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इंसान के रूप में फरिश्ता थे रमेश नैयर, अब ऐसे लोग कहां हैं: राजेश बादल
बयालीस-तैंतालीस साल तो हो ही गए होंगे, जब मैं रायपुर में रमेश नैयर जी से पहली बार मिला था।
समाचार4मीडिया ब्यूरो 1 year ago
राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार ।।
नहीं याद आता कि उनसे पहली बार कब मिला था, पर यह जरूर कह सकता हूं कि पहली भेंट में ही उन्होंने दिल जीत लिया था। एकदम बड़े भाई या स्नेह से भरे एक अभिभावक जैसा बरताव। निश्छल और आत्मीयता से भरपूर। आजकल तो देखने को भी नहीं मिलता।
बयालीस-तैंतालीस साल तो हो ही गए होंगे, जब मैं रायपुर में रमेश नैयर जी से पहली बार मिला था। एक शादी में रायपुर गया था। मैं उन दिनों ‘नईदुनिया’ में लिखा करता था और राजेंद्र माथुर के निर्देश पर शीघ्र ही सह संपादक के तौर पर वहां जॉइन करने जा रहा था। वहां नैयर जी और ललित सुरजन जी की शुभकामनाएं लेना मेरे लिए आवश्यक था। मैं ‘देशबंधु’ में भी तब बुंदेलखंड की डायरी लिखा करता था। नैयर साब के पास डाक से ‘नईदुनिया’ पहुंचता था और ‘देशबंधु’ तो वे पढ़ते ही थे। फिर वे मेरा आलेख पढ़कर चिट्ठी लिखकर अपनी राय प्रकट करते थे। उनके खत हौसला देते थे। फिर जहां-जहां भी गया, कभी फोन तो कभी चिट्ठी के जरिए संवाद बना रहा।
अपने उसूलों की खातिर उन्होंने कई बार नौकरियां छोड़ीं थीं और आर्थिक दबावों का सामना किया था। लेकिन कभी भी उनकी पीड़ा जबान पर नही आई। कुछ-कुछ मेरे साथ भी ऐसा ही था। जब भी मैंने अपने सरोकारों और सिद्धांतों के लिए इस्तीफे दिए तो वे नैयर साब ही थे, जो सबसे पहले फोन करके पूछते थे कि भाई घर कैसे चला रहे हो। कोई मदद की जरूरत हो तो बताओ। मैं कहता था कि जब तक आपका हाथ सिर पर है तो मुझे चिंता करने की क्या आवश्यकता है?
एक उदाहरण बताता हूं। मैं उन दिनों एक विख्यात समाचार पत्र में समाचार संपादक था। सितंबर 1991 के अंतिम सप्ताह में प्रख्यात श्रमिक नेता शंकर गुहा नियोगी की हत्या छत्तीसगढ़ के पूंजी पतियों ने करा दी। वे मेरे मित्र भी थे। इसके बाद मेरे हाथ कुछ दस्तावेज लगे। वे संदेह की सुई सही दिशा में मोड़ते थे। मैंने आशा भाभी (श्रीमती नियोगी) से संपर्क किया। संयोग से उनके पास भी कुछ ठोस सुबूत थे। मैंने उन्हें राज्यपाल और पुलिस महानिदेशक को ज्ञापन सौंपने की सलाह दी। उन्होंने ऐसा ही किया। इसके बाद मैंने उन सारे सुबूतों और दस्तावेजों को आधार बनाकर पहले पन्ने की पट्टी (बॉटम) छह कॉलम छाप दी। छपते ही जैसे तूफान आ गया। संवाद समितियों ने मेरी खबर को आधार बनाकर देशभर में इसका विस्तार कर दिया। एक दिन बाद रात को लगभग ग्यारह बजे उन कंपनियों की ओर से एक जनसंपर्क अधिकारी आए। उनके हाथ में एक ब्रीफकेस था। उन्होंने खोलकर दिखाया तो ठसाठस नोट भरे थे। उनका कहना था कि मैं अपनी खबर का खंडन छाप दूं तो यह आपके लिए लाया हूं। मैने गुस्से पर काबू रखते हुए उन्हें दरवाजा दिखा दिया। वे बोले, सोच लीजिए। कंपनियों की पहुंच ऊपर तक है। खंडन तो छपना ही है। मैंने लगभग चीखते हुए कहा कि फिर तो आप जाइए। संपादक और मालिक को यह पैसा दे दीजिए। मैं भी देखता हूं कि सच खबर का खंडन कैसे छपता है। वे मुस्कुराए। बोले, देखिए। पैसा तो देना ही है। संपादक और मालिक को पांच लाख रुपए और बढ़ाने पड़ेंगे। मैनें उन्हें फिर एक तरह घर से निकाल दिया। उस रात मूसलाधार बरसात हो रही थी और वे भीगते हुए नोटों भरा ब्रीफकेस लेकर अपना सा मुंह लेकर लौट गए।
अगले दिन दफ्तर पहुंचा तो मालिक याने प्रबंध संपादक और संपादक ने बुलाया और बड़े प्रेम से खबर का खंडन छापने का अनुरोध किया। मैंने उन्हें रात का किस्सा बयान किया और बताया कि पूंजीपतियों का पक्ष तो छापने के लिए तैयार हूं। यह पत्रकारिता का तकाजा है। पर खंडन, वह भी अपनी खबर का, जिसके बारे में मैं सौ फीसदी आश्वस्त हूं, कैसे छाप सकता हूं। प्रबंध संपादक मुस्कुराए। बोले, वे लोग अखबार को विज्ञापनों से मदद करने के लिए तैयार हैं। आप जानते हैं कि आजकल हम आप लोगों की वेतन कितनी मुश्किल से दे पा रहे हैं। अखबार का बंटवारा हुआ है। पैसा उलझा हुआ है। मैं मुस्कुराया। रात वाले दूत की बात सच साबित हो रही थी। इसके बाद संपादक से कुछ गरमागरम संवाद हुए। वे पूंजीपतियों के दलाल की भाषा बोल रहे थे। अंततः मैंने कहा, मेरे रहते तो खंडन नहीं छप सकता और उठकर अपनी टेबल पर आ गया। अगले दिन से संपादक ने दफ्तर आना बंद कर दिया। उन्होंने कहा कि राजेश बादल की खबर का खंडन प्रकाशित होगा, मैं तभी कार्यालय आऊंगा। उनकी शर्त यह भी थी कि मुझे गलत समाचार प्रकाशित करने के लिए अखबार को माफीनामा लिखकर देना होगा। माफी नामे को पूरे संपादकीय विभाग की बैठक में पढ़कर सुनाया जाएगा। कोई भी पत्रकार ऐसी ऊटपटांग शर्त को कैसे स्वीकार कर सकता था। मेरे लिए यह इशारा काफी था । फिर भी मैं जाता रहा और संपादक घर बैठे आराम फरमाते रहे । क़रीब एक सप्ताह बीत गया । उधर खंडन नहीं छपने से पूंजीपतियों का गिरोह भी परेशान था। एक दिन मालिक याने प्रबंध संपादक ने बुलाया और कहा, राजेश! मैं तुमको खोना नही चाहता और उन संपादक के बिना समाचार पत्र चल नहीं सकता। इसलिए ऐसा कब तक चलेगा। मैंने उनसे कहा, मैं कल सुबह आपके घर आता हूं और बात करता हूं।
अगले दिन आठ अक्तूबर, 1991 को सुबह 9.20 बजे मैं उनके घर गया और इस्तीफा सौंप दिया। उन्होंने रोकने का बहुत प्रयास या अभिनय किया, पर जहां पैसा, विवेक और सिद्धांतों पर हावी हो जाए, वहां काम करने का कोई मतलब नहीं था। बाहर निकलते हुए लोहे का दरवाजा बंद करते हुए मेरे कुछ आंसू गिरे। धुंधलाई आंखों से स्कूटर स्टार्ट करके मैं घर आ गया। मैं सड़क पर आ गया था।
मैं इस अखबार में आने से पहले राष्ट्रीय दैनिक ‘नवभारत टाइम्स’ में मुख्य उप संपादक था। अब सोच रहा था कि कौन सी घड़ी में त्यागपत्र दिया। मुझे प्रोविडेंट फंड का कुछ पैसा मिला था। उससे मैंने स्कूटर खरीद लिया था। अब मैं ठन ठन गोपाल था। उस दिन के बाद मेरे दुर्दिन शुरू हो गए। मेरा फोन छह सौ रुपए बिल नहीं भरने के कारण काट दिया गया। स्कूटर के पेट्रोल तक के लिए पैसे नहीं थे। यहां तक कि सब्जी खरीदने के लाले पड़ गए। अकेला रहता था। खाना खुद बनाता था। पत्रकार वार्ताओं में जाता था। चार-पांच किलोमीटर पैदल चलकर। उन दिनों सारी पत्रकार वार्ताएं पत्रकार भवन में हुआ करती थीं। उस दौर का संघर्ष याद करके रूह कांप जाती है। यद्यपि कई अखबारों से चीफ रिपोर्टर से लेकर संपादक के पद तक के प्रस्ताव आए, मगर मैंने आठ अक्तूबर को ही फैसला ले लिया था कि अब किसी समाचार पत्र में नौकरी नहीं करूंगा। धीरे-धीरे फ्री लांसर के तौर पर काम शुरू कर दिया। वह मेरी शून्य से शुरुआत थी। संघर्ष की वह मार्मिक और घनघोर संकटों वाली दास्तान फिर कभी सुनाऊंगा। लौटता हूं रमेश नैयर जी पर।
उस दौर में रमेश नैयर जी मेरा बड़ा संबल बने। फोन कटा था मगर आने वाले कॉल आ सकते थे। नैयर जी को न जाने कैसे इस पूरी कहानी की भनक लग गई। फिर तो प्रायः रोज ही उनके फोन आने लगे। वे मेरा आत्मविश्वास बढ़ा देते। मैं सोचा करता था कि ईश्वर को किसी ने नहीं देखा, लेकिन अगर उसका कोई अंश है तो वह नैयर जी में है। राजेंद्र माथुर जी के असामयिक निधन के बाद वे मेरे सबसे बड़े शुभ चिंतक थे। याद करता हूं कि उस दौर में भोपाल के बड़े नामी गिरामी पत्रकारों ने मुझसे मिलना बंद कर दिया था, जिनका मैं आदर करता था। वे बेरुखी दिखाने लगे थे। उन पत्रकारों के प्रति मेरे मन में आज भी कोई श्रद्धा नहीं है। अब मैं केवल अधिक आयु के कारण उनका सम्मान करता हूं। उनमें से अधिकांश को उन पूंजीपतियों ने खरीद लिया था। वे उस रिश्वतखोर संपादक के साथ मंच साझा करते थे। उनकी हकीकत जानते थे। मगर मुझे कोई दुःख नहीं था। दुःख था तो यही कि जिन लोगों का पत्रकारिता के कारण सम्मान करता था, उनके मुखौटे उतर गए थे। रमेश नैयर फरिश्ते की तरह मेरी जिन्दगी में आए थे। वे उन दिनों संडे ऑब्जर्वर, हिंदी में सहायक संपादक थे। उनके अलावा राजीव शुक्ल भी ‘ऑब्जर्वर’ में थे। लगभग दस बारह बरस पहले वे और मैं ‘रविवार’ में रिपोर्टिंग कर चुके थे। एक दिन मैंने देखा कि मेरी संघर्ष समाचार कथा उसमें प्रकाशित हुई थी। उसमें हवाला दिया गया था कि मुझे कैसे अखबार की नौकरी से इस्तीफा देना पड़ा था। नैयर जी का फोन तो अब रोज ही आने लगा था। एक दिन उनका सुबह सुबह फोन आया कि आप नियमित रूप से ‘संडे ऑब्जर्वर’ के लिए लिखिए। हम आपको उतना पारिश्रमिक तो दे ही देंगे, जितनी आपकी वेतन पिछले अखबार में थी। मेरी बांछें खिल गई। मेरा पुनर्जन्म हुआ था। संडे ऑब्जर्वर से हर महीने पहले सप्ताह में पैसे आने लगे थे। नैयर जी इसके बाद मेरी हर प्रगति की हर गाथा पर नजर रखते थे। मैं भी उन्हें अपनी हर बात बताया करता था। जब तक वे संडे ऑब्जर्वर में रहे, मैं लिखता रहा। हालांकि बाद में मेरी नियति ने करवट बदली और दो तीन साल दिन रात एक करने के बाद मैं अपने सहकर्मियों को करीब लाख रुपए का पेशेवर पारिश्रमिक देने में सक्षम था। मेरी स्थिति से नैयर साब प्रसन्न थे। उनके चेहरे पर खुशी देखकर जो अहसास होता था मैं नहीं बता सकता। इसके बाद जब भी रायपुर गया, उनसे मिलने का कोई अवसर नहीं गंवाया। कोई दस बरस पहले उन्होंने अपनी किताब- धूप के शामियाने भेंट की थी। मैं भारत विभाजन के समय उनके परिवार के शरणार्थी की तरह पाकिस्तान से आने की दास्तान सुनकर हिल गया था।
आज नैयर जी की देह हमारे साथ नहीं है। पर वे मेरे साथ हमेशा रहेंगे। मेरी श्रद्धांजलि।
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