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वरिष्ठ पत्रकार अरुण आनंद से समझिए कैसे काम करता है चीन का प्रोपेगैंडा तंत्र!
जितना महत्वपूर्ण सैन्य संघर्ष है, उतना ही महत्वपूर्ण विमर्श का संघर्ष भी है। इस विमर्श के संघर्ष में चीन हम पर भारी है।
समाचार4मीडिया ब्यूरो 11 months ago
अरुण आनंद, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तम्भकार।
भारत और चीन के बीच लंबे समय से सैन्य स्तर पर एक संघर्ष तो चल ही रहा है। लेकिन एक संघर्ष और भी है और वह विमर्श का संघर्ष। चीन ने दुनिया भर में 1960 के दशक से एक बड़ा विमर्श खड़ा किया है कि वह एक समृद्ध और तेजी से उभरती हुई आर्थिक ताकत है। चीन ने इस प्रोपेगैंडा के माध्यम से अपनी कमियों को छुपाए रखा और अन्य देशों की कमियों को उघाड़ने का प्रयास किया। जितना महत्वपूर्ण सैन्य संघर्ष है, उतना ही महत्वपूर्ण विमर्श का संघर्ष भी है। इस विमर्श के संघर्ष में चीन हम पर भारी है क्योंकि उसके प्रोपेगैंडा तंत्र के बारे में हमने कभी चर्चा नहीं की। इसका एक कारण शायद यह था कि कई परतों में इस तंत्र को दबा कर रखा गया है।
लंदन से प्रकाशित होने वाले 'द गार्जियन' अखबार ने 5 महीने की खोजबीन के बाद 2018 में एक लंबी रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें चीन के इस तंत्र का परत -दर- परत पर्दाफाश किया गया था। लेकिन भारत में हमने इस ओर अधिक ध्यान नहीं दिया। इस तंत्र के बारे में जानने के बाद पाठकों को यह एहसास होगा कि किस प्रकार अपने ही देश के कुछ पत्रकार लेखक व बुद्धिजीवी चीन के अनुरूप विमर्श बनाने में जुटे हुए हैं। वे बार-बार यह साबित करने का प्रयास कर रहे हैं कि भारत को चीन का सामना करते हुए रीढ़ की हड्डी सीधी नहीं रखनी चाहिए।
वे लगातार सरकार, समाज व सैन्य बलों को हतोत्साहित करने का काम भी कर रहे हैं। दुर्भाग्य की बात है कि कुछ राजनीतिक पार्टियां भी इस खेल का जाने अनजाने हिस्सा बन गई है। 'द गार्जियन' के अलावा कई गुप्तचर एजेंसियों ने समय-समय पर चीन के इस प्रोपेगेंडा तंत्र का खुलासा किया है लेकिन चीनी प्रोपेगेंडा इतना जबरदस्त है कि उन्होंने कभी भी इस बात पर दुनिया भर के किसी भी मंच पर बहस नहीं होने दी। दुनिया भर में चीन के अनुरूप विमर्श बनाने के लिए चीनी सरकार का एक बड़ा और कारगर हथियार है कन्फ्यूशियस संस्थान।
सन 2004 में दक्षिण कोरिया में पहला कन्फ्यूशियस संस्थान खुला था। इस संस्थान का वर्ष 2018 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार उसकी उपस्थिति 154 देशों के 548 विश्वविद्यालयों में थी, उसका सालाना बजट 314 मिलियन अमेरिकी डॉलर है। 17 लाख विद्यार्थियों को हर साल इस संस्थान के माध्यम से संपर्क किया जाता है। कहने को तो यह चीनी भाषा और संस्कृति को बढ़ावा देने वाले संस्थान है लेकिन कई प्रमुख विदेशी गुप्तचर एजेंसियां तथा सुरक्षा विशेषज्ञ इस बात की ओर स्पष्ट इशारा कर चुके हैं कि वास्तव में कन्फ्यूशियस संस्थान चीनी प्रोपेगेंडा तंत्र का एक बड़ा हिस्सा ही नहीं है बल्कि इसका संबंध चीन की गुप्तचर एजेंसियों से है और इसका उपयोग मूल रूप से चीनी विमर्श को खड़ा करने के लिए किया जाता है। अमेरिका कनाडा यूके तथा यूरोप के लगभग सभी प्रमुख देशों ने बड़ी संख्या में इस संस्थान की शाखाएं हैं।
चीनी प्रोपेगैंडा तंत्र का दूसरा प्रमुख हिस्सा है चीनी टेलीविजन नेटवर्क। पहले इसका नाम सीसीटीवी था पर अब इसका नाम सीजीटीएन हो गया है। यह विशुद्ध रूप से चीनी विमर्श को फैलाने का काम करता है। वॉशिंगटन में जब इसने कुछ साल पहले अपना ब्यूरो खोला था, उस समय बीबीसी में कार्यरत अथवा वहां पहले काम कर चुके कम से कम पांच वरिष्ठ पत्रकारों को भारी भरकम वेतन देकर उनकी भर्ती वहां की गई थी। सीजीटीएन ने प्रोपेगैंडा के नजरिए से सबसे पहले अफ्रीका में घुसपैठ की। बहुत सस्ते में अपने चैनल दर्शकों को उपलब्ध करवाना उसकी रणनीति का प्रमुख हिस्सा है। चीन का विरोध करने वाले पत्रकारों को आकर्षक वेतन देकर वहां काम करने के लिए बुलाया जाता है।
चीनी टीवी के साथ चीनी रेडियो नेटवर्क भी पूरी दुनिया में छाया हुआ है। इस नेवटवर्क को चाइना रेडियो इंटरनेशनल के नाम से जाना जाता है। दुनिया की सभी प्रमुख भाषाओं में इसकी सेवाएं है। यूरोप, अमेरिका, अफ्रीका सहित दुनिया के कई देशों में सीआरआई के रेडियो स्टेशन सीधी चीनी विमर्श का प्रसारण करते हैं। जहां उन्हें प्रसारण की अनुमति नहीं मिलती, वहां वे स्थानीय रेडियो स्टेशनों से भागीदारी कर अपना एजेंडे के अनुरूप अपना कंटेंट उनके माध्यम से प्रसारित करते हैं। दुनिया भर में सीआरआई ने कई कंपनियां बना रखी हैं जो व्यवसायिक कंपनियों के रूप में काम करती हैं।
'द गार्जियन' की रपट के अनुसार चीनी समाचार पत्र 'चाइना डेली' ने दुनिया के 30 प्रमुख समाचार पत्रों से यह समझौता किया है कि चीन के विषय में चार से आठ पृष्ठों का कम से कम एक परिशिष्ट हर महीने छपेगा ही। इसके बदले में इन अखबारों को मोटी रकम दी जाती है। इन अखबारों में वॉशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स, ब्रिटेन से प्रकाशित होने वाला द टेलीग्राफ जैसे अखबार शामिल हैं। चीन की एक समाचार एजेंसी शिनहुआ भी है। यह दुनिया की सबसे बड़ी समाचार एजेंसी है। दुनिया के लगभग हर प्रमुख शहर में इसके ब्यूरो हैं। चीन के परिप्रेक्ष्य से हर खबर को शिनहुआ दुनिया भर में पहुंचाता है और चीनी विमर्श खड़ा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। शिनहुआ के कई पत्रकार चीनी गुप्तचर एजेंसियों से सीधे जुड़े हुए हैं।
भारतीय मीडिया में भी चीन की जबरदस्त घुसपैठ पिछले कई सालों से चल रही है। ऐसे में भारत में चीनी प्रोपेगैंडा तंत्र का हिस्सा बन गए लेखकों, पत्रकारों तथा तथाकथित बुद्धिजीवियों की पहचान करना आवश्यक है ताकि भारत विरोधी चीनी विमर्श को जल्द से जल्द रोका जा सके तथा चीन के इस तंत्र का सच दुनिया के सामने लाया जा सके।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
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