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बढ़ती अर्थव्यवस्था के गुनगुने सच के पीछे एक गम भरा अंधेरा: शशि शेखर
कौशलेंद्र यादव जवान था। उसकी शादी हो चुकी थी। पत्नी गांव में रहती है और वह इस उम्मीद से इस महानगर में आया होगा कि दिन-रात खटकर अपने बच्चों को बेहतर भविष्य दे सकूंगा।
समाचार4मीडिया ब्यूरो 3 months ago
शशि शेखर, प्रधान संपादक, हिंदुस्तान।
‘मृतक कौशलेंद्र यादव, पुत्र : विनोद कुमार, उम्र : करीब 27 वर्ष, निवासी : ग्राम मिलिक, थाना- कुर्रा, जिला- मैनपुरी। हाल पता : कोंडली गांव में अमित यादव के मकान में किराये पर। थाना- नॉलेज पार्क, गौतमबुद्ध नगर।’ इस थाने की फर्द आगे बताती है- ‘18 जून को कौशलेंद्र के जीजा अभिषेक ने बताया कि उसे पहले बुखार आया था। वह घर पर ही दवा लेता रहा। दूसरे गार्ड ने बताया कि कौशलेंद्र की तबीयत ज्यादा खराब थी। पहले सोसायटी के पास ही एक बंगाली डॉक्टर को दिखाया, तो ज्यादा खराब हालत बताई गई।
उसके बाद कौशलेंद्र को जिम्स ले गए, जहां पर तीन घंटे तक इलाज चला और उसकी मौत हो गई, जिसे डॉक्टरों ने हीटस्ट्रोक बताया था।’ये चंद पंक्तियां देश के बेहद बडे़ वर्ग की बेबसी की करुण-गाथा सामने लाती हैं। कौशलेंद्र यादव जवान था। उसकी शादी हो चुकी थी। पत्नी गांव में रहती है और वह इस उम्मीद से इस महानगर में आया होगा कि दिन-रात खटकर अपने बच्चों को बेहतर भविष्य दे सकूंगा। शायद उसने यह भी सोचा हो कि बहुत न कर सका, तो इतना कर ही लूंगा कि मुझ जैसी जिंदगी उनकी न हो। कौशलेंद्र की आज तेरहवीं है। गरुड़ पुराण के अनुसार, तेरहवीं के बाद आत्मा इस संसार से विदा ले लेती है। लोग मरने के बाद कहां जाते हैं? कोई परमात्मा या आत्मा होती है या नहीं, मैं इस बहस में पडे़ बिना बस इतना पूछना चाहूंगा कि क्या कौशलेंद्र को अपने बच्चों की बेहतरी का ख्वाब बुनने का हक नहीं था?
उसकी मौत उन तमाम गुलाबी आंकड़ों का उपहास उड़ाती है, जो सियासी शोशेबाजी के लिए प्रयोग किए जाते हैं।कौशलेंद्र नोएडा आकर किसी तरह गार्ड की नौकरी हासिल कर सका था। एक आलीशान सोसायटी के मुख्य दरवाजे पर उसकी ड्यूटी थी। बिना किसी छत अथवा आड़ के लगातार 12 घंटे उसे वहीं बिताने होते थे। उस दिन तापमान 45 डिग्री पार कर गया था। भयंकर लू सांसों को वजनी बना रही थी।
उसकी जर्जर देह इस दाहक ताप को बर्दाश्त न कर सकी। वह पिछले बीस बरसों में हमारे बीच पनपी उस गार्ड बिरादरी का सदस्य था, जिससे हर मौसम में हमेशा सजग और सतर्क रहने की उम्मीद की जाती है।लोग उन्हें ‘हायर’ कर खुद की नींद और चैन जुटाना चाहते हैं, पर बदले में इन्हें क्या मिलता है? बमुश्किल पंद्रह हजार रुपये महीना।
कौशलेंद्र और उस जैसे लोग जिस वर्ग से आते हैं, उसी वर्ग से हमारी माननीय राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी आते हैं। वह जिस यादव जाति में जन्मा था, उत्तर प्रदेश और बिहार में उसकी तूती बोलती है। बरसों तक स्वर्गीय मुलायम सिंह मैनपुरी के सांसद रहे और अब डिंपल यादव उसका प्रतिनिधित्व देश की सबसे बड़ी पंचायत में करती हैं। हमारे राजनेता प्रतीकवाद पर चुनाव लड़ते हैं। जो लोग उन पर भरोसा कर वोट देते हैं, उनकी हालत कैसी है?कौशलेंद्र और उस जैसे हजारों का हतभागी हश्र इस सवाल का मुकम्मल जवाब है।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, पहली मार्च से 20 जून के बीच में चालीस हजार से अधिक लोग लू की चपेट में आए। इनमें से 143 को नहीं बचाया जा सका। इनमें से अधिकांश गरीब-गुरबा रहे होंगे। क्यों? जवाब जान लीजिए। गए रविवार को दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में तापलहरी के 75 शिकार भर्ती थे। इनमें से अधिकांश दैनिक श्रमिक, डिलीवरी ब्वॉय अथवा बुजुर्ग थे। हमने मौसमी रोजगारों के रूप में मौसम के नए शिकार जन दिए हैं।नीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2014 से 2023 के बीच के नौ बरसों में ‘बहु-आयामी गरीबी’ की खाई से 24.82 करोड़ भारतीय उबर चुके हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भी ‘बहु-आयामी गरीबी’ में गिरावट दर्ज की गई। यहां आपके मन में यकीनन सवाल उभर रहा होगा कि क्या है बहु-आयामी गरीबी?
बहु-आयामी गरीबी की सरकारी परिभाषा के तहत एक ऐसा व्यक्ति, जो आय ही नहीं, बल्कि भूमि-आवास, स्वास्थ्य सेवाओं, स्वच्छ पेयजल, शिक्षा और बिजली जैसी कई चीजों तक पहुंच के लिहाज से भी वंचित है।कौशलेंद्र इस हिसाब से ‘बहु-आयामी निर्धन’ नहीं था।इसमें कोई दोराय नहीं कि हम संसार की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में एक हैं, लेकिन इस गुनगुने सच के पीछे एक गम भरा अंधेरा भी छाया हुआ है।
‘वर्ल्ड इनइक्विलिटी लैब’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत आर्थिक विषमता के मामले में भी नई ऊंचाइयां हासिल कर रहा है। हिन्दुस्तान की शीर्ष एक फीसदी अमीर आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का 53 फीसदी हिस्सा है। अगर आमदनी की सबसे ऊंची सीढ़ियों पर बैठे लोगों की इस सूची को थोड़ा-सा विस्तार दे दिया जाए, तो और अधिक चौंकने की बारी आती है। देश की कुल मिल्कियत का 77 प्रतिशत इसके दस प्रतिशत धनाढ्य अपने हक-हुकूक में रखते हैं। क्या वे उतना ही खर्च भी करते हैं, ताकि सरकार को अधिक आमदनी हो और वह बेहतर कल्याणकारी योजनाएं चला सके?
ऑक्सफैम की रिपोर्ट ‘सर्वाइवल ऑफ द रिचेस्ट इंडिया स्टोरी’ के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2021-22 में भारत के सकल वस्तु एवं सेवा कर संग्रह का लगभग 64.3 प्रतिशत हिस्सा उस आधी आबादी की जेब से आया, जो कमाई के मामले में कतार की पिछली तरफ खड़ी थी। जिन दस प्रतिशत धनाढ्य लोगों के पास 77 प्रतिशत संपत्ति है, उनका जीएसटी में योगदान पांच प्रतिशत से ज्यादा नहीं है। यही रिपोर्ट बताती है कि कुछ महीने पहले खत्म हुए वित्तीय वर्ष में विषमता की यह खाई अधिक चौड़ी होने की आशंका है।
अभी तक उसके आंकडे़ सामने नहीं आ सके हैं।गरीबों और वंचितों की एक बड़ी दिक्कत यह भी है कि उनमें से बहुतों को अपना व अपने बच्चों का पेट पालने के लिए ‘परदेस’ जाना ही होता है। पिछली जनगणना बताती है कि देश के भीतर एक से दूसरे राज्य में जाकर आजीविका कमाने वाले भारतीयों की तादाद तब की आबादी का 33 प्रतिशत, यानी 45.36 करोड़ थी। एक अन्य शोध के अनुसार, एक करोड़ अस्सी लाख भारतीय देश के बाहर काम कर रहे हैं। इनमें से हरेक तो किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का सीईओ या बड़ा एग्जिक्यूटिव बनता नहीं।
नतीजतन, उन्हें वहां भी कुआं खोदकर पानी पीने का अभिशाप झेलना पड़ता है। बदले में मिलता क्या है? कुवैत की घटना इसका उदाहरण है। तबेले जैसी रिहाइश की आग में 45 भारतीय पिछले पखवाडे़ जल मरे थे।गरीबी-उन्मूलन के लिए सरकार ने कुछ योजनाएं जरूर चलाई हैं, पर कुवैत में जल मरे भारतीय और नोएडा की एक आलीशान इमारत के बाहर जानलेवा गर्मी से तड़पकर मरे कौशलेंद्र यादव के साथ जो हुआ, वह कई सवाल भी खडे़ करता है। संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र को इनके उत्तर का इंतजार है।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - हिंदुस्तान डिजिटल।
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