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फिल्म 'महाराज' से साबित हुआ कि रणभूमि बदली लेकिन युद्ध नहीं बदला: अनंत विजय
दरअसल चरण पूजा उन्नीसवीं शताब्दी की एक ऐसी कुप्रथा थी जिसमें वैष्णव संप्रदाय का बाबा किसी लड़की को चुन लेता था। उसके साथ शारीरिक संबंध बनाता था।
समाचार4मीडिया ब्यूरो 3 months ago
अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।
पिछले दिनों देहरादून में दैनिक जागरण के ‘हिंदी हैं हम’ अभियान के अंतर्गत अभिव्यक्ति का उत्सव ‘जागरण संवादी’ का आयोजन हुआ। देशभर के लेखकों ने इस आयोजन में हिस्सा लिया था। जागरण संवादी के दूसरे दिन समापन सत्र के बाद रात्रि भोज था। खाना खत्म करने के बाद कुछ लेखक बाहर बैठ गए। साहित्यिक किस्सों का दौर आरंभ हुआ। रोचक संस्मरण का दौर चला तो समय का ध्यान नहीं रहा।
साहित्य से होते होते बात फिल्मों तक आ पहुंची। इस चर्चा में ही हाल में ही ओवर द टाप (ओटीटी) प्लेटफार्म नेटफ्लिक्स पर आई फिल्म महाराज की चर्चा आरंभ हो गई। इस फिल्म से प्रभावित एक लेखक मित्र ने इसकी काफी प्रशंसा की। कहने लगे कि बहुत दिनों बाद भारतीय संस्कृति और धर्म से जुड़ी प्रथा और कुरीतियों को लेकर एक फिल्म आई है। इसमें अभिनेता आमिर खान के पुत्र जुनैद खान और जयदीप अहलावत के अभिनय की जमकर प्रशंसा हुई। जोश में उन्होंने इस फिल्म की संक्षिप्त कहानी भी बताई। पता चला कि ये फिल्म चरण पूजा जैसी प्रथा और उसके विरुद्ध एक समाज सुधारक-पत्रकार के संघर्ष की गाथा है।
पत्रकार जब अपनी प्रेमिका और मंगेतर को वैष्णव संप्रदाय के बाबा की चरण पूजा करते देखता है तो अपना आपा खो देता है। दरअसल चरण पूजा उन्नीसवीं शताब्दी की एक ऐसी कुप्रथा थी जिसमें वैष्णव संप्रदाय का बाबा किसी लड़की को चुन लेता था। उसके साथ शारीरिक संबंध बनाता था। बांबे (अब मुंबई) के जिस हवेली की कहानी है उसमें भी बाबा लड़कियों को चरण पूजा के लिए चुनता था। कहीं न कहीं ये देवदासी प्रथा से मिलती जुलती कुरीति थी।
इस फिल्म से प्रभावित मित्र जब कहानी सुना रहे थे तो वो इस बात को लेकर आह्लादित थे कि कैसे एक पत्रकार ने इतने बड़े संप्रदाय के खिलाफ लड़ाई का बिगुल फूंका था। वो बार-बार इस बात पर जोर दे रहा था कि हिंदू धर्म में कैसी कैसी कुरीतियां थीं। वो फिल्म के संवाद पर भी लहालोट थे। बता रहे थे कि कैसे वो पत्रकार करसनदास जब अपनी मंगेतर से संबंध तोड़ता है तो कहता है कि सही और गलत का भेद जानने में धर्म की नहीं बुद्धि की जरूरत होती है। आपको बताते चलें कि इस फिल्म के प्रदर्शन पर पहले गुजरात हाईकोर्ट ने रोक लगाई थी लेकिन बाद में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं पाते हुए इसके प्रदर्शन की अनुमति दे दी थी।
जब वो ये बातें कह रहे थे तो साथ बैठे एक युवा लेखक बहुत ध्यान से उनकी बातें सुन रहे थे। उसने बहुत धीमे से कहा कि अच्छा ये बताइए कि बाबा के खिलाफ जो पत्रकार या समाज सुधारक खड़ा हुआ था वो किस धर्म का था। वो भी तो हिंदू ही था। इस फिल्म में दिखाई गई सारी कुरीतियों, विधवाओं के साथ समाज का गलत रवैया, छूआछूत, चरण सेवा, दक्षिण के मंदिरों में देवदासी प्रथा आदि के खिलाफ तो हिंदू समाज ही खड़ा हुआ था। चाहे वो राजा राममोहन राय हों, रख्मादेवी हों, ज्योति बा फुले हों या बाद के दिनों में महात्मा गांधी हों। सबने अपने धर्म में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए संघर्ष किया था।
यह किसी अन्य धर्म में दिखता है क्या। उसका तर्क था कि जब ये कुरीतियां समाप्त हो गईं तो इसको फिल्म के माध्यम से दिखाकर निर्माता क्या हासिल करना चाहते हैं। वो भी सत्य घटना पर आधारित कहकर प्रचारित करते हुए। बाबा के मुंह से इस तरह के संवाद कहवा कर कि चरण सेवा के भक्ति रस को श्रृंगार रस क्यों समझ बैठे। दोनों में बहस होने लगी।
बाकी लोग इस चर्चा को बड़े गौर से सुन रहे थे। बीच बीच में कुछ बोल भी रहे थे। पर इन दोनों के बीच चर्चा आगे बढने लगी। पहले वाले लेखक मित्र ने कहा कि जबतक अतीत को याद रखा जाएगा तभी भविष्य और वर्तमान को बेहतर बनाया जा सकता है। इसपर फटाक से युवा लेखक ने कहा कि जब वर्तमान राजनीति में नेहरू की गलत नीतियों की बात की जाती है तो आप ही लोग कहने लगते हैं कि गड़े मुर्दे क्यों उखाड़ रहे हो। यहां तो करीब दो सौ वर्ष पुरानी कुरीति को उखाड़ा गया। इसको दिखाने का उद्देश्य क्या है। अब धीरे-धीरे बात फिल्मों से राजनीति और नैरेटिव पर पहुंच गई।
जब बात नैरेटिव पर पहुंची तो एक लेखिका ने हस्तक्षेप किया। उसका कहना था कि कुरीतियों को दिखाओ। लेकिन संवाद के माध्यम से जब आप किसी बच्चे से ये कहलवाते हो कि क्या भगवान गुजराती समझते हैं। या जब उसकी मां कहती है कि मन में इतने सवाल होंगे तो पूजा कैसे करोगे। या बाबा जब कहता है कि धर्म का पालन डर से करवाना पड़ता है। तो फिल्म के उद्देश्य पर बात तो होगी ही। बात इसलिए भी होगी कि पूरा संदर्भ हिंदू धर्म से जुड़ा हुआ है। जबकि हिंदू धर्म में सनातन काल से प्रश्न करने की स्वतंत्रता है। आप ईश्वर पर भी प्रश्न कर सकते हैं।
देहरादून के मौसम में चर्चा थोड़ी गर्म होने लगी थी। लेखिका ने कहा कि इस तरह तो वेब सीरीज लैला में भी कुरीतियों को ही दिखाया गया था। फिर उसकी आलोचना क्यों हुई थी। जिस तरह से लैला में हिंदू धर्म का चित्रण हुआ था या जिस तरह से उसमें राजनीतिक संदेश देने की कोशिश की गई थी वो कुरीतियों पर भारी पड़ गया था। उसने कहा कि फिल्म कुछ लोगों को अच्छी लग सकती है लेकिन जिस तरह इसको नेटफ्लिक्स के कारण इस फिल्म को वैश्विक दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया गया उससे भारत की छवि पर क्या असर पड़ेगा। वो बहुत मजबूती से अपनी बात रख रही थीं। इस तरह की फिल्मों से एक नैरेटिव बनता है, एक एजेंडा सेट होता है। महाराज फिल्म पर सबके अपने अपने तर्क थे। रात काफी हो गई थी तो बैठकी समाप्त की गई।
चर्चा समाप्त कर होटल के अपने कमरे में जाकर काफी देर तक उपरोक्त तर्कों पर विचार करता रहा। किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पा रहा था। वापस दिल्ली लौटने पर पता चला कि फिल्म महाराज वैश्विक स्तर पर बहुत अच्छा परफार्म कर रही है, विशेषकर इस्लामिक देशों में। इस फिल्म की कई इस्लामिक देशों में रेटिंग और रैकिंग दोनों अच्छी है। बताय गया कि नेटफ्लिक्स का दावा है कि 20 से अधिक देशों में इस फिल्म को लाखों दर्शकों ने देखा है। इस सब जानने के बाद मुझे लैला वेब सीरीज की याद आई। तब भी इसकी खूब चर्चा हुई थी कि इस वेब सीरीज को वैश्विक दर्शकों ने खूब पसंद किया था।
अब दोनों में एक समानता तो है। दोनों वेब सीरीज की कहानी हिंदू धर्म की कुरीतियों पर आधारित है। वैसी कुरीतियां जो अब हिंदू धर्म में नहीं हैं। जब वैश्विक स्तर पर भारत की छवि मजबूत हो रही हो तो दो सौ वर्ष व्याप्त कुरीतियों पर फिल्म बनाकर उसको ओटीटी पर रिलीज करने का उद्देश्य और औचित्य समझने का प्रयास करना चाहिए। अचानक से देहरादून की चर्चा के दौरान लेखिका मित्र की कही एक बात दिमाग में कौंध गई, रणभूमि भले ही बदल गई लेकिन युद्ध नहीं। संदर्भ नैरेटिव का था।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।
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