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मिस्टर मीडिया: सच्चे पत्रकारों का क्या वाकई इतना अकाल है?
एक बार फिर न्यायपालिका ने पत्रकारिता के गिरते स्तर पर चिंता जताई है। इस बार उसने देश में सच्चे और ईमानदार पत्रकारों की जरूरत पर जोर दिया है।
राजेश बादल 2 years ago
राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार।।
एक बार फिर न्यायपालिका ने पत्रकारिता के गिरते स्तर पर चिंता जताई है। इस बार उसने देश में सच्चे और ईमानदार पत्रकारों की जरूरत पर जोर दिया है। न्यायमूर्ति डी वाय चंद्रचूड़ यह मानते हैं कि मुल्क में जिस तरह पत्रकारिता में झूठ का बोलबाला है, उसे देखते हुए समाज के बीच से सच को सामने लाने वाले पत्रकारों की आवश्यकता है। वैसे श्री चंद्रचूड़ ने पहली बार मीडिया के बारे में टिप्पणी नहीं की है। अनेक अवसरों पर उन्होंने इस पेशे में घटते मूल्यों और गुम होते सरोकारों के बारे में आगाह किया है। इससे पहले मुख्य न्यायाधीश भी इस संबंध में अपना ग़ुस्सा प्रकट कर चुके हैं। लेकिन मीडिया है कि मानता नहीं।
यह भी हकीकत है कि एक धड़ा मानता है कि न्यायपालिका कुछ दिनों से पत्रकारिता को लेकर ज्यादा आक्रामक हो रही है और उसकी लगातार टिप्पणियां पेशेवर ईमानदार संपादकों और पत्रकारों को हतोत्साहित कर रही हैं। पर, यह भी सच है कि संसदीय लोकतंत्र के प्रति निष्ठावान तीन में से दो स्तंभ जब निहायत ही गैर जिम्मेदार बर्ताव करने लगें तो न्यायपालिका में भी हताशा का भाव स्वाभाविक है। ऐसे में स्वयंभू चौथे स्तंभ पत्रकारिता का दायित्व है कि वह न्यायपालिका का मनोबल बढ़ाने में सहायता करे।
अफसोस है कि कुछ समय से मीडिया के एक वर्ग ने न्यायाधीशों पर भी निशाना लगाया है। लोकतंत्र में सौ फीसदी कोई संस्था शुद्ध और निर्दोष नहीं हो सकती। महात्मा गांधी भी यही मानते थे। मगर इसका अर्थ लोकतंत्र के रास्ते को छोड़ना नहीं, बल्कि उस संस्था के दोषों को कम से कम करना है। मुमकिन है कि पत्रकारिता की तरह न्यायपालिका में भी कुछ काली भेड़ें हों। पर, इससे वह संस्था ही बेकार नहीं कही जा सकती। समूचे समाज में नैतिकता और सिद्धांतों में गिरावट आई है तो चारों स्तंभों के लिए जागरूक नागरिक कहां से उपलब्ध होंगे? साहिर लुधियानवी ने इस विकट स्थिति पर लिखा था-
हम गमजदा हैं, लाएं कहां से खुशी के गीत, देंगे वही, जो पाएंगे इस जिंदगी से हम।
तात्पर्य यह कि सिर्फ पत्रकारिता, कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका को मुजरिम ठहराने से काम नहीं चलेगा। सिविल सोसायटी को अपने भीतर झांकना होगा। उसे ऐसे लोग बाहर लाने होंगे, जो हिन्दुस्तान के लिए सकारात्मक भूमिका निभा सकें और यह काम आसान नहीं है। इतिहास में पहले भी ऐसे कठिन अवसर आए हैं।
तभी तो रहीम ने लिखा था, ‘अब रहीम मुश्किल पड़ी, गाढ़े दोऊ काम/सांचे से तो जग नहीं और झूठे मिले न राम/
इसके बाद भी समाज ने अपने ढंग से इन स्थितियों का समाधान निकाला है। मौजूदा दौर इस लिहाज से संक्रमण काल कहा जा सकता है। वक्त रहते इससे उबरना होगा मिस्टर मीडिया!
(यह लेखक के निजी विचार हैं)
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