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फिल्मों सी जिंदगी थी सुब्रत रॉय सहारा की: सुधीर मिश्रा

सुब्रत रॉय के इशारों पर शासन सत्ता चलती थी। उनकी व्यक्तिगत जिंदगी की कहानियां किवदंती बनकर फैली हुई थीं। पूरा बॉलीवुड, क्रिकेट टीम, बड़े बड़े राजनेता और हर तबके के स्टार नतमस्तक थे।

समाचार4मीडिया ब्यूरो 10 months ago

सुधीर मिश्रा, वरिष्ठ पत्रकार ।।

सत्तर के दशक की फिल्मों सी जिंदगी थी मरहूम सुब्रत रॉय सहारा की। उनका राजदरबार लगता था। निजी सेना जैसी सुरक्षा व्यवस्था थी और राजसी आमोद प्रमोद। मैंनें जिस वक्त पत्रकारिता शुरू की, उस वक्त उनका अखबार 'राष्ट्रीय सहारा' अपने चरम पर था। 1994-95 के उस दौर में अलीगंज लखनऊ का वो चमकदार दफ्तर। शनिवार का ड्रेस कोड, सहारा गान और लंबे-लंबे कॉरपोरेट व्याख्यान। लखनऊ के लिए यह सबकुछ नया था।

उस वक्त अखबार की तूती बोल रही थी। उनके इशारों पर शासन सत्ता चलती थी। उनकी व्यक्तिगत जिंदगी की कहानियां किवदंती बनकर फैली हुई थीं। पूरा बॉलीवुड, क्रिकेट टीम, बड़े बड़े राजनेता और हर तबके के स्टार नतमस्तक थे। चीफ सेक्रेटरी से रिटायर होने वाले ब्यूरोक्रेट की भी चाह होती थी कि आगे की जिंदगी सहारा की चाकरी में बीते। मैने खुद देखा कि शर्ट की ऊपरी दो बटन खोले मरहूम सहारा के आने पर अमिताभ बच्चन भी हाथ जोड़कर खड़े हो जाते थे। राजनेताओं की लाइन लगी रहती थी। कुछ पार्टियों के तो लोकसभा और विधानसभा के टिकट भी सहारा शहर से तय होते थे। मिडिल क्लास लखनऊ को हाईफाई जीवन शैली और पार्टी कल्चर से सहारा श्री ने रूबरू कराया। राजनीति में उनका ऐसा दखल बढ़ा कि राज बब्बर को चुनाव लड़ाने के लिए स्व. अटल बिहारी वाजपेई के खिलाफ खुला मोर्चा खोल दिया। शायद सियासत में उनकी यह दखल ही उनकी कामयाब कॉरपोरेट लाइफ का यू टर्न था।

पहले से ही चिटफंड कंपनी को लेकर तरह-तरह के आरोपों में घिरे सहारा को सेबी और दूसरी जांच एजेंसियों ने घेरना शुरू कर दिया। उसके बाद उनकी एयरलाइंस और दूसरी कंपनियों की उल्टी गिनती शुरू होने लगी। मुझे काफी कुछ करीब से देखने को मिला क्योंकि शुरुआत में मैने एक साल उनके अखबार में इंटर्नशिप की थी। कुछ कारणों से वहां कभी नौकरी नहीं मिली। निजी तौर पर दोनों बातों के लिए उनके प्रति मन में आभार है। इंटर्नशिप में दिन दो से रात दो तक काम करके बहुत कुछ सीखा। वहां बेहतरीन पत्रकारों की संगत हुई और मुफलिसी के दिनों में उनकी सब्सिडाइज्ड कैंटीन में खाने का सहारा मिला और नौकरी न मिलने पर आभार इसलिए कि शायद उस वर्क कल्चर और मूल्यों में मैं खप नहीं पाता।

उनका जीवन चमत्कारी था। एक लैंब्रेटा स्कूटर के साथ शुरू हुई उनकी करियर यात्रा ने उन्हें हवाई जहाजों के बेड़े का मालिक तक बनाया। सीखने वाली बात यह है कि आगे बढ़ने की ललक और जुनून उन जैसा होना चाहिए लेकिन साथ-साथ ही बढ़ती हुई ताकत को संभालने और शक्ति को धारण करने का धैर्य भी होना चाहिए, जिसकी उनमें कमी थी। और हां, गरीबों की आह नहीं लेनी चाहिए। बहुत ज्यादा दिखावा अकसर भारी पड़ता है। मरहूम सहारा के साथ भी ऐसा हुआ। सुप्रीम कोर्ट से लेकर सरकारों तक ने इसका अहसास उन्हें कराया भी और शायद यह जरूरी भी था। बहरहाल ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे और उनके परिवार को इस दुख को सहने की ताकत।

(यह लेखक के निजी विचार हैं)


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