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अब स्वतंत्र पत्रकारिता की रक्षा कौन करेगा मिस्टर मीडिया?

आंचलिक पत्रकारों की यह संघर्ष भावना यकीनन सम्मान की हकदार है। अफसोस है कि मुख्यधारा की पत्रकारिता में इस महत्वपूर्ण मुद्दे को व्यापक समर्थन नहीं मिला।

राजेश बादल 2 years ago

राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार।।  

उत्तर प्रदेश में एक के बाद एक लगातार परीक्षाओं के प्रश्नपत्र लीक हुए। जब पत्रकारों ने यह खबर छापी तो पुलिस ने उनके खिलाफ सख्त धाराएं लगाकर जेल में डाल दिया। इसके विरोध में पत्रकार सड़कों पर आते हैं। जब अदालत ने पुलिस की धाराओं का परीक्षण किया तो पाया कि यह पत्रकारों का उत्पीड़न है और उन धाराओं की जरूरत ही नहीं है। पत्रकारों को इसके बाद छोड़ दिया गया।

इससे पहले पुलिस और प्रशासन पत्रकारों से प्रश्नपत्र लीक होने का स्त्रोत जानने के लिए दबाव डालता रहा। अब पत्रकार जमानत पर बाहर हैं। आजमगढ़ पत्रकारों के विरोध का केंद्र बिंदु बना रहा। वहां के डॉक्टर अरविन्द सिंह ने इसका नेतृत्व किया।

आंचलिक पत्रकारों की यह संघर्ष भावना यकीनन सम्मान की हकदार है। अफसोस है कि मुख्यधारा की पत्रकारिता में इस महत्वपूर्ण मुद्दे को व्यापक समर्थन नहीं मिला। पत्रकारों में अपने पेशे को लेकर इतनी संवेदनहीनता निश्चित ही शर्मनाक है।

ऐसी ही एक घटना कानपुर से मिली है, जहां पुलिस ने एक पत्रकार को निर्वस्त्र करके उसके गले में प्रेसकार्ड डालकर उसे सार्वजनिक रूप से घुमाया। इससे पहले मध्य प्रदेश के सीधी में भी पुलिस ने थाने में पत्रकारों के कपड़े उतरवाकर उनकी तस्वीरें सार्वजनिक कीं। भारतीय हिंदी पत्रकारिता का यह दौर क्रूर कथाएं लिख रहा है और इस पवित्र कार्य से जुड़े अधिकतर लोग चुप्पी साधे हुए हैं। समाज के अन्य बौद्धिक तबके भी समर्थन में खुलकर सामने नहीं आ रहे हैं। स्थिति यह है कि पड़ोसी के घर हमला होता है तो हम चुप रहते हैं और जब हम पर आक्रमण होता है तो पड़ोसी चुप्पी साधे रहता है।

मुझे याद है कि 1980 में एक जुलूस पर गोलीकांड की मजिस्ट्रेटी जांच की गोपनीय रिपोर्ट हम लोगों ने प्रकाशित की थी तो पुलिस-प्रशासन हम लोगों के खिलाफ ज्यादतियों और उत्पीड़न की लोमहर्षक दबंगई पर उतर आया था। हम लोग प्रदेश की राजधानी में भटके थे और उस समय के तथाकथित बड़े पत्रकारों ने हमें कोई समर्थन नहीं दिया था। मुफस्सिल पत्रकारों का संगठन आंचलिक पत्रकार संघ हमारी मदद के लिए सामने आया। मुख्यमंत्री को विधानसभा में न्यायिक जांच का ऐलान करना पड़ा था।

भारत में पत्रकार उत्पीड़न के मामले में यह पहला था, जिसकी ज्यूडिशियल जांच हुई और हम लोग जीते। यही नहीं, प्रेस काउंसिल ने भी अपनी ओर से इसकी जांच कराई थी। उसमें भी जिला प्रशासन को दोषी माना गया था। आमतौर पर किसी एक मामले की दो अर्ध न्यायिक जांचें नहीं होतीं। मगर, इस मामले में हुईं और पत्रकारों दोनों जांचों में जीते। न्यायिक जांच आयोग ने स्पष्ट कहा था कि पत्रकारों को अपना स्रोत बताने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

केंद्र और राज्य-दोनों में उन दिनों कांग्रेस की सरकार थी और पत्रकारों को न्याय मिला था। मुझे याद है कि उस मामले में हमारे समर्थन में समाज का हर वर्ग सड़कों पर उतर आया था। वकील, शिक्षक, व्यापारी, डॉक्टर आदि हमारे साथ खड़े थे। केवल सत्ताधारी विधायक हमारे विरोध में थे और जिला प्रशासन को बचा रहे थे। पर, वह काम नहीं आया। आज तक आजाद भारत का यह अपने किस्म का अकेला मामला है।

उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की घटनाएं पत्रकारों के लिए सामूहिक संघर्ष का संदेश देती हैं। यही नहीं, हुक़ूमतों के लिए भी इनमें एक चेतावनी छिपी है। अगर वे इस तरह दुर्व्यवहार करती रहीं तो एक दिन वह भी आएगा, जब उनका  सहयोग करने में अवाम भी आगे नहीं आएगी। सच सर चढ़कर बोलता है और झूठ के पांव नहीं होते। दमन का प्रतिरोध करने के लिए तैयार रहिए मिस्टर मीडिया!

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल की 'मिस्टर मीडिया' सीरीज के अन्य कॉलम्स आप नीचे दी गई हेडलाइन्स पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं-

अनजाने में होने वाले इस ‘अपराध’ की कीमत पत्रकार बिरादरी या देश चुकाता है मिस्टर मीडिया!

विचार की स्वतंत्रता के खिलाफ सियासी षड्यंत्र लोकतंत्र में बर्दाश्त नहीं मिस्टर मीडिया!

हिंदी पत्रकारिता के लिए यकीनन यह अंधकार काल है मिस्टर मीडिया!

एक तरह से यह आचरण पत्रकारिता के लिए आचार संहिता बनाने पर मजबूर करने वाला है मिस्टर मीडिया!


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