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संपादक की दुविधा हम समझते हैं, पर कोई समाधान निकालिए मिस्टर मीडिया!
सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव परिणाम आने के बाद परिस्थितियां बदलीं हैं
राजेश बादल 5 years ago
राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार।।
टेलिविजन चैनलों के भीतर की दुनिया भी अजीब है। किसी भी शो या कार्यक्रम के दरम्यान बहस से यह पता चलता है। हम पत्रकारों की पहचान भी राजनीतिक दलों से जोड़कर होने लगी है। चर्चा में बतौर विशेषज्ञ या विश्लेषक शामिल होते हैं। अपने विचार प्रस्तुत करते हैं। मगर देखा गया है कि अगर आप दो-चार बार विषय की समीक्षा करते हुए अगर भारतीय जनता पार्टी की आलोचना कर दें तो आपको पार्टी का स्थाई विरोधी और कांग्रेस समर्थक मान लिया जाता है। अगर आलोचना की जगह विश्लेषण में कुछ प्रशंसा-भाव आ जाए तो आप बीजेपी के समर्थक और कांग्रेस के आलोचक मान लिए जाते हैं। इसी तरह अन्य क्षेत्रीय दलों के मामले में होता है। अगर पत्रकार उस राज्य से है, जहां क्षेत्रीय पार्टी सत्ता में है तो उस पत्रकार को प्रायः उस पार्टी के अंदरूनी मामलों का जानकार समझा जाता है। अगर वाकई पत्रकार उसका विद्वान है तो कोई एतराज नहीं है। पर ऐसा न हो तो क्या किया जाए? ऐसा क्यों है?
वास्तव में यह सिलसिला नया नहीं है। दस बरस से तो चल ही रहा है। हां, साल-दो साल से बढ़ गया है। सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव परिणाम आने के बाद परिस्थितियां बदलीं हैं। कांग्रेस ने अपने प्रवक्ताओं को चैनल चर्चाओं में शामिल होने से रोक दिया है। इसी तरह समाजवादी पार्टी ने भी ऐसा ही फैसला लिया है। बहुजन समाज पार्टी तो पहले ही इस तरह की बहस में अपने प्रतिनिधियों/कार्यकर्ताओं/प्रवक्ताओं को भेजने से बचती रही है। राजनीतिक दलों का यह रवैया अटपटा है। 2019 के हिंदुस्तान में कोई राष्ट्रीय दल कैसे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व के गंभीर मुद्दों पर गूंगा रह सकता है? संसार के सबसे विराट और पुराने लोकतंत्र में विपक्ष का यह रुख निश्चित ही जिम्मेदार नहीं है।
इन दलों को यह भी याद रखना होगा कि उनके इस फैसले से सत्ता पक्ष को इकतरफा अवसर मिलता है। उसे लाभ मिलता है, लेकिन यहां बात पत्रकारों की हो रही है, जिनकी छवि प्रतिपक्षी पार्टियों के इस निर्णय के कारण उनके प्रवक्ताओं जैसी दिखाई देती है। अपवाद के रूप में कुछ उदाहरण भी हैं, जब पत्रकार किसी दल के बारे में सकारात्मक विश्लेषण करते हुए उसी पार्टी में शामिल हो जाते हैं। उनकी राजनीतिक पारी उस दल के साथ प्रारंभ हो जाती है।
दरअसल, चैनलों के भीतर गेस्ट-कोऑर्डिनेशन विभाग भी संतुलन की नीति अपनाते हुए संवाददाताओं या पत्रकारों को भी किसी पार्टी के करीब मान लेता है। कहा जाता है कि अमुक विषय पर बीजेपी का तो प्रवक्ता मिल रहा है, लेकिन कांग्रेस, सपा अथवा बसपा या अन्य दलों के प्रवक्ता नहीं मिल रहे हैं। फिर उस पत्रकार को बुला लो, जो प्रो-कांग्रेस बोलता हो या बसपा-सपा के पक्ष में राय रखता हो। इसके बाद एंकर भी बीजेपी प्रवक्ता के बोलने के बाद उन पत्रकारों से वैसे सवाल करता है, जो विपक्षी दलों के प्रवक्ताओं से किए जाने चाहिए थे। कुछ पत्रकार इसे अपना नैतिक धर्म भी मान लेते हैं और उत्तर भी देते हैं। इसी वजह से उनकी छवि बन जाती है।
क्या विडंबना है कि जो राजनीतिक दल अपनी पार्टियों में भरोसेमंद दूसरी या तीसरी पंक्ति के प्रवक्ता/कार्यकर्ता तैयार नहीं कर पा रहे हैं, वे हालात के मद्देनजर नए पत्रकारों को अपनी पार्टियों के लिए तैयार कर रहे हैं। यह स्थिति पत्रकारिता के पेशे के लिए कितनी उचित है-इसका जवाब मैं अपने पेशे के साथियों पर ही छोड़ता हूं। पत्रकारिता अपनी जगह जरूरी है और परदे पर बहस में संतुलन भी जरूरी है। एंकरिंग का धर्म निभाना भी आवश्यक है और गेस्ट कोऑर्डिनेशन का धर्म संकट भी जायज है। चैनल संपादक की दुविधा हम समझ सकते हैं और किसी दल से संबद्ध न होते हुए भी टैग लग जाना भी ठीक नहीं है। इसका कोई समाधान निकालिए मिस्टर मीडिया!
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