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‘मेक इन इंडिया’ हो पाया क्या?, पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब-किताब'

तो क्या वजह है कि भारत में मैन्यूफ़ैक्चरिंग सेक्टर बढ़ नहीं पा रहा है? चीन ने भारत में इसमें पहले ही लीड ले ली थी। भारत में आर्थिक सुधार 1991 में हुए जबकि चीन में 1978 में हुए।

समाचार4मीडिया ब्यूरो 1 week ago

मिलिंद खांडेकर, मैनेजिंग एडिटर, तक चैनल्स, टीवी टुडे नेटवर्क।

भारत और चीन की जीडीपी 1990 में लगभग बराबर थी यानी दोनों देशों की अर्थव्यवस्था का आकार एक जैसा था। अब क़रीब 35 साल बाद चीन की अर्थव्यवस्था भारत से 6 गुना बड़ी है। चीन दुनिया का कारख़ाना बन गया है, हम मेक इन इंडिया के ज़रिए अब यही कोशिश कर रहे हैं। दस साल में यह कोशिश कितनी रंग लायी है उसका हिसाब किताब। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 25 सितंबर को मेक इन इंडिया के दस साल होने पर LinkedIn पर ब्लॉग लिखा। इसका सार है कि मेक इन इंडिया सफल है।

भारत मोबाइल फ़ोन, डिफ़ेंस और खिलौने बनाने में काफ़ी आगे बढ़ा है। 2014 में मोबाइल फ़ोन बनाने के दो कारख़ाने थे अब 200, भारत में इस्तेमाल हो रहे 99% फ़ोन यहीं बने हैं। तब 1500 करोड़ रुपये के फ़ोन एक्सपोर्ट हो रहे थे अब 1.28 लाख करोड़ रुपये। 2014 में डिफ़ेंस का सामान का एक्सपोर्ट 1000 करोड़ रुपये था, अब 21 हज़ार करोड़ रुपये। 85 देशों में हम डिफ़ेंस एक्सपोर्ट कर रहे हैं। 2014 के मुक़ाबले खिलौनों का एक्सपोर्ट 239% बढ़ा है। प्रधानमंत्री ने मन की बात में अपील की थी कि बच्चों के खिलौने तो हम अपने देश में बना सकते हैं।

सरकार ने जो आँकड़े दिए हैं वो सारे सही है लेकिन इसका दूसरा पहलू भी देखिए। मैन्युफ़ैक्चरिंग का जीडीपी में हिस्सा 2013-14 में 17.3% था, दस साल भी उतना ही है मतलब अर्थव्यवस्था में मैन्यूफ़ैक्चरिंग की हिस्सेदारी मेक इन इंडिया के बाद भी बढ़ी नहीं है। सरकार का लक्ष्य 2030 तक इसे 25% तक ले जाने का है। यह इतना आसान नहीं है। रोज़गार में मैन्यूफ़ैक्चरिंग की हिस्सेदारी थोड़ी सी कम हुई है। पहले हर 100 में से 12 लोग कारख़ाने में काम कर रहे थे और अब 11, दुनिया के एक्सपोर्ट में भारत की हिस्सेदारी पिछले 18 साल में दो गुना नहीं हो पायीं है।

2006 में 1% थी और अब 1.8%, दस साल पहले 1.6%. तो क्या वजह है कि भारत में मैन्यूफ़ैक्चरिंग सेक्टर बढ़ नहीं पा रहा है? चीन ने भारत में इसमें पहले ही लीड ले ली थी। भारत में आर्थिक सुधार 1991 में हुए जबकि चीन में 1978 में। चीन का फ़ोकस मैन्यूफ़ैक्चरिंग पर था। कारख़ानों से ज़्यादा लोगों को रोज़गार मिलता है जबकि हमारी अर्थव्यवस्था सर्विसेज़ की तरफ़ मुड़ गई। चीन दुनिया का कारख़ाना बना तो हम दुनिया के कॉल सेंटर। सर्विसेज़ उतनी नौकरियाँ नहीं दे सकता है जितना मैन्यूफ़ैक्चरिंग।

दुनिया की बड़ी कंपनियाँ चीन में सामान बनाना पसंद करती रही है क्योंकि वहाँ सस्ते मज़दूर थे, कारख़ाने लगाना आसान था और इंफ़्रास्ट्रक्चर अच्छा। भारत में सस्ते मज़दूर तो है लेकिन कारख़ाना लगाना या वहाँ से सामान पोर्ट तक पहुँचाना मुश्किल। पिछले दस सालों में इस पर काम हुआ है। इस सबके बीच कोरोनावायरस में चीन पर निर्भरता की क़ीमत दुनिया को चुकाना पड़ी है, इसलिए सभी कंपनियाँ चाइना प्लस वन की नीति पर काम कर रहे हैं यानी चीन के अलावा भी किसी दूसरे देश में सामान बनाना।

जैसे एप्पल iPhone में भी बना रहा है। यहाँ भी मुक़ाबला मैक्सिको, वियतनाम जैसे देशों से है। इन देशों के मुक़ाबले भारत में सामान बनाना महँगा है। सरकार का कहना है कारख़ाने के गेट पर तो सामान की क़ीमत बराबर है लेकिन इसे पोर्ट तक पहुँचाना भारत में महँगा पड़ता है। यही वजह है कि हमें सड़के, रेलवे, पोर्ट पर और काम करने की ज़रूरत है।

(वरिष्ठ पत्रकार मिलिंद खांडेकर 'टीवी टुडे नेटवर्क' के 'तक चैनल्स' के मैनेजिंग एडिटर हैं और हर रविवार सोशल मीडिया पर उनका साप्ताहिक न्यूजलेटर 'हिसाब किताब' प्रकाशित होता है।)

 


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