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मिस्टर मीडिया: पत्रकारिता को कुचलने के नतीजे भी घातक होते हैं!
देश के सबसे अधिक संस्करणों वाले समाचारपत्र ‘दैनिक भास्कर’ और लखनऊ के प्रादेशिक टीवी चैनल ‘भारत समाचार’ पर आयकर विभाग के छापे सुर्खियों में हैं।
राजेश बादल 3 years ago
राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार।।
देश के सबसे अधिक संस्करणों वाले समाचारपत्र ‘दैनिक भास्कर’ और लखनऊ के प्रादेशिक टीवी चैनल ‘भारत समाचार’ पर आयकर विभाग के छापे सुर्खियों में हैं। किसी कालखंड में समाज की परिस्थितियों के बारे में सही चित्रण ही उस पत्रकारिता को अनमोल बनाता है। कोरोना काल में ‘दैनिक भास्कर‘ ने कुछ ऐसी ही मिसाल पेश की है। अब उत्तर प्रदेश समेत कुछ प्रदेशों में विधानसभा चुनाव हैं, जिसमें इस तरह की पत्रकारिता सत्तारूढ़ दल के लिए परेशानी का सबब बन सकती थी।
यह भारतीय जनता पार्टी के अस्तित्व के लिए बड़ी चुनौती है, क्योंकि प्रधानमंत्री इसी राज्य से चुने गए सांसद हैं। वैसे भी उत्तर प्रदेश एक ‘महादेश‘ ही है। इस प्रदेश में हुकूमत का हिलना गंभीर चेतावनी है। पिछले दिनों बंगाल में साम, दाम, दंड, भेद अपनाने के बाद भी बीजेपी की जैसी पराजय हुई है, वह पार्टी के लिए सबक है। इसलिए एक बार फिर उत्तर प्रदेश में पार्टी अपना किला ढहते नहीं देखना चाहेगी। आयकर छापे हमें इसी संदर्भ में देखने चाहिए।
इन छापों के बारे में एक वर्ग कह रहा है कि इस समाचार पत्र समूह के कई धंधे हैं। उनमें गड़बड़ी हो तो अखबार की आड़ में कैसे माफ किया जा सकता है। इस सच से कोई इनकार नहीं कर सकता, मगर यह भी संविधान में नहीं लिखा है कि अखबार का मालिक कोई अन्य उद्योग नहीं चला सकता। आजादी के बाद बिड़लाजी का ‘हिंदुस्तान टाइम्स‘ फला-फूला तो ऐसी किसी छद्म नैतिकता में उन्होंने धंधे तो बंद नहीं किए।
एक जमाने में ‘चौथी दुनिया‘,‘संडे ऑब्ज़र्वर‘ और ‘संडे मेल‘ जैसे असरदार अखबार औद्योगिक घरानों ने ही निकाले थे। उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम चारों दिशाओं से आज भी ऐसे पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित हो रहे हैं, जिनका स्वामित्व उद्योगपतियों के हाथों में है। बताने की जरूरत नहीं कि इनमें अनेक बीजेपी के समर्थन की धुन भी बजाते हैं।
तो प्रश्न टाइमिंग का है। आयकर के छापे किसी के चोर होने का प्रमाण नहीं हैं। कितने अफसरों, कर्मचारियों, उद्योगों और कारोबारियों पर छापे पड़ते हैं। दो-चार अपवाद छोड़ दें तो आज तक किसी को दंड नहीं मिला। जाहिर है ऐसे मामलों का निपटारा भी दंड-शुल्क भरकर हो जाता है। फिर भी मैं किसी अपराध का समर्थन नहीं करता, पर जिस कालखंड में यह छापे पड़े हैं, वे मन में संदेह पैदा करते हैं। सवाल यह भी पूछा जा सकता है कि सरकार को किसका डर सता रहा है। केंद्र और उत्तर प्रदेश में बीजेपी पूर्ण बहुमत से सरकार में बैठी है। उसे चिंतित क्यों होना चाहिए?
सियासी पंडित और मीडिया विश्लेषकों की राय है कि निकट भविष्य में चुनाव, कोरोना काल में नाकामी, पेगासस जासूसी कांड में संतोषजनक उत्तर नहीं, बंगाल चुनाव से उत्साहित ममता बनर्जी का विपक्ष को एकजुट करने का प्रयास और सरकार का अंतर्राष्ट्रीय डिजिटल मीडिया प्रतिष्ठानों से रार ठान लेना ऐसे उदाहरण हैं, जो हुकूमत को हिलाने की ताकत रखते हैं। सरकार इस सच से भाग नहीं सकती कि उसकी झोली में फिलहाल उपलब्धियों के नाम पर ऐसा ठोस कुछ नहीं है, जिसके आधार पर चुनाव वैतरणी पार की जाए। अगर खाते में उपलब्धियां नहीं हैं तो कम से कम आलोचना के जरिये सही तस्वीर मतदाताओं तक नहीं पहुंचे-यह कोशिश तो वह कर ही सकती है।
लेकिन यह निष्कर्ष निकालने में कोई संकोच नहीं है कि भारत ही नहीं, संसार भर में जब जब किसी सरकार ने पत्रकारिता का गला घोंटने का प्रयास किया, तो उसे नुकसान ही उठाना पड़ा है। अमेरिका के राष्ट्रपति रहे डोनाल्ड ट्रंप ने अपने पूरे कार्यकाल में जिम्मेदार पत्रकारों और मीडिया प्रतिष्ठानों से शत्रुता बनाए रखी। परिणाम यह कि वे ‘ढेर‘ हो गए। भारत में इंदिरा गांधी ने 1971 में चुनाव जीता, लेकिन आपातकाल और प्रेस सेंसरशिप ने अगले चुनाव में उन्हें ‘निपटा‘ दिया। ‘नई दुनिया‘ अखबार ने संपादकीय स्थान खाली रखा। क्षति सरकार को हुई। ‘नई दुनिया‘ और इसके प्रधान संपादक अगले अनेक वर्षों तक पत्रकारिता की मुख्य धारा के केंद्र में रहे। बिहार में 1983 में जगन्नाथ मिश्र प्रेस बिल लाए। बाद में उन्हें वापस लेना पड़ा।
राजीव गांधी प्रचंड बहुमत से सत्ता में आए थे। वे मानहानि विधेयक लाए थे। वह भी उन्हें वापस लेना पड़ा। उसके बाद चुनाव में बोफोर्स सौदे का ‘प्रेत‘ उनके पीछे लगा। पत्रकारिता ने साथ नहीं दिया। नतीजा, सरकार ही चली गई। चंद्रशेखर ने ‘नवभारत टाइम्स‘ समूह से पंगा लिया और जासूसी के एक पिलपिले कारण से उनकी सरकार चली गई। एक जमाने में किशोर कुमार और जगजीत सिंह जैसे कलाकारों पर रेडियो और दूरदर्शन पर पाबंदी लगा दी गई थी। आज भी ये कलाकार लोगों के दिलों पर राज कर रहे हैं। पाबंदी लगाने वालों को कोई नहीं जानता। इसलिए डरकर निष्पक्ष और संतुलित पत्रकारिता नहीं करने की कोई वजह नहीं है। एजेंडा पत्रकारिता से बचिए। चाहे वह किसी के पक्ष में हो या किसी के खिलाफ हो मिस्टर मीडिया!
(यह लेखक के निजी विचार हैं)
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