस.पी. से कोई खास बात नहीं हो पाई। तभी मेरी तबियत खराब हो गई। दमे ने बुरी तरह जकड़ लिया था। शुक्रवार का दिन था। मैं दफ्तर नहीं गया। उसी दिन शाम को जब मैंने एस.पी. के घर पर फोन किया, तो उन्होंने मुझे अगले दिन सुबह घर पर बुलाया। मैं सुबह-सुबह उनके घर गया। तबियत बहुत खराब थी, यह मैंने एस.पी. को फोन पर बताया नहीं था। तबियत बहुत खराब देखकर वे चौंके, फिर डांटते हुए कहा, ‘तुम्हें बताना चाहिए था! तुम्हें नहीं आना चाहिए था।’ मैंने कहा, भैया आप परेशान क्यों हैं \ पहले तो उन्होंने टालने की कोशिश की, लेकिन कई बार पूछने के बाद उन्होंने कहा, निर्मल, समीर जैन का मानना है कि ‘नवभारत टाइम्स’ में इकोनोमिक अखबार को भी समाहित कर दें, तो अच्छा होगा।’ मैंने पूछा, आपने क्या कहा \‘नहीं, यह हिंदी के पाठकों के साथ अन्याय होगा और इससे ‘नवभारत टाइम्स’ की इमेज खराब होगी’, मैंने कहा।

 

मैंने फिर पूछा कि क्या वे प्रेशर क्रिएट कर रहे हैं\ उन्होंने कहा,‘नहीं, वे सिर्फ सजेशन दे रहे हैं।’ फिर मैंने उनसे कहा कि फिर आप चिंतित क्यों हैं\ आप मना कर दीजिए! आपकी बात मानते हैं। मैंने एस.पी. को इस तरह से समझाया कि  आपके बिना यह अखबार अच्छा नहीं निकल सकता...  कि सारे लोग आपको पसंद करते हैं... कि कोई भी नहीं चाहेगा कि हिंदी में अंग्रेजी समाहित हो... वगैरह। इसके बाद मैं घर चला गया और वे दफ्तर। मेरी तबियत काफी खराब थी, इसीलिए रात को एस.पी. को फोन नहीं किया। तबियत खराब होने के कारण मैं सोमवार दफ्तर भी नहीं जा पाया। उसी दिन रात को जब मैंने एस.पी. को फोन किया, तो उन्होंने कहा, निर्मल, मैं कल नौकरी छोड़ रहा हूं।’ सुनते ही मैं परेशान हो गया। मैंने पूछा,  यह क्या कह रहे हैं आप! आप अभी घर पर ही होंगे न? उन्होंने कहा, ‘हां, घर पर ही रहूंगा।’ उस समय रात के नौ बज रहे थे। मैंने अपना वेस्पा स्कूटर उठाया और तुरंत उनके घर गया। उनसे मिलने के बाद पता चला कि रविवार के दिन समीर जैने ने एस.पी. को आईटीओ एरिया के पास जो कोठी है, वहां बुलवाया। फिर दिन भर ‘इकोनॉमिक टाइम्स’ की बातें करते रहे। रविवार का दिन था। एस.पी. को शुगर की बीमारी थी, इसलिए घर पर ही खाते थे। वे दिन भर कुछ नहीं खा पाए। दिन भर समीर जैन एस.पी. को समझाते रहे। एस.पी. ने वहां कुछ नहीं कहा, क्योंकि उन्होंने तय कर लिया था कि अब उन्हें ऐसी हालत में क्या करना चाहिए- इस्तीफा लिख लिया था। टेबल पर पड़ा था। देखा। चूंकि मैं एस.पी. को अच्छी तरह जानता था कि डिसीजन ले लेने के बाद उन्हें कोई नहीं समझा सकता, इसलिए मैंने केवल गीता के उस वचन को दोहराया - जो होता है, अच्छे के लिए ही होता है।

पहले तो एस.पी. ने घूर कर देखा, फिर हंसने लगे। वह हंसी मैं आज भी भूल नहीं सकता। हंसते-हंसते उन्होंने कहा था – निर्मल, इसमें क्या अच्छा हुआ! मैंने कहा था- आपको फिलहाल पता नहीं है कि आगे क्या होने वाला है! फिर वे हंसे थे और हंसते-हंसते टिप्पणी की थी, ‘हां अब बेकार बूढ़ों में एक और गिनती बढ़ जाएगी!’ उस समय मैं उन्हें समझा नहीं पाया कि जो होता है, वह अच्छे के लिए ही होता है। चूंकि उस समय हम तत्काल क्या हुआ है, उस पर ज्यादा सोचते हैं। हमें पता नहीं होता है कि कल क्या होने वाला है। यानी भगवान जो करता है, वह अच्छे के लिए ही करता है।

अगले दिन एस.पी. के ‘नवभारत टाइम्स’ छोड़ने की खबर चर्चा का विषय बन गया। मैं सुबह आठ बजे दफ्तर पहुंच चुका था। बहुत ज्यादा परेशान होने की वजह से काम में मन नहीं लग रहा था। थोड़ी देर इधर-उधर घूमने के बाद मैं ऊपर जिंदल साहब के केबिन के पास पहुंचा। जिंदल जी का इंतजार करने लगा। देखा, जिंदल जी आ रहे हैं।

जिंदल जी उन दिनों करीब-करीब साढ़े नौ बजे दफ्तर पहुंच जाते थे। देखते ही उन्होंने बातचीत की शुरुआत की। पूछा, क्या बात है, निर्मलेंदु। मैंने कहा, ‘सर आपको पता है कि नहीं एस.पी. नौकरी छोड़ रहे हैं।’ उन्होंने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, ‘नहीं, मुझे इसकी जानकारी नहीं।’ फिर उन्होंने अपने केबिन से एस.पी. को तुरंत फोन करके पूछा, तो एस.पी. ने कहा, अभी तक तो नहीं छोड़ा, लेकिन छुट्टी जरूर ले रहा हूं। जिंदल साहब को बात समझ में आ गई थी। वे तुरंत नीचे उनके केबिन में चले आए। मैं उनके पीछे-पीछे अपने विभाग में पहुंचा। देखा, नवभारत टाइम्स के सभी साथी आपस में इसी बात को लेकर चर्चा कर रहे हैं। मुझे देखते ही कुछ साथी-मित्रों ने मुझसे खबर की पुष्टि की। मैंने सबको यही समझाया कि जो होता है, वह अच्छे के लिए ही होता है। कुछ साथियों ने यह भी कहा कि यदि एस.पी. कहें, तो हम भूख हड़ताल शुरू कर देंगे। मैंनेजमेंट को यह बता देंगे कि एस.पी. के साथ अन्याय होते देखकर हम चुप नहीं बैठेंगे। लगभग दो घंटे तक जिंदल साहब एस.पी. से उनके केबिन में बातें करते रहे। फिर वे चले गए। अब ‘नवभारत टाइम्स’ के सभी साथियों ने एस.पी. को घेर लिया। सभी ने उन्हें यही कहा कि आप हमें छोड़ कर न जाएं। एस.पी. ने वही बातें दोहराई, मैं फिलहाल छुट्टी ले रहा हूं। बहुत काम किया...। ’ वगैरह। वगैरह!

इस तरह उस दिन वहां दिन भर किसी ने भी मन से काम नहीं किया। अखबार किसी तरह निकला जरूर, लेकिन उस दिन के अखबार में वह बात नहीं थी, जो अमूमन हुआ करती थी। दिन भर स्टाफ को समझाते-बुझाते शायद एस.पी. भी थक चुके थे। वे लगभग शाम चार बजे चले गए। जाते वक्त मुझे साथ ले गए। हम लोग वहां से सीधे एस.पी. के घर गए। वहां पहुंचने के बाद एस.पी. ने एक राज खोला, ‘निर्मल, कपिल देव अपनी एजेंसी को और बेहतर बनाने चाहते हैं। दो दिन पहले उनका फोन आया था। मैं उनसे मिल भी आया। वे चाहते हैं कि मैं तत्काल उनके दफ्तर में बैठना शुरू कर दूं।’ ‘हां, उत्तम है’ मैंने कहा, ‘वैसे आप कल से ही यदि वहां जाना शुरू कर दें, तो बेहतर होगा! लोगों को यह नहीं लगना चाहिए कि आपके पास काम नहीं है!’ परंतु वे शायद यह सोच रहे थे कि ‘नवभारत टाइम्स’ छोड़कर वहां जाना चाहिए था या नहीं।

मैंने कहा, तुरंत कहीं लग जाने और काम करने से एक तो आपको मानसिक शांति मिलेगी और दूसरा, हो सकता है कि कपिल देव की एजेंसी चल जाए, तो बाद में आप अपना कुछ शुरू कर सकें।’ बाद के दिनों में उन्होंने मुझे बताया कि वे कपिल देव की एजेंसी को ज्वॉइन करने का निर्णय ले चुके थे। बस, हमेशा की तरह वे मुझे टटोल कर समझने की कोशिश कर रहे थे कि मेरी सोच हर बार की तरह एक जैसी है या नहीं है!                                                             

अगले दिन या एक-दो दिन बाद उन्होंने कपिल देव की एजेंसी में जॉइन कर ली। उसी दौरान उन्होंने अपना एक साप्ताहिक कॉलम भी चलाया, जो कि देश के सभी बड़े-बड़े हिंदी के अखबारों में छपा करता था। सुबह आठ बजे वे मुझे कॉलम का मैटर दे देते थे, जिसे मैं टाइप करके उसके 15 जिरॉक्स (फोटो कॉपी) निकलवाता और फिर वे पैकेट बनवाकर सभी संबंधित अखबारों को भिजवा देता। उन्हीं दिनों वे ‘इंडिया टुडे’ के सलाहकार संपादक भी बन गए और कुछ ही दिनों में बीबीसी (लंदन) के लिए भारतीय अखबारों की समीक्षा करने लगे। ‘नवभारत टाइम्स’ में एस.पी. को उस समय कार्यकारी संपादक के रूप में तकरीबन 40 हजार रुपये मिलते थे, लेकिन ‘नवभारत टाइम्स’ से निकलने के बाद चार-पांच महीने में उनकी आमदनी 80 हजार रुपये तक पहुंच गई। तभी एक दिन उन्होंने मुझसे कहा, ‘निर्मल, तुम ठीक ही कहते थे कि आगे क्या होने वाला है, वह हमें पता नहीं होता, इसीलिए हम परेशान हो जाते हैं। तुम्हारे साथ रहकर मुझे इस बात का एहसास हुआ कि जो होता है, वह अच्छे के लिए ही होता है।’ और यह कहकर उन्होंने मुझे गले लगा लिया और कहा कि निर्मल तुम एक अच्छे दोस्त ही नहीं, अच्छे भाई भी हो! मुझे इस बात का फक्र है कि तुम हमेशा मेरे साथ रहे। तुममें कोई लोभ नहीं है। तुम एक दिन जरूर नाम कमाओगे और सच तो यही है कि आज उन्हीं के आशीर्वाद से मैं यहां तक पहुंच पाया हूं।

दरअसल, मुझे याद है कि उसी दिन उन्होंने यह भी कहा था कि हरेक व्यक्ति को एक बार ‘कुर्सी’ छोड़कर रास्ते पर आना चाहिए। इससे पांचों इंद्रियां खुल जाती हैं। कौन अपना है और कौन पराया, इसका भी सम्यक ज्ञान हो जाता है। खैर, कपिल देव की एजेंसी खूब चली। एक दिन कपिल देव स्वयं एस.पी. की तारीफ उन्हीं के सामने करने लगे। दरअसल, एस.पी. के जॉइन करने से पहले एजेंसी के लगभग 52 लाख रुपये अखबारों के दफ्तरों में पड़े हुए थे, लेकिन एस.पी. के जॉइन करने के कुछ महीनों के अंदर ही वे पैसे एजेंसी को मिल गए, इसीलिए कपिल देव उन्हें बधाई दे रहे थे।

कुछ महीनों बाद मैंने महसूस किया कि दैनिक अखबार की पत्रकारिता से दूर होकर एस.पी. छटपटा रहे हैं। जो व्यक्ति रोज खबरों के साथ खेलते थे, झूठ को झूठ और सच को सच कहने में दिन-रात व्यस्त रहते थे, वे अब उन कामों को अंजाम नहीं दे पा रहे हैं, इसकी छटपटाहट देखकर मैं भी परेशान रहता। उन दिनों मुझे ‘राष्ट्रीय सहारा’ से फीचर एडिटर बनने का ऑफर मिला। तभी मैंने ‘राष्ट्रीय सहारा’ के महाप्रबंधक दिनेश चंद्र श्रीवास्तव जी से यह चर्चा भी की कि एस.पी. जैसे वरिष्ठ पत्रकार को ‘राष्ट्रीय सहारा’ की टीम में शामिल करना बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। इससे अखबार की न केवल गरिमा बढ़ेगी, बल्कि अखबार को एक अच्छा और ‘प्रतिबद्ध’ संपादक भी मिलेगा। इस बात की चर्चा छिड़ते ही दिनेश जी ने कहा, हम भी चाहते हैं कि एस.पी. यहां आएं।’ फिर दिनेश जी ने मुझसे कहा, ‘तुम कुछ करो। तुम एस.पी. से कहो।’

मैंने कहा, केवल मेरे कहने से वे नहीं आएंगे, मेरी बात मानते जरूर हैं, लेकिन अखबार की तरफ से दो वरिष्ठ लोग मिलकर उनसे आग्रह करें, तो ज्यादा बेहतर होगा। पूरी तरह से ऑफर लेकर जाएं, पूरी थाली सजाकर ले जाएं, तभी बात बन सकती है। उसके बाद मेरा काम है, मैं उन्हें समझा दूंगा।’ साथ ही मैंने यह भी कहा कि मैं एस.पी. के साथ ही जॉइन करूंगा। दरअसल, मैंने कुछ दिनों पहले एस.पी. को टटोला था कि यदि ‘राष्ट्रीय सहारा’ से उन्हें ऑफर मिले, तो क्या वे जाएंगे। यह उस दिन की बात है, जब मुझे ‘राष्ट्रीय सहारा’ से ऑफर मिला था। उन्होंने जवाब में कहा था, सही ऑफर मिला, तो जरूर जाएंगे।’ लेकिन तुरंत यह भी कहा था, निर्मल, ‘राष्ट्रीय सहारा’ में तुम्हीं तो कहते हो कि बहुत राजनीति होती है और आज तुम्हीं वहां जाने के लिए कह रहे हो!’ मैंने कहा, ‘नहीं जमेगी, तो दोनों छोड़ देंगे! ट्राई करने में क्या हर्ज है!’ हां, मेरे पापा हमेशा यही कहते थे कि ट्राई करने में क्या हर्ज है! इसके आद उन्होंने कुछ नहीं कहा।

दरअसल, मुझे यह समझ में आ गया कि सही तरह से ऑफर मिलेगा, तो वे जरूर जाएंगे। नहीं तो वे अचानक चुप नहीं हो जाते! इसीलिए उस दिन मैंने दिनेश जी से आग्रह किया कि एस.पी. को ऑफर भिजवाइए। इस घटना के ठीक दो या तीन दिन बाद मैं एस.पी. से दोपहर (3-4 के बीच) मिलने गया, तो देखा वहां ‘राष्ट्रीय सहारा’ के दो लोग (राजीव सक्सेना और एक सज्जन, शायद निशीथ जोशी) बैठे हुए हैं। मुझे देखते ही वे चुप हो गए। एस.पी. ने तुरंत कहा कि नहीं-नहीं, इसके सामने आप कह सकते हैं, लेकिन मैंने वहां बैठना उचित नहीं समझा, इसलिए मैं स्वयं बाहर आ गया। लगभग 25-30 मिनट बाद वे लोग एस.पी. के केबिन से बाहर आए। जाते वक्त उन दोनों में से एक ने मुझसे कहा (वे लोग मुझे जानते थे) - निर्मल जी, एस.पी. साहब को जल्दी जॉइन करवाइए, बात हो गई है। दिनेश जी ने भी फोन पर उनसे बातचीत कर ली है। वे दोनों चले गए। उनके जाने के बाद एस.पी. ने हंसते हुए टिप्पणी की- लगता है, तुमने गेम खेल लिया है। मैंने कहा, भैया, वे लोग खुद चाहते हैं कि आप वहां जॉइन करें, बल्कि अगर यह कहें कि ‘राष्ट्रीय सहारा’ के ज्यादातर लोग यही चाहते हैं, तो शायद गलत नहीं होगा।’ उन्होंने फिर टिप्पणी की, हां, एक को छोड़कर, सभी चाहते होंगे।’ मैंने उस व्यक्ति का नाम पूछा, जो नहीं चाहते, लेकिन एस.पी. ने नहीं बताया।

शायद एक या दो दिन बाद हम दोनों ने एक साथ जॉइन किया। जब हम दोनों गाड़ी से उतरे, तो देखा कि माधवकांत मिश्र (संपादक- ‘राष्ट्रीय सहारा - उनका नाम नहीं जाता था, पर सभी काम वही करते थे) एस.पी. का स्वागत करने के लिए गेट पर खड़े हैं। एस.पी. उस दिन कुर्ता-पायजामा पहने हुए थे। पता नहीं क्यों, माधवकांत जी एस.पी. को बार-बार देखते रहे। उस समय मुझे यह समझ में नहीं आया कि क्यों देख रहे हैं! बाद में मुझे पता चला कि ‘राष्ट्रीय सहारा’ में कुर्ता-पायजामा पहनने पर पाबंदी है। हुआ यूं कि उस दिन एस.पी. माधवकांत मिश्र के साथ अंदर गए। दिन भर वे ‘राष्ट्रीय सहारा’ के स्टाफ से मिलते रहे। मैंने महसूस किया कि एस.पी. के जॉइन करने से ‘राष्ट्रीय सहारा’ के सभी लोग न केवल बहुत खुश हैं, बल्कि उत्साहित भी हो गए हैं। वहां के ज्यादातर पत्रकार-गैर पत्रकार मुझे जानते थे, इसलिए लगभग सभी ने कहा, यह बहुत अच्छा काम हुआ है।’ मुझे सभी एस.पी. को जॉइन करवाने के लिए बधाई दे रहे थे। उस दिन मिलने-मिलाने का कार्यक्रम दिन भर चलता रहा। शाम को मैं और एस.पी. एक साथ ऑफिस से निकले और अपने-अपने घर चले गए। रास्ते में कुछ खास बात नहीं हुई। दूसरे दिन भी हम दोनों एक साथ आए और इसी तरह मिलने-मिलाने का कार्यक्रम चलता रहा।

इस तरह तीसरे दिन तक मैं अपने काम में उलझा रहा और एस.पी. मीटिंग व जान-पहचान करने में व्यस्त रहे। तीसरे दिन शाम को हमें कहा गया कि सुब्रत रॉय के साथ कल सभी पत्रकारों की मीटिंग होगी, इसीलिए सभी 10 बजे तक मीटिंग हॉल में पहुंच जाएं। चौथे दिन हम लोग एक साथ दफ्तर पहुंचे। रास्ते में एस.पी. से अपने काम के बारे में बातचीत करता रहा। उन्होंने मुझे कुछ सुझाव भी दिए। मीटिंग शुरू हुई। सुब्रत रॉय (कंपनी के चेयरमैन) ने एस.पी. के ज्वॉइन करने की खुशी का इजहार किया। उनके भाषण के बाद एस.पी. को कुछ कहने के लिए कहा गया। मैंने देखा कि एस.पी. ने इशारे से और धीमी आवाज में कहा, ‘दांत में दर्द है, इसलिए कुछ कह पाना संभव नहीं है।’ मैं चौंका! अभी-अभी तो रास्ते में मुझसे बात कर रहे थे, अचानक क्या हो गया, मीटिंग में कुछ बोल नहीं पा रहा था, इसलिए चुपचाप कई तरह की शंकाओं से मैं घिर गया...  कि किसी ने कुछ कह दिया होगा...  कि एस.पी. को ये सब मीटिंग वगैरह पसंद नहीं है...  कि वे शायद कल से नहीं आएंगे...  कि एस.पी. ने कहा था कि मेरे जाने से एक व्यक्ति खुश नहीं होंगे...  वह व्यक्ति कौन है, उस मीटिंग में राज बब्बर (टॉप मैनेजमेंट के एक बड़े अधिकारी और बॉलीवुड एक्टर) और दिनेश जी भी मौजूद थे। थोड़ी देर में मीटिंग खत्म हो गई। एस.पी. ने मुझे इशारे से बुलाकर पूछा, चलोगे क्या? मैं कुछ कहता कि माधवकांत जी ने मुझसे कहा, ‘जाइए, एस.पी. की तबियत खराब है।’ मैंने कहा, ‘भैया, मैं दिनेश जी से कहकर आता हूं।’ दिनेश जी से कहकर हम दोनों एक साथ निकले। कार में बैठते ही मैंने उत्सुकतावश पूछा, ‘भैया, आपकी तबियत ठीक है न? सवाल सुनते ही वे हंसने लगे। एक-दो मिनट तक वे हंसते ही रहे और मैं उनका हाथ पकड़कर आग्रह करता कि भैया, क्या हुआ, प्लीज बताइए न! ‘दांत में दर्द है’,  कहकर फिर ठहाका मारकर हंसने लगे एस.पी.। अब तक मैं समझ नहीं पाया। मैंने फिर पूछा, भैया, प्लीज बताइए।’ उन्होंने कहा, आज अंतिम दिन है।’ मैं चौंका। कुछ पूछता, तभी उन्होंने कहा, ‘तुम ही कहते हो कि जो होता है, अच्छे के लिए होता है। फिर अब चौंक क्यों हो रहे हो।’ उन्होंने मेरा जूता मेरे ही सर पर दे मारा। उस दिन उनका मूड कुछ ज्यादा ही रोमांचित था। लोगों को नौकरी छोड़ते वक्त कष्ट होता है, लेकिन उस दिन मैंने देखा कि एस.पी. के चेहरे पर गजब की खुशी थी। एस.पी. की उस दिन की वह हंसी और उनका खुशनुमा चेहरा मुझे आज भी रोमांचित कर देता है। रास्ते भर उन्होंने इधर-उधर की थोड़ी बात की। मुझे घर के पास छोड़कर वे अपने घर चले गए और मैं अपने घर चला गया।

एस.पी. कपिल देव की एजेंसी छोड़ चुके थे, इसलिए घर पर ही थे। दूसरे दिन मैंने उनसे मिलने की इच्छा जाहिर की। उन्होंने घर पर बुलाया। घर पहुंच कर मेरा पहला सवाल यही था कि भैया क्या हुआ था, बताइए प्लीज। उन्होंने कहा, तुम टेंशन के मारे रात भर सो नहीं पाए होगे, लेकिन मेरी नींद बहुत अच्छी रही, कहकर शिखा भाभी की तरफ देखा और कहा, क्यों शिखा, फिर हंसने लगे। अब मैंने उनसे फिर कहा, भैया, क्यों मजाक कर रहे हैं? बताइए न, क्या हुआ? फिर उन्होंने कहा, माधवकांत ने मुझसे पहले दिन कहा कि एस.पी. साहब, आप कुर्ते-पायजामे में आए हैं। यहां तो पाबंदी है। मैंने तुरंत कहा कि माधव जी, यहां चड्ढी-बनियान पहनकर आता, तो ज्यादा मजा आता! माधव जी कुछ नहीं बोल पाए। चुपचाप चले गए। फिर शाम को माधवकांत जी ने कहा कि हमें तो रात को 4, 5 बजे तक रुकना पड़ता है। मैंने कहा कि मुझे पागल कुत्ते ने नहीं काटा है। इस तरह से माधवकांत जी ने मुझे ‘राष्ट्रीय सहारा’ में चल रहे कई डरावने पहलुओं से परिचित करवाया, अनुशासन के नाम पर वहां होने वाली ज्यादतियों से परिचित करवाया। दरअसल, माधवकांत जी नहीं चाहते थे कि मैं जॉइन करूं, इसीलिए जॉइन करने से पहले ही मुझे डराने की कोशिश कर रहे थे। हालांकि मैंने दूसरे ही दिन सोच लिया था कि यहां व्यर्थ समय नष्ट करने का कोई फायदा नहीं। फिर भी मैंने सोचा कि दो दिन और देखते हैं। मुझे समझ में आ गया था कि जिस पत्रकारिता की नींव हमने रखी थी, वहां रह कर पूरी नहीं हो सकती। इसीलिए उस दिन मीटिंग में न बोलने का निर्णय मैंने पहले ही कर लिया था।’ दरअसल, उन्होंने बाद के दिनों में कभी मुझे समझाते हुए कहा था कि शब्द वहीं खर्च करो, जहां उसका दाम मिले, जहां उसका सम्मान हो और जहां उन शब्दों को और उन शब्दों के भावों को तरजीह दी जाए।

दरअसल, एस.पी. को पता था कि सुब्रत रॉय की मीटिंग में रॉय साहब ही बोलते हैं और सब ‘मूकदर्शक’ बन कर सुनते हैं, लेकिन एस.पी. प्रवचन सुनना बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। फिर भी इसलिए गए, ताकि उन्हें मीटिंग में क्या बोला जाता है, पता चले। उनसे कई और विषयों पर बातचीत होने के बाद मैं ‘राष्ट्रीय सहारा’ चला गया। दिनेश जी ने मुझसे एस.पी. के छोड़ने का कारण पूछा और कई लोगों ने भी इस तरह की पूछताछ की। मैं सबको यही कह कर टाल गया कि मुझे नहीं पता। सुब्रत रॉय साब ने भी मुझसे एस.पी. के छोड़ने का कारण पूछा, लेकिन मैंने सबसे यही कहा कि उनकी तबियत अचानक खराब होने के कारण वह नहीं आये। हालांकि न चाहते हुए भी मैं 15 दिनों तक ‘नवभारत टाइम्स’ से छुट्टी लेकर ‘राष्ट्रीय सहारा’ जाता रहा। मेरा उस दिन आखिरी दिन था। 10 जून। उसी दिन मुझे वहां से विदा लेना था। दस जून को ही सुब्रत रॉय साहब का जन्मदिन है। मुझे पता था, फिर भी मैं वहां उसी दिन छोड़ना चाहता था। मैं जब सुब्रह रॉय साब से मिलने उनके दरबार पहुंचा, हां वह दरबार जैसा ही हॉल था, उनके रूम में गया, तो देखा कि वहां दिनेश जी भी बैठे हुए हैं। मैंने उनसे कहा कि मुझे आपसे कुछ बात करनी है। सुब्रत रॉय साब ने मुझसे पूछा, बांग्ला में ...एकला कथा बोलते चाव कि ...अकेले बात करना चाहते हो क्या ... मैंने कहा, नहीं दिनेश जी तो आपके प्राण हैं। प्राण को कैसे अलग करके बात करूं! मेरा जवाब सुनकर दोनों हंसने लगे। और उसके बाद मुझे बैठने को कहा।

मैंने कहा, मुझे आज जाना है। मुझे आज्ञा दें। उन्होंने कहा, क्या तुम्हें माधव ने कुछ कहा है। मैंने कहा नहीं, लेकिन यहां राजनीति बहुत है और राजनीति मुझे आती नहीं। उन्होंने समझाते हुए कहा कि तुम तो पढ़े लिखे हो। कुर्सी तो मिल जाती है, लेकिन कुर्सी को बचाने के लिए आजीवन राजनीति करनी पड़ती है। तुम यहां भविष्य के संपादक हो। थोड़ा वेट करो! यहां सफाई करनी है। उस सफाई में तुम हमारी मदद करो। तभी दिनेश जी ने बीच में टोकते हुए कहा, तुम्हें यहां इसीलिए लाया गया है कि तुम अखबार को सुधारो। तुम्हारी एक कोशिश तो बेकार गयी, एस.पी. नहीं आये लौटकर, अब तुम भी जाना चाहते हो! हमें पता है कि माधव तुम्हें परेशान कर रहा है, उसे भगाना है। तुम कहीं मत जाओ। लेकिन मैंने उनकी बात नहीं मानी और वहां से निकल आया। 

दरअसल, वी.जी. जिंदल उन दिनों ‘नवभारत टाइम्स’ के निदेशक थे। उनसे मैंने कह दिया था कि मैं ‘राष्ट्रीय सहारा’ 15 दिनों के लिए एस.पी. के साथ जा रहा हूं। 15 दिन बाद मैं दोबारा नवभारत टाइम्स लौट आया। लौटने के बाद एक दिन मुझे एस.पी. ने घर बुलाया। कहा, तुम चाहते हो कि तुम हमेशा मेरे आसपास रहो। मैं टाइम्स टीवी में कल से जॉइन कर रहा हूं। अब मैं तुम्हारी बिल्डिंग से एक बिल्डिंग पहले बैठूंगा। फिर उन्होंने टाइम्स टीवी जॉइन किया। यहीं से टीवी के काम की बारीकियां, कैमरा आदि का ज्ञान उन्हें हुआ, लेकिन टाइम्स टीवी में उनका मन नहीं लग रहा था, क्योंकि टाइम्स टीवी के कार्यक्रमों के दर्शकों की संख्या बहुत कम थी। उसी दौरान एक दिन अभीक सरकार ने एस.पी. को बुलाकर ‘टेलीग्राफ’ (कोलकाता से निकलने वाला अंग्रेजी दैनिक) में राजनीतिक संपादक बनने का ऑफर दिया। टाइम्स टीवी छोड़कर उन्होंने ‘टेलीग्राफ’ जॉइन कर लिया।’ उस दिन भी एस.पी. भैया ने मेरी तारीफ करते हुए मुझसे कहा कि तुम ठीक कहते हो। जो होता है अच्छे के लिए ही होता है। अभीक बाबू ने मुझे जिस सम्मान के साथ बुलाया, वह सम्मान कहीं और नहीं मिलता। अब तो केवल टेलीग्राफ में ही मुझे 90 हजार मिल रहे हैं। बीबीसी का पैसा जोड़कर लगभग डेढ़ लाख की कमाई हो जाती है। तुम्हारे भगवान को अब मैं मानने लगा हूं और उन्होंने इसके बाद गणेश जी की एक मूर्ति घर में रख ली।

सहाराश्री को भावभीनी श्रद्धांजलि !

( यह वरिष्ठ पत्रकार के निजी विचार हैं, जोकि उनकी  किताब 'शिला पर आखिरी अभिलेख' का एक हिस्सा है। कुछ हिस्सों का संपादन करके लेखक ने दोबारा से लिखा है।)


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