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‘सच कमाल! तुम बहुत याद आओगे’
कमाल खान अब नहीं है। भरोसा नहीं होता। दुनिया से जाने का भी एक तरीका होता है। यह तो बिल्कुल भी नहीं।
समाचार4मीडिया ब्यूरो 2 years ago
राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार।।
मैं पूछता हूं तुझसे, बोल माँ वसुंधरे,
तू अनमोल रत्न लीलती है किसलिए?
कमाल खान अब नहीं है। भरोसा नहीं होता। दुनिया से जाने का भी एक तरीका होता है। यह तो बिल्कुल भी नहीं। जब से खबर मिली है, तब से उसका शालीन, मुस्कुराता और पारदर्शी चेहरा आंखों के सामने से नहीं हट रहा। कैसे स्वीकार करूं कि पैंतीस बरस पुराना रिश्ता टूट चुका है। रूचि ने इस हादसे को कैसे बर्दाश्त किया होगा, जब हम लोग ही सदमे से उबर नहीं पा रहे हैं। यह सोचकर ही दिल बैठा जा रहा है। मुझसे तीन बरस छोटे थे, लेकिन सरोकारों के नजरिये से बहुत ऊंचे।
पहली मुलाकात कमाल के नाम से हुई थी, जब रूचि ने जयपुर नवभारत टाइम्स ने मेरे मातहत बतौर प्रशिक्षु पत्रकार जॉइन किया था। मैं वहां मुख्य उप संपादक था। अंग्रेजी की कोई भी कॉपी दो, रूचि की कलम से फटाफट अनुवाद की हुई साफ सुथरी कॉपी मिलती थी। मगर, कभी-कभी वह बेहद परेशान दिखती थी। टीम का कोई सदस्य तनाव में हो तो यह टीम लीडर की नजर से छुप नहीं सकता। कुछ दिन तक वह बेहद व्यथित दिखाई दे रही थी। एक दिन मुझसे नहीं रहा गया। मैंने पूछा, उसने टाल दिया। मैं पूछता रहा, वह टालती रही।
एक दिन लंच के दरम्यान मैंने उससे तनिक क्षुब्ध होकर कहा, ‘रूचि! मेरी टीम का कोई सदस्य लगातार किसी उलझन में रहे, यह ठीक नहीं। उससे काम पर उल्टा असर पड़ता है।‘ उस दिन उसने पहली बार कमाल का नाम लिया। कमाल नवभारत टाइम्स, लखनऊ में थे। दोनों विवाह करना चाहते थे। कुछ बाधाएं थीं। उनके चलते भविष्य की आशंकाएं रूचि को मथती रही होंगी। एक और उलझन थी। मैंने अपनी ओर से उस समस्या के हल में थोड़ी सहायता भी की। वक्त गुजरता रहा।
रूचि भी कमाल की थी। कभी अचानक बेहद खुश तो कभी गुमसुम। मेरे लिए वह छोटी बहन जैसी थी। पहली बार उसी ने कमाल से मिलवाया। मैं उसकी पसंद की तारीफ किए बिना नहीं रह सका। मैंने कहा, तुम दोनों के साथ हूं। अकेला मत समझना। फिर मेरा जयपुर छूट गया। कुछ समय बाद दोनों ने ब्याह रचा लिया। अक्सर रूचि और कमाल से फोन पर बात हो जाती थी। दोनों बहुत खुश थे।
इसी बीच विनोद दुआ का दूरदर्शन के साथ साप्ताहिक न्यूज पत्रिका परख प्रारंभ करने का अनुबंध हुआ। यह देश की पहली टीवी समाचार पत्रिका थी। हम लोग टीम बना रहे थे। कुछ समय वरिष्ठ पत्रकार दीपक गिडवानी ने परख के लिए उत्तर प्रदेश से काम किया। अयोध्या में बाबरी प्रसंग के समय दीपक ही वहां थे। कुछ एपिसोड प्रसारित हुए थे कि दीपक का कोई दूसरा स्थाई अनुबंध हो गया और हम लोग उत्तर प्रदेश से नए संवाददाता को खोजने लगे।
विनोद दुआ ने यह जिम्मेदारी मुझे सौंपी। मुझे रूचि की याद आई। मैंने उसे फोन किया। उसने कमाल से बात की और कमाल ने मुझसे। संभवतया तब तक कमाल ने एनडीटीवी के संग रिश्ता बना लिया था। चूंकि परख साप्ताहिक कार्यक्रम था, इसलिए रूचि गृहस्थी संभालते हुए भी रिपोर्टिंग कर सकती थी। कमाल ने भी उसे भरपूर सहयोग दिया। यह अदभुत युगल था। दोनों के बीच केमिस्ट्री भी कमाल की थी। बाद में जब उसने इंडिया टीवी जॉइन किया तो कभी-कभी फोन पर दोनों से दिलचस्प वार्तालाप हुआ करता था।
एक ही खबर के लिए दोनों संग-संग जा रहे हैं। टीवी पत्रकारिता में शायद यह पहली जोड़ी थी, जो साथ-साथ रिपोर्टिंग करती थी। जब भी लखनऊ जाना हुआ, कमाल के घर से बिना भोजन किए नहीं लौटा। दोनों ने अपने घर की सजावट बेहद सुरुचिपूर्ण ढंग से की थी। दोनों की रुचियां भी कमाल की थीं. एक जैसी पसंद वाली ऐसी कोई दूसरी जोड़ी मैंने नहीं देखी। जब मैं आजतक चैनल का सेट्रल इंडिया का संपादक था, तो अक्सर उत्तर प्रदेश या अन्य प्रदेशों में चुनाव की रिपोर्टिंग के दौरान उनसे मुलाकात हो जाती थी।
कमाल की तरह विनम्र,शालीन और पढ़ने लिखने वाला पत्रकार आजकल देखने को नहीं मिलता। कमाल की भाषा भी कमाल की थी। वाणी से शब्द फूल की तरह झरते थे। इसका अर्थ यह नहीं था कि वह राजनीतिक रिपोर्टिंग में नरमी बरतता था। उसकी शैली में उसके नाम का असर था। वह मुलायम लफ्जों की सख्ती को अपने विशिष्ट अंदाज में परोसता था। सुनने देखने वाले के सीधे दिल में उतर जाती थी।
आजादी से पहले पद्य पत्रकारिता हमारे देशभक्तों ने की थी। लेकिन, आजादी के बाद पद्य पत्रकारिता के इतिहास पर जब भी लिखा जाएगा तो उसमें कमाल भी एक नाम होगा। किसी भी गंभीर मसले का निचोड़ एक शेर या कविता में कह देना उसके बाएं हाथ का काम था। कभी-कभी आधी रात को उसका फोन किसी शेर, शायर या कविता के बारे में कुछ जानने के लिए आ जाता। फिर अदबी चर्चा शुरू हो जाती। यह कमाल की बात थी कि रूचि ने मुझे कमाल से मिलवाया, लेकिन बाद में रूचि से कम, कमाल से अधिक संवाद होने लगा था।
कमाल के व्यक्तित्व में एक खास बात और थी। जब परदे पर प्रकट होता तो सौ फीसदी ईमानदारी और पवित्रता के साथ। हमारे पेशे से सूफी परंपरा का कोई रिश्ता नहीं है, लेकिन कमाल पत्रकारिता में सूफी संत होने का सुबूत था। वह राम की बात करे या रहीम की, अयोध्या की बात करे या मक्क़ा की, कभी किसी को ऐतराज नहीं हुआ। वह हमारे सम्प्रदाय का कबीर था।
सच कमाल! तुम बहुत याद आओगे। आजकल, पत्रकारिता में जिस तरह के कठोर दबाव आ रहे हैं, उनको तुम्हारा मासूम रुई के फाहे जैसा नरम दिल शायद नहीं सह पाया। पेशे के ये दबाव तीस बरस से हम देखते आ रहे हैं। दिनों दिन यह बड़ी क्रूरता के साथ विकराल होते जा रहे हैं। छप्पन साल की उमर में सदी के संपादक राजेंद्र माथुर चले गए। उनचास की उमर में टीवी पत्रकारिता के महानायक सुरेंद्र प्रताप सिंह यानी एसपी चले गए। असमय अप्पन को जाते देखा, अजय चौधरी को जाते देखा, दोनों उम्र में मुझसे कम थे। साठ पार करते-करते कमाल ने भी विदाई ले ली। अब हम लोग भी कतार में हैं। क्या करें? मनहूस घड़ियों में अपनों का जाना देख रहे हैं। याद रखना दोस्त। जब ऊपर आएं तो पहचान लेना। कुछ उम्दा शेर लेकर आऊंगा। कुछ सुनूंगा, कुछ सुनाऊंगा। महफिल जमेगी।
अलविदा कमाल!
हम सबकी ओर से श्रद्धांजलि।
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