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मिस्टर मीडिया: धुरंधर संपादक परदे के पीछे के समीकरण क्यों नहीं समझते?
बीते सप्ताह गलवान में चीन के साथ खूनी संघर्ष मीडिया के सभी रूपों में छाया रहा। इस दरम्यान शुरू के तीन-चार दिन तक चीन के बयान एक के बाद एक आते रहे और भारतीय अधिकृत बयान आने में कुछ समय लगा।
राजेश बादल 4 years ago
राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार।।
बीते सप्ताह गलवान में चीन के साथ खूनी संघर्ष मीडिया के सभी रूपों में छाया रहा। इस दरम्यान शुरू के तीन-चार दिन तक चीन के बयान एक के बाद एक आते रहे और भारतीय अधिकृत बयान आने में कुछ समय लगा। इसका लाभ चीन को मिला और असर मीडिया के समग्र कवरेज पर भी पड़ा। चीन का पक्ष प्रायः प्रतिदिन नए-नए कोण से प्रस्तुत किया जाता रहा और भारतीय मीडिया उसे संतुलित करने के लिए प्रोपेगंडा कवरेज में उलझा रहा। आपसी होड़ के चलते चैनलों ने बेहद आक्रामक अंदाज में इस घटनाक्रम को दर्शकों के सामने परोसा। अलबत्ता, अपवाद छोड़ दें तो अंग्रेजी खबरिया चैनलों का कुल कवरेज अपेक्षाकृत गंभीर और परिपक्व था। यही नहीं, तमिल, मलयालम, तेलुगु, मराठी तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के चैनल भी संयत दिखाई दिए।
सवाल यह है कि सिर्फ हिंदी चैनलों की गाड़ी ही पटरी से क्यों उतरती है? एक गलवान की घटना घटती है तो हम फौरन दोनों देशों की सेनाओं की तुलना करने लगते हैं। अपने एक-एक फाइटर प्लेन और गोला बारूद का बढ़ा-चढ़ाकर खुलासा करते हैं। ऐसा प्रकट करते हैं, मानो बस अब जंग छिड़ने ही वाली है। कई चैनल तो विश्वयुद्ध की चेतावनी देने लगते हैं। बिना समीकरणों को समझे ऐलान कर देते हैं कि अमेरिका अब हिन्दुस्तान के लिए मैदान में उतरने वाला है। जापान भी चीन पर हमला करने वाला है और रूस भी जैसे हमारी ओर से चीन के साथ युद्ध करने पर उतारू है। अब चीन की खैर नहीं है। अभी भी देख लें। सेना आने वाले दिनों में क्या करने वाली है। हर तथ्य का परदे पर पहले खुलासा दिख जाता है। क्या राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रत्येक संवेदनशील तथ्य को उजागर करना जरूरी है? क्या इससे हम शत्रु देश की सहायता नहीं करते?
पर हकीकत क्या निकली? अमेरिका ने तीन दिन बाद मुंह खोला और भारतीय शहीदों को श्रद्धांजलि देकर चुप्पी साध ली। इतना ही नहीं, अमेरिका और चीन का डिनर हुआ और दोनों मुल्कों ने नरम सुर में प्रेम राग गाया। इसके बाद उसने चीन के साथ कारोबार चालू रखने के भी संकेत दिए। अमेरिकी रवैया हमेशा ही ऐसा रहा है, मगर मीडिया के धुरंधर संपादक परदे के पीछे के समीकरण क्यों नहीं समझते? रूस से भारत के रक्षा सौदे ठंडे बस्ते में पड़े हैं। इसलिए वह भी शांत ही रहा। राजनाथ सिंह की यात्रा के बाद शायद कुछ तेज हो। भूटान, म्यांमार, अफ़गानिस्तान, मालदीव और बांग्लादेश जैसे देश भी कुछ नहीं बोले। हमारे चैनल जंग के लिए अधिक उतावले थे। समझना होगा कि उपग्रह टीवी के दौर में चैनलों के सिग्नल भारत के बाहर भी दिखाई देते हैं।
विचित्र बात है कि भारतीय हिंदी चैनल परदेसी चैनलों की प्रस्तुति, कंटेंट,प्रोडक्शन क्वालिटी और और पेशेवर अंदाज से अपनी तुलना क्यों नहीं करते। भारत-चीन के बीच तनाव का चीनी टीवी पर कवरेज भी देखा जाना चाहिए था। सीएनएन, अल जजीरा, रसिया टुडे, बीबीसी और एनएचके जैसे चैनल अनेक व्यापक महत्त्व के मसलों पर परदे की गंभीरता नष्ट नहीं करते। तनाव के दौरान भारतीय टीवी एक पक्ष था। इसलिए तनिक आक्रामक होना स्वाभाविक है, लेकिन अतिरेक और उन्माद में अंतर होता है। यह बात गौर करने की है मिस्टर मीडिया!
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