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मिस्टर मीडिया: साल भर जहरीली सांसें छोड़ता रहा मीडिया!
सत्ता के शिखरों ने अपने हित साधने में पत्रकारों और पत्रकारिता का भरपूर इस्तेमाल किया और हम खड़े-खड़े ग़ुबार देखते रहे
राजेश बादल 4 years ago
राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार।।
साल का आखिरी दिन। हम 2019 के पल-पल का मूल्यांकन कर सकते हैं। कुछ मित्र यकीनन खफा हो सकते हैं कि मेरे जेहन में इस साल पत्रकारिता के नजरिये से कोई सकारात्मक छवि नहीं उभर रही है। कहने में कोई हिचक नहीं है कि पूरे बरस हमने जहरीली सांसें छोड़ने के अलावा कोई काम नहीं किया। सियासी दावपेंचों के हम शिकार रहे। सत्ता के शिखरों ने अपने हित साधने में पत्रकारों और पत्रकारिता का भरपूर इस्तेमाल किया और हम खड़े-खड़े ग़ुबार देखते रहे। सारे साल हर महीने कुछ-कुछ पत्रकारिता चटकती रही और दरार चौड़ी होती गई।
जब किसी इमारत की नींव के कुछ पत्थर हिलते या खिसकते हैं तो फौरन पता नहीं चलता। वे पत्थर दिखते नहीं, क्योंकि जमीन में दबे रहते हैं। जब जानकारी मिलती है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है। इमारत को बचाना मुश्किल हो जाता है। इस साल खबरनवीसी की नींव दरकती रही, हमें पता भी चलता रहा और हम असहाय इमारत को कमजोर होते देखते रहे। सवाल यह है कि क्या पेशेवर पत्रकार इस दिशा में कुछ कर सकते थे?
मेरा उत्तर है-हां! हम बहुत कुछ कर सकते थे। हम नहीं कर सके। इस बरस लोकसभा चुनाव हुए। इसके बाद हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में विधान सभा चुनाव हुए। महंगाई जस की तस रही। बेरोजगारी में कमी नहीं आई। आर्थिक मोर्चे पर तनाव साल भर था। कश्मीर से 370 की ऐतिहासिक विदाई हुई। नागरिक संशोधन कानून आया और उसके बाद अनेक प्रदेशों में आंदोलन,हिंसा तथा अशांति की लपटें तेज होती गईं। पाकिस्तान पूरे साल हमें तिली लिली...करते हुए चिढ़ाता रहा। सब कुछ करने के बाद भी चीन के रवैये में कोई तब्दीली नहीं दिखी। अमेरिका ने हमसे दूरी नहीं बनाई तो निकटता भी नजर नहीं आई। ईरान जैसे पुराने शुभचिंतक से कारोबार में कमी करनी पड़ी। नेपाल और श्रीलंका ठंडे-ठंडे रहे तो म्यांमार की आंग सान सू की के चेहरे पर मुस्कराहट नहीं रही।
बांग्लादेश से साल की शुरुआत में बेहद मधुर और गहरे रिश्ते थे, लेकिन साल के अंत में उसका भी मुंह सूज गया। अफगानिस्तान के साथ तटस्थता बनी रही और भूटान ने खामोशी ओढ़े रखी। हिंदुस्तान के इन सरोकारों में हम कहां थे? क्या कोई अखबार, रेडियो या टेलिविजन चैनल अपने खाते में कुछ दिखा सकता है? अपवाद के तौर पर इक्का-दुक्का चैनल हो सकते हैं, लेकिन सच तो यही है कि हमारे चैनल अपनेःअपने राजनीतिक आग्रहों,पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों के कारण परदे पर अत्यंत विकृत चेहरा पेश करते रहे। पत्रकार बेरोजगारी की मार झेलते रहे और इधर-उधर लुढ़कते रहे। बेशक शिखर पर बैठे संपादकों या पत्रकारों को बहुत परेशान नहीं होना पड़ा, मगर जनवरी से दिसंबर तक हर पत्रकार सीने में जलन और आंखों में तूफान लिए परेशान सा था। कुल मिलाकर पेशेवर सरोकारों के लिए पूरे साल बड़ी गंभीर चुनौतियां रहीं। इससे हमारी छवि को भी धक्का लगा है। सियासी गठजोड़ घातक है।
दूर थे जब तक सियासत से तो हम भी साफ थे, खान में कोयले की पहुंचे तो हम भी काले हो गए। अगला साल कुछ नए संकल्प, जिद और कुछ कुछ प्रो-एक्टिव अप्रोच मांगता है। इस पर ध्यान देना होगा मिस्टर मीडिया!
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
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