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पाकिस्तान जिस खांचे में बना है और बढ़ा है, गड़बड़ी उसी में है: अरुण आनंद

मौरीपुर हवाई अड्डे पर उनके सैन्य सचिव कर्नल जेफ्री नोल्स और एक बिना नर्स की सेना की एम्बुलेंस को छोड़कर, उनके स्वागत के लिए वहां कोई उपस्थित नहीं था।

समाचार4मीडिया ब्यूरो 1 year ago

अरुण आनंद-वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तम्भकार।

पाकिस्तान के हालात खस्ता भी हैं और जटिल भी। फिलहाल वहां के राजनीतिक दल, न्यायपालिका और सशस्त्र बल एक दूसरे के खिलाफ खड़े हैं। निकट भविष्य में इस समस्या का हल नहीं होने वाला है। वास्तव में, वहां हालात और भी बदतर होने जा रहे हैं क्योंकि इस समस्या की जड़ में जो बीमारी है वह पाकिस्तान के अस्तित्व में आने के बाद से ही अपना असर दिखाने लगी थी। पाकिस्तान मौलिक रूप से त्रुटिपूर्ण अवधारणाओं पर निर्मित देश है। पाकिस्तान ने अपने 'संस्थापक' मोहम्मद अली जिन्ना और उस चौधरी रहमत अली के साथ जिस तरह से व्यवहार किया, जिसने पाकिस्तान शब्द गढ़ा था, उससे पता चलता है कि जिस खांचे में यह देश बना है और बढ़ा है, गड़बड़ी उसी में है। इसलिए इसके हालात बद से बदतर ही सकते हैं।

सबसे पहले जिन्ना के बारे में। पाकिस्तानी उन्हें कायद-ए-आज़म कहते हैं और उन्हें 1947 में अपने देश का संस्थापक मानते हैं। लेकिन इन सभी प्रशंसा के शब्दों के पीछे, उन्होंने जिन्ना और उनकी बहन फातिमा दोनों के साथ हुए दुर्व्यवहार की काली सच्चाई को छिपाने की कोशिश की है। तिलक देवेशर ने जिन्ना के अंतिम क्षणों का लेखा-जोखा अपनी पुस्तक 'पाकिस्तान एट द हेल्म' में दिया है। 11 सितंबर 1948 को जिन्ना, जिनका वजन मुश्किल से 70 पाउंड था और जो फेफड़ों के कैंसर से पीड़ित थे, को क्वेटा से कराची जाने वाली उड़ान के लिए गवर्नर जनरल के लिण् निर्धारित एक वाइकिंग विमान  में एक स्ट्रेचर पर ले जाया गया। मौरीपुर हवाई अड्डे (कराची के सैन्य हवाई अड्डे) पर उनके सैन्य सचिव कर्नल जेफ्री नोल्स और एक  बिना नर्स  की सेना की एम्बुलेंस को छोड़कर, उनके स्वागत के लिए वहां कोई उपस्थित नहीं था।

जब भी जिन्ना कराची में उतरते थे, तो उनके आगमन के बारे में राजनयिक कोर को सूचित  किया जाता था, ताकि वहां उनका स्वागत आधिकारिक तरीके से हो। जिस एंबुलेंस में इस बार वह अपने आवास की ओर जा रहे थे वह आधे रास्ते में ही खराब हो गई और कर्नल नोल्स को स्थानीय रेड क्रॉस से दूसरी एंबुलेंस लाने में दो घंटे लगे। इस बीच, जिन्ना एक 'दमघोंटू' एंबुलेंस में दो घंटे तक सड़क पर फंसे रहे, जिसने उन्हें पूरी तरह से थका दिया। किसी को नहीं पता था कि जिन्ना उस  एंबुलेंस में हैं। उनकी नब्ज़ कमजोर और अनियमित थी। जिन्ना की मौत उसी रात हो गई।

'उनकी मृत्यु की तरह ही उनका अंतिम संस्कार भी दुखद और जटिल तरीके से हुआ। इस्माइली संप्रदाय से अपने मत परिवर्तन के बाद वह शिया बन गए थे। इसलिए  जिन्ना के दो अलग-अलग अंतिम संस्कार करने पड़े- एक सार्वजनिक तौर सुन्नी रीति-रिवाजों के अनुसार और दूसरा उसके पहले उनके अपने घर में शिया मानदंडों के अनुसार।' जिन्ना की बहन फातिमा ने 1955 में एक किताब 'माई ब्रदर' लिखी, जिसमें उन्होंने तत्कालीन पाकिस्तानी नेतृत्व की आलोचना की थी। इस पुस्तक को 32 साल बाद जाकर 1987 में प्रकाशित करने की अनुमति दी गई थी।

जिन्ना की मृत्यु के बाद उन्हें दो साल तक पाकिस्तानी जनता को संबोधित करने की अनुमति नहीं दी गई थी। हालांकि, जिन्ना की तीसरी पुण्यतिथि पर उन्हें पाकिस्तान के आधिकारिक रेडियो पर बोलने की अनुमति दी गई थी। जैसे ही वह 'एम्बुलेंस प्रकरण' के बारे में बोलते हुए रोने लगीं, उनके भाषण का प्रसारण तुरंत बंद कर दिया गया। अब चौधरी रहमत अली के बारे में बात करते हैं। उसने तीन अन्य छात्रों के साथ 'नाउ ऑर नेवर ' शीर्षक वाले चार पेज के पर्चे में पाकिस्तान शब्द गढ़ा था। 'पाकिस्तान' शब्द वास्तव में एक ऐसे क्षेत्र के लिए एक संक्षिप्त शब्द था जिसमें पंजाब, अफगानिया (उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत, कश्मीर, सिंध और बलूचिस्तान) शामिल थे।

अली कैम्ब्रिज में खुद को शिक्षित करने के लिए इंग्लैंड गए थे। 1934 में वह जिन्ना से भी मिले। 'रहमत अली: ए बायोग्राफी' में केके अजीज़ लिखते हैं कि जब रहमत अली 1948 में बंटवारे के बाद पाकिस्तान आए तो उनका राजनेताओं के रवैये, भ्रष्टाचार और पाकिस्तानी नेतृत्व के बीच दृष्टि की कमी से बिल्कुल मोहभंग हो गया था। वह देख रहे थे कि पाकिस्तानी हुक्मरान शासन के बारे में कम से कम चिंतित थे और उनकी एकमात्र प्राथमिकता पैसा कमाना और सत्ता के गलियारों में  शक्तिशाली और प्रभावशाली पद प्राप्त करना था। बाद में रहमत अली को पाकिस्तानी सरकार द्वारा खूब परेशान किया गया और उन्हें पाकिस्तान छोड़ने के लिए मजबूर किया गया। वह पाकिस्तान बनाने के नाम पर की गई भारी भूल को महसूस करते हुए इंग्लैंड वापस आ गया। वह फिर कभी पाकिस्तान नहीं गए और तीन साल बाद 1951 में एक गुमनाम मौत मर गए।

पाकिस्तानी सरकार के हाथों परेशान  गुमनाम मौत मरने वालों रहमत अली अकेले नहीं हैं। 1958 में, जनरल इस्कंदर मिर्ज़ा ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति के रूप में मार्शल लॉ लगाया लेकिन तीन सप्ताह के भीतर अयूब खान द्वारा एक और तख्तापलट किया गया और मिर्ज़ा को सपरिवार लंदन में शरण लेनी पड़ी। जब मिर्जा एयरपोर्ट पर पहुंचे तो  उनके पास कुली को देने के लिए पैसे तक नहीं थे। किसी तरहं वह लंदन पहुचे जहां वह एक छोटे फ्लैट में बीमारी के साथ  बाकी की जिंदगी गुजारते रहे। उनके पास अपने इलाज तक के पैसे नहीे थे। उनकी मौत 1969 में अपने जन्मदिन के दिन ही हुई।

सत्तर साल के मिर्जा  जब मरे तो उनकी चल—अचल सारी संपत्ति कुल जमा 1000 पाउंड भी नहीं थी। पाकिस्तान ने उनके अंतिम संस्कार  को राजकीय सम्मान से करने से मना कर दिया, उनकी पहली पत्नी और बच्चों को पाकिस्तान छोड़ने की इजाज़त नहीं दी गई। अंतत: ईरान के शाह ने तेहरान में अपने इस पुराने मित्र का अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान से किया। इस प्रकरण को लेकर पाकिस्तान की दुनिया भर में आलोचना हुई पर ऐसा असभ्य व्यवहार उसके राजनीतिक ढांचे का  आरंभ से ही एक अभिन्न हिस्सा रहा है और आज जो हो रहा है वह भी उसकी का नतीजा है।  

(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और कई पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं)


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