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‘2022 की मनहूसियत से 2023 के उच्चाटन तक’

2023 में मुझे तो समाचार-जगत से जुड़ी कोई ख़ास गुलाबी उम्मीद नज़र आ नहीं रही। लेकिन कुछ ख़्वाहिशें ज़रूर हैं। पूरी न सही, आधी-अधूरी भी, पूरी हो जाएं तो अयोध्या जाकर प्रसाद चढ़ाऊंगा।

समाचार4मीडिया ब्यूरो 1 year ago

पंकज शर्मा।।

समाचार-मीडिया के आसमान पर मंडरा रहे बादलों ने 2022 में पहले से ज़्यादा ही काली और डरावनी शक़्ल अख़्तियार की। हिमयुग की तरफ़ तेज़ी से बढ़ रहे सूचना-विश्व की ठिठुरती उम्मीदों को सहारा देने वाले बचे-खुचे टिमटिमाते दीयों में से कुछ और इस साल कारोबारी डायनासोरों की लपलपाती ज़ुबानों के हवाले हो गए।

प्रेस की स्वतंत्रता के सूचकांक में भारत दुनिया में इस साल 150वें क्रम पर गिर गया। पिछले दो साल से हम 142वें पायदान पर थे। पांच साल में भारत 12 सीढ़ियां नीचे लुढ़का है। अब इस तथ्य पर कैसे मलाल न करें कि लीबिया, सोमालिया और कांगो जैसे मुल्क़ तक इस मामले में हम से कई गुना बेहतर हैं?

अगर किसी को इस आंकड़े से सुकून मिलता हो तो वह ख़ुशी-ख़ुशी हासिल कर ले कि पिछले साल तो भारत में पांच पत्रकारों की हत्या हुई थी और 2022 में सिर्फ़ दो पत्रकार मारे गए हैं और इस तरह पत्रकारों की हत्याओं में इस साल 60 फ़ीसदी की कमी आ गई है। लेकिन मुझे तो यह आंकड़ा बेचैन कर रहा है कि 1992 से 2013 तक के 21 बरस में हमारे देश में 46 पत्रकार मारे गए और 2014 से 2022 तक के नौ साल में 40 पत्रकारों की हत्या हो चुकी है। यानी पत्रकारों के मारे जाने की घटनाएं तो दोगुनी हो गई हैं।

मंझले प्रकाशनों, आंचलिक-कस्बाई रेडियो प्रसारणों, छोटे टीवी चैनलों और सोशल मीडिया मंचों के नियमन का बहाना लेकर दबे पांव एक नियमावली लेकर आने के बाद इस साल हुकूमत ने अपने अदरक-पंजे फैलाने शुरू कर दिए। ‘स्व-नियमन‘ की व्यवस्था को ठेंगा दिखाकर ‘केंद्र सरकार की निगरानी’ को तरज़ीह मिलनी शुरू हो गई है।

भारतीय जनता पार्टी की सियासत में किनारे कर दिए गए कई सांसद प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी की निग़ाहे-क़रम पाने की ललक लिए संसद के दोनों सदनों में सोशल मीडिया को देशहित’ में संचालित करने के लिए आवाजें उठा रहे हैं। भारतीय प्रशासनिक सेवा छोड़कर राष्ट्रवादी राजनीति में आने के बाद अब संप्रेषण और सूचना तकनीक की ज़िम्मेदारी संभाल रहे मंत्री ने भी संसद में कह दिया है कि सोशल मीडिया के लिए कड़े क़ानून बनाने की ज़रूरत है।

सो, 2023 में मुझे तो समाचार-जगत से जुड़ी कोई ख़ास गुलाबी उम्मीद नज़र आ नहीं रही। लेकिन कुछ ख़्वाहिशें ज़रूर हैं। पूरी न सही, आधी-अधूरी भी, पूरी हो जाएं तो अयोध्या जाकर प्रसाद चढ़ाऊंगा। एक, प्रेस परिषद जैसी ‘स्वायत्त’ संस्थाओं का नखदंत-विहीनीकरण लगातार गहरा हो रहा है, वह थम जाए। दो, सूचना के अधिकार की धमक पिछले साढ़े आठ बरस से अनवरत पातालगामी है, वह ठहर जाए।

तीन, नए संसद भवन में तो ख़ैर केंद्रीय कक्ष बनाया ही नहीं गया है, लेकिन कोरोना के बहाने पुराने भवन का केंद्रीय कक्ष भी पत्रकारों के लिए तीन साल से बंद है, वह खुल जाए। चार, संसद की प्रेस गैलरी तक में पत्रकारों को लॉटरी के ज़रिये प्रवेश देने की बेहूदगी ख़त्म हो जाए। पांच, ज़िलों-कस्बों के पत्रकारों की दैहिक सुरक्षा के इंतज़ाम हो जाएं और इतना तो सुनिश्चित हो कि वे लाइलाज़ नहीं मरेंगे। छह, केंद्र और राज्यों के सरकारी विज्ञापनों की नीतियां लहीम-शहीम समाचार संस्थानों के बजाय वैयक्तिक, छोटे और मंझले उपक्रमों के प्रति उदारमाना भाव से बन जाएं।

अगर 2023 ने मेरी इन इच्छाओं का शतांश भी पूरा कर दिया तो समझो मैं गंगा नहा लूंगा। काशी में बहते शवों की यादों के बीच नहीं, समंदर की सतह से तीन किलोमीटर ऊपर जा कर गंगोत्री की पहली पवित्र धार में शंकर जी की आराधना करते हुए।

(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)


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