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जुड़वां भाइयों में भी नहीं मिलता ऐसा संयोग, जैसा मेरा शिव अनुराग के साथ था: राजेश बादल
शिव अनुराग याने रामू को गए एक बरस हो गया। यकीन तो अभी भी नहीं होता। लगता है कि अभी कहीं किसी यात्रा पर गए हो। अभी अभी लौटकर आओगे। मुस्कुराओगे।
समाचार4मीडिया ब्यूरो 2 years ago
राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार ।।
शिव अनुराग याने रामू को गए एक बरस हो गया। यकीन तो अभी भी नहीं होता। लगता है कि अभी कहीं किसी यात्रा पर गए हो। अभी अभी लौटकर आओगे। मुस्कुराओगे। फिर अचानक गंभीर हो जाओगे। कहीं खो जाओगे। फिर पल भर में लौट कर सामान्य हो जाओगे। अपनी तकलीफ और तनाव को भूलकर सामान्य हो जाना तुम्हारी दशकों पुरानी आदत थी। यही तुम्हारी अदा थी। आज सोच रहा हूं तो यादों की फिल्म चल रही है।
हम लोगों का जन्म छतरपुर में हुआ। जब होश संभाला तो हम दोनों जिले के एक आदिवासी गांव अनगौर में थे। हम दोनों के पिता वहां एक ही स्कूल में थे। एक ही दिन सीधे पांचवीं कक्षा में पढ़ाई के लिए प्रवेश लिया था। हम दोनों की प्रवेश परीक्षा भी साथ साथ हुई थी एक ही फट्टी पर अगल बगल बैठते थे। फिर आठवीं कक्षा तक साथ पढ़े। स्कूल पैदल जाते थे तीन चार किलोमीटर रोज बस्ता टांगे। एक ही क्लास में। क्या संयोग था कि हम लोग वर्षों तक प्रथम श्रेणी में पहले तीन स्थान शेयर करते रहे। दूसरा स्थान उत्तम याने उपेन्द्रनाथ शेयर करते थे। उत्तम शिव अनुराग के ताऊजी के बेटे थे। इस तरह हमारी तिकड़ी थी। मेरी छोटी तीन बहनें थीं और रामू की भी छोटी तीन बहनें थीं।सातवीं कक्षा में हम लोगों को एक साथ ही साइकिल मिली। मेरी एटलस थी। सेकंड हैंड। रामू की हीरो थी। उनका घर का नाम रामू था। हम लोग उन्हें रामू ही कहते थे। शिव अनुराग शायद ही कभी कहा हो, याद नहीं आता।
उसके बाद हमारे पिताओं का तबादला चंद्रनगर हो गया। दसवीं ग्यारहवीं चंद्रनगर में पढ़े। एक ही मकान के दो हिस्सों में रहते थे। फिर एक ही महाराजा कॉलेज छतरपुर से बीएससी किया। क्या संयोग था कि हम दोनों फर्स्ट ईयर में फेल हो गए। उत्तम पास हो गए। एक तो इस कारण और दूसरा पत्रकारिता के कारण हमारी- याने रामू, उत्तम और मेरी तिकड़ी टूट गई। उत्तम पत्रकारिता में नहीं आए। लेकिन तिकड़ी फिर भी बनी रही। उसमें विभूति शर्मा जुड़ गए थे। फिर हमने आगे पीछे एमए इतिहास में किया। बीएससी की सालाना परीक्षा के पहले पर्चे के दिन जब रामू परीक्षा के लिए निकल रहे थे और जूते पहन रहे थे, तो उसमें छिपे बिच्छू ने काट लिया और रामू परीक्षा नहीं दे पाए। इस तरह एक साल का अंतर हो गया। इसी अंतर के कारण मैंनें उन्हें इतिहास एमए फाइनल में पढ़ाया। फिर हमने आगे पीछे पत्रकारिता शुरू कर दी। वे ‘दैनिक जागरण’ रीवा में 1978 में जुड़े और मैं एक डेढ़ साल पहले 1977 में ‘दैनिक जागरण’ झांसी का संवाददाता हो गया था। फिर ‘शुभभारत’ के संपादक श्याम किशोर अग्रवाल के संपर्क में आए। इसके बाद ‘राष्ट्रभ्रमण’ के संपादक सुरेंद्र अग्रवाल और ‘क्रांतिकृष्ण’ के संपादक अजय दोसाज के साथी बने। तीनों अखबारों में नियमित बैठकें जमती थीं लेकिन महफिल तो श्याम जी के ‘शुभ भारत’ में ही जमती थी। फिर हम सब ने मिलकर प्रशासन से लड़ाई लड़ी और उत्पीड़न का विरोध किया। हमारी नियति जहां हमें ले जाना चाहती थी, उसमें छतरपुर कांड ने बड़ा योगदान किया। अपने सिद्धांतों, सरोकारों और उसूलों की खातिर लड़ना इसी दौर में हमने सीखा। यह हमें जिंदगी भर काम आया। हम दोनों ने एक ही आकाशवाणी केंद्र छतरपुर में साथ-साथ अनेक कार्यक्रम बनाए। फिर मैं इंदौर ‘नईदुनिया’ गया, तो छह माह बाद प्रधान संपादक राजेंद्र माथुर जी से अनुरोध कर रामू और विभूति को भी बुला लिया। करीब पांच साल एक ही अखबार में रहे। इंदौर में पहले श्रीस्पोर्ट्स क्लब के राजबाड़ा स्थित हॉल में फिर सुदामानगर में एक ही घर में रहे। और तो और आगे पीछे एक ही कंपनी का स्कूटर खरीदा। विजय सुपर। दोनों के स्कूटरों का रंग हरा था। सब कुछ अनायास ही हुआ। कुछ भी हमने पहले बात करके तय नहीं किया था। पत्रकारिता करते हुए तो पहले ही श्रीधर जी के संपर्क में आ गए थे। उनके निर्देश पर मध्यप्रदेश में ‘पत्रकारिता का इतिहास’ पुस्तक के लिए एक साथ संयुक्त आलेख लिखा। वह हमारे जीवन की पहली पुस्तक थी। सन 1981 का माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता पुरस्कार मुझे मिला और फिर दो तीन बरस बाद रामू को यह सम्मान मिला। सत्यनारायण तिवारी लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड मुझे मिला। उसके कुछ समय बाद रामू को। रामू को राजेंद्र माथुर फेलोशिप मिली, उसकी चयन समिति का मैं सदस्य था। हम दोनों ने ‘ब्लिट्ज’, ‘रविवार’, ‘धर्मयुग’, ‘नवभारत टाइम्स’ और ‘जनसत्ता’ में लगातार लिखा।
उसके बाद मैं ‘नवभारत टाइम्स’ में चला गया। वे ‘जनसत्ता’ में। याने दोनों राष्ट्रीय अखबारों में। लौटे तो एक ही शहर भोपाल में। फिर जिस दैनिक ‘नईदुनिया’ में मैनें समाचार संपादक के रूप में काम किया, उसी कुर्सी पर रामू मेरे इस्तीफे के बाद बैठते थे। इसके बाद वे ‘संडे मेल’ में थे और मैं ‘संडे ऑब्जर्वर’ के साथ अनुबंध पर काम कर रहा था। इसके बाद दूरदर्शन के लिए मैंने ‘दस्तक’ धारावाहिक का निर्माण किया। जब मैंनें यह अनुबंध छोड़ा तो रामू ने भी वही दस्तक बनाना शुरू किया। कुछ समय स्वतंत्र पत्रकारिता की। मैं भी स्वतंत्र पत्रकार था। इन्हीं दिनों मैंने क्वालिस गाड़ी खरीदी। इसके कुछ दिन बाद रामू ने भी क्वालिस खरीदी। हम दोनों पांच और छह नंबर पर रहते थे और दोनों के मकानों का जोड़ आठ बनता था। एक और निजी बात। रामू की ससुराल जबलपुर में और मेरी आधी ससुराल जबलपुर में। वैसे मेरे ससुर जी जबलपुर के पड़ोसी जिले नरसिंहपुर के रहने वाले थे। रामू की पत्नी तीन बहनें हैं और मेरी पत्नी भी तीन बहनें हैं। रामू की पत्नी शिक्षिका हैं और मेरी पत्नी भी शिक्षिका हैं। उनकी बड़ी बेटी है और मेरी भी बड़ी बेटी है।
क्या ऐसा संयोग किन्ही दो व्यक्तियों के जीवन में आता है? जुड़वां भाइयों में भी नही देखने को मिलता। भाई रामू। तुम बड़े धोखेबाज निकले। कोरोना की दूसरी लहर में दोस्तों को एक के बाद एक जाते हुए देखकर मन विचलित होने लगा था। सोचा था कोरोना काल में महाकाल के पास जाने वाले साथियों पर अब नहीं लिखूंगा। हर बार लगता है कि अपना एक हिस्सा चला गया। लेकिन रामू ने लिखवा ही लिया। अपनी जीवन यात्रा में हम लोग आगे पीछे ही रहे, मगर आखिरी सफर पर वे चुपचाप आगे निकल गए। हां एक ही कमी रह गई। हम खुलकर लड़ नहीं पाए। ऐसा नहीं था कि हमारे मतभेद नहीं थे, पर हम दोनों ही उन अवसरों को टालते रहे। रिश्ता लंबा चलाने का शायद यह भी एक मंत्र था, जो हम दोनों जानते थे। हमारा कुछ लड़ना बाकी था ।
अब नज़ा का आलम है मुझ पर, तुम अपनी मोहब्बत वापस लो।
जब कश्ती डूबने लगती है, तो बोझ उतारा करते हैं।
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