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हिंदी भाषा की 'गंगोत्री' सूखने से आखिर किसका नुकसान मिस्टर मीडिया!
सारी दुनिया अपनी बोलियों और कमजोर पड़ रही भाषाओं को बचाने का संकल्प लेती है। भारत में हम उनको मारने की साजिश करते हैं।
राजेश बादल 2 years ago
राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार।।
फैसला अजीब है। समझ से परे है। इससे आकाशवाणी के तमाम केंद्रों को झटका लगा है। करोड़ों देशवासी दुःखी हैं। जिस भाषा-बोलियों में विविधता के कारण हम भारतीय संस्कृति पर गर्व करते आए हैं, आजादी के अमृत महोत्सव वाले साल में उन बोलियों पर जहर छिड़का जा रहा है। इसे छिड़कने का काम प्रसार भारती ने किया है। फैसला यह है कि तमाम केंद्रों पर बोलियों के अधिकांश कार्यक्रमों का प्रसारण बंद कर दिया जाए और राष्ट्रीय स्तर से प्रसारित कार्यक्रमों को ही प्रादेशिक और क्षेत्रीय केंद्र दिखाएं। कुछ बेहद पुराने और प्रतिष्ठित आकाशवाणी केंद्रों पर भी ताला लटकाने का निर्णय लेने की खबरें हैं। इन बेतुके निर्णयों को कौन पसंद करेगा?
पहले ही अनेक भारतीय भाषाओं और बोलियों पर तलवारें लटकी हुई थीं। कई तो उनका निशाना भी बन चुकी हैं। कुछ समय पुराने आंकड़े बताते हैं कि देश की चालीस से अधिक भाषाएं या बोलियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। इन्हें बोलने वाले बमुश्किल कुछ हजार बचे हैं। भारत में एक लाख से ज्यादा लोगों के बीच 22 अनुसूचित और एक सौ गैर अनुसूचित भाषाएं या बोलियां प्रचलित हैं। देखने में यह जानकारी बहुत चिंता नहीं जगाती, क्योंकि दुनिया के किसी अन्य देश में इतनी समृद्ध भाषा परंपरा नहीं है।
कहा जाता है कि भारतीय समाज में जितनी भाषा-बोली की विविधता है, उतनी कहीं नहीं। इसीलिए गर्वबोध बनाए रखने के लिए अपनी भाषाओं और बोलियों की रक्षा भी हमारी जिम्मेदारी है। इसी मकसद से आकाशवाणी को अपनी बोलियों और भाषाओं का अधिक से अधिक विस्तार का काम सौंपा गया था। यह काम अभी भी अधूरा है। शायद ही किसी को याद हो कि भारतीय उप महाद्वीप ने ही सबसे पहले बोलियों और भाषाओं पर कतरा सूंघा था। हिंदुस्तान के बंटवारे के बाद। पाकिस्तान ने बांग्लादेश पर मातृभाषा बंगला की जगह उर्दू थोपी। उन्नीस सौ बावन में।(उन दिनों बांग्लादेश नहीं बना था)। आम अवाम ने इसका भारी विरोध किया। छात्र सड़कों पर उतर आए। पुलिस ने गोलियां बरसाईं। कई छात्र मारे गए।
अपनी बोली के लिए शहीद होने का यह अनूठा आंदोलन था। अगले साल से बंगला बोलने वालों ने वह दिन मातृभाषा दिवस के रूप में मनाना शुरू कर दिया। पैंतालीस साल बाद यूनेस्को ने इसे समर्थन दिया। उन दिनों विकसित देशों के समाज भी अपनी मातृभाषा पर आधुनिक सांस्कृतिक और भाषाई हमले से आहत थे। बांग्ला देश का उदाहरण उन्होंने प्रेरणा देने वाला माना। इस लिहाज से नवंबर महीना बड़ा खास है। 17 नवंबर 1999 से अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा-बोली दिवस मनाया जाने लगा। बाद में इसे संयुक्त राष्ट्र का भी समर्थन मिल गया। दो हजार आठ में संयुक्त राष्ट्र ने बाकायदा इसे इक्कीस फरवरी को समूचे विश्व में मनाने का ऐलान कर दिया। तबसे चौदह साल हो गए। सारी दुनिया अपनी बोलियों और कमजोर पड़ रही भाषाओं को बचाने का संकल्प लेती है। भारत में हम उनको मारने की साजिश करते हैं।
हिंदुस्तान के लगभग बारह-तेरह करोड़ आदिवासियों के बीच अनगिनत बोलियां प्रचलित हैं मगर उनको आज तक किसी सरकारी माध्यम से समुचित संरक्षण नहीं मिला। अनेक आदिवासी बोलियां विलुप्त हो चुकी हैं। संसार की सबसे पुरानी गोंडवी बोलने वाले डेढ़ करोड़ लोग हैं, पर आज तक गोंडवी अध्ययन और उस पर शोध करने की जरूरत किसी ने नहीं समझी है। क्या यह तथ्य किसी को समझाने की जरूरत है कि हिंदी की गंगोत्री अगर संसार भर में तेज रफ्तार से बह रही है तो उसे वेगवान बनाने का काम निमाड़ी, मालवी, बुंदेली, अवधी, बृज, बघेली, छत्तीसगढ़ी, कोरकू, भोजपुरी, मैथिली, पंजाबी, हाड़ौती, हरयाणवी, गुजराती, काठियावाड़ी, कच्छी, भीली, राठवा, ढुंढाड़ी कोंकणी, उर्दू, फारसी तथा ऐसी ही अनेक उप गंगाओं के मिलन से ही संभव हुआ है।
दशकों से यह बोलियां कानों में मिसरी घोलती रही हैं। केंद्रीय गृहमंत्री अगर हिंदी को समृद्ध बनाने की बात करते हैं तो प्रसार भारती का यह ताजा फैसला उसका मखौल उड़ाता है। परदे के पीछे इस फैसले का कारण फिजूलखर्ची रोकना बताया जाता है। क्या किसी को यह कारण संतुष्ट कर सकता है? शायद नहीं। फिर भारतीय समाज क्यों चुप्पी साधे हुए है। राज्यों के संस्कृति मंत्री शोभा की वस्तु बनकर रह गए हैं।
बेशक सरकारी माध्यम होने के नाते आकाशवाणी पर सरकार का हक है। लेकिन संसार में सौ करोड़ लोग हिंदी भाषा बोलते, समझते या लिखते हैं। ऐसी भाषा का उदगम सुखाने और उसकी हत्या का षड्यंत्र किसे अच्छा लगेगा और न ही किसी सरकारी संस्था को इसका अधिकार दिया जा सकता है। कुछ अंग्रेजीदां नौकरशाहों की गुलाम मानसिकता के सहारे इस देश की संस्कृति को बचाने का काम नहीं किया जा सकता। आकाशवाणी के कार्यक्रम इन बोलियों या भाषाओं के जरिये करोड़ों लोगों तक पहुंचते हैं। जन-जन की भावना के साथ खिलवाड़ जायज नहीं है मिस्टर सरकारी मीडिया!
(यह लेखक के निजी विचार हैं)
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