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हमें अपनी गौरवशाली परंपराओं का भी ध्यान रखना होगा: अनंत विजय

जब हम विकसित भारत के लक्ष्य की बात कर रहे हैं तो हमें अपनी गौरवशाली परंपराओं का भी ध्यान रखना होगा। हमें अपने पर्व त्योहारों की ऐतिहासिकता के बारे में नई पीढ़ी को बताना होगा।

समाचार4मीडिया ब्यूरो 7 months ago

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

बीते शुक्रवार को चंद्रशेखर आजाद व्याख्यानमाला के सिलसिले में मध्यप्रदेश के झाबुआ जाना हुआ। झाबुआ पहुंचने के पहले रास्ते में एक जगह है कालीदेवी। वहां से गुजरते हुए सड़क के दोनों तरफ काफी भीड़ दिखी। रंग-बिरंगी पोशाकों में सजे युवक-युवतियां, किशोर-बालक और महिलाएं-पुरुष स्थानीय बाजार में अपनी उपस्थिति से उत्सवी वातावरण बना रहे थे। पहले तो लगा कि चुनाव का माहौल है और किसी राजनीतिक दल की कोई रैली या सभा होगी जिसके लिए लोगों को इकट्ठा किया गया है। लेकिन पता चला कि ये लोग होलिका दहन के पहले चलने वाले उत्सव भगोरिया में हिस्सा लेने के लिए एक जगह जमा हुए हैं। कालीदेवी हाट में थोड़ी देर पैदल घूमने के बाद एक जगह पर एक बड़ा सा ढोल दिखा।

ये ढोल आम ढोल से कई गुणा बड़ा था। कुछ लोग उसको बजा रहे थे तो कुछ अन्य उसको बजाने का प्रयत्न कर रहे थे। जब ढोल बजता तो उसके आपसाप खड़ी महिलाएं और युवतियां नृत्य करने लगतीं। वहां से आगे बढ़ने पर हाट में खान-पान की अनेक अस्थायी दुकानें दिखीं। पान की भी कई दुकानें थीं। गोदना वाले भी बैठे थे ।लड़कियां गोदना गोदवा रही थीं। कुल मिलाकर ऐसा दृश्य उत्पन्न हो रहा था जो भारतीय लोक की एक बेहद जीवंत तस्वीर पेश कर रहा था।

उल्लास और आनंद के उस वातावरण में सभी अपनी मस्ती में रमे हुए थे। लोकरंग में डूबी जिंदगी। थोड़ी देर तक भगोरिया हाट मेला को देखने के बाद हम झाबुआ के लिए प्रस्थान कर गए। झाबुआ शहर में भी एक जगह हाट लगाने की तैयारी हो रही थी। बताया गया कि उस स्थान पर भगोरिया हाट लगेनेवाला है। इस उत्सव या आयोजन को लेकर जिज्ञासा बढ़ गई थी।

झाबुआ पहुंचने के बाद व्याख्यानमाला के आयोजन से जुड़े अश्विनी जी से मेले के बारे में पूछा। उन्होंने विस्तार से इसकी जानकारी दी। बताया कि मालवा और निमाड़ क्षेत्र में निवास करनेवाले वनवासियों का ये होली उत्सव है। होलिका दहन से सात दिनों पहले से ही मुख्य रूप से इस क्षेत्र में निवास करनेवाले भील जनजाति के लोग इस उत्सव को मनाते हैं। इसकी परंपरा काफी पुरानी है। जनश्रुति है कि राजा भोज के समय ये उत्सव आरंभ हुआ था। उस समय स्थानीय स्तर पर लगनेवाले हाट को भगोरिया कहा जाता था। उसी समय भील राजाओं ने भी अपने अपने क्षेत्रों में होली के आसपास हाट और मेला का आयोजन आरंभ किया था।

इन मेलों को भील राजाओं का संरक्षण प्राप्त था और बनवासी समुदाय के लोग होली का उत्सव इन्हीं मेलों के दौरान मनाया करते थे। कुछ लोगों का कहना है कि भगोरिया भील समुदाय का प्रणय उत्सव भी है। इस तरह की परंपरा की बात भी होती है कि युवक और युवतियां इस मेले के दौरान एक दूसरे को पसंद करते हैं और अपना जीवन साथी बनाते हैं। पसंद करने का जो तरीका बताया गया वो भी बहुत दिलचस्प था। जिस लड़के को कोई लड़की पसंद आती है तो वो उसको पान भेंट करता है। लड़की अगर पान खा लेती तो माना जाता है कि उसने प्रणय निवेदन स्वीकार कर लिया है।

इसी तरह प्रणय निवेदन का एक अन्य तरीका भी बताया गया। अगर कोई युवक किसी युवती के गाल पर गुलाल लगा दे और युवती भी पलटकर उसके गाल पर गुलाल लगा दे तो माना जाता है कि दोनों ने एक दूसरे को स्वीकर कर लिया है। कई बार ऐसी बातें सुनने को मिलती हैं कि प्रणय निवेदन के स्वीकार करने के बाद युवक-युवती मेले से भाग जाते हैं और विवाह कर लेते हैं। इस कारण इसको भगोरिया कहा जाता है। पर अधिक प्रामाणिकता भोज काल से जुड़ी जनश्रुति में ही प्रतीत होती है। ऐसा कहने का करण ये है कि भील समुदाय में विवाह को लेकर बहुत विरोध आदि होता नहीं है।

बताया तो यहां तक गया कि लड़के वालों को ही लड़की वालों को धनराशि या चांदी देनी पड़ती है। यह भी पता चला कि भील समुदाय की लड़कियां या महिलाएं सोने से अधिक चांदी के आभूषणों को पसंद करती हैं। कालीदेवी में मेला भ्रमण के दौरान इस ओर ध्यान नहीं गया था लेकिन जब झाबुआ में इस बारे में पता चला तो स्मरण आया कि हां उस मेले में तो युवतियां और महिलाएं तो चांदी के आभूषण ही पहनी थीं।

मध्यप्रदेश के धार, झाबुआ, अलीराजपुर और उसके पास के क्षेत्रों में व्याप्त होली की इस परंपरा को देखकर लगा कि वनवासी अपनी सनातनी परंपरा को अब भी अपनाए हुए हैं। होली के बारे में अपनी पुस्तक धर्मशास्त्र का इतिहास में भारत रत्न पी वी काणे ने विस्तार से लिखा है। वो कहते हैं कि होली या होलिका आनंद और उल्लास का ऐसा उत्सव है जो संपूर्ण देश में मनाया जाता है। उत्सव मनाने के ढंग में कहीं कहीं अंतर पाया जाता है। अब अगर हम इस कथन पर विचार करें तो स्पष्ट है कि मध्यप्रदेश के भगोरिया मेला में भील समुदाय का होली मनाने का ढंग अलग है। उसमें आनंद, उल्लास, उमंग और मस्ती तो है लेकिन उसको विवाह संस्कार से जोड़कर आनंद का एक अलग ही आयाम दे दिया गया है।

सनातन धर्म की विभिन्न पुस्तकों में होली के बारे में उल्लेख मिलता है। काणे कहते हैं कि होली का आरंभिक शब्द स्वरूप ‘होलाका’ था और भारत के पूर्वी भागों में ये शब्द प्रचलित था। काठकगृह्य में एक सूत्र है ‘राका होलाके’, जिसकी व्याख्या टीकाकारों ने इस प्रकार की है, होला एक कर्म विशेष है जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए संपादित होता है। इसको भी भागोरिया से जोड़कर देखा जा सकता है। होलाका का उल्लेख वात्स्यायन के कामसूत्र में भी मिलता है जब वो इसको बीस क्रीड़ाओं में शामिल करते हैं। इस त्योहार का उल्लेख जैमिनी और काठकगृह्य में मिलने से ये सिद्ध होता है कि ये ईसा से कई शताब्दियों पूर्व से अस्तित्व में है।

काणे ने तो होली के बारे में कहा भी है कि इसमें वसंत की आनंदाभिव्यक्ति रंगीन जल एवं लाल रंग, अबीर-गुलाल के पारस्परिक आदान प्रदान से प्रकट होती है। कहीं कहीं रंगों का खेल होली के कई दिन पहले से आरंभ हो जाते हैं और बहुत दिनों तक चलते रहते हैं। भगोरिया मेला भी सात दिनों तक चलता है। राय बहादुर बी ए गुप्ते ने एक पुस्तक लिखी थी ‘हिंदू हालीडेज एंड सेरेमनीज’, इस पुस्तक में वो लिखते हैं कि होली का त्योहार मिस्त्र या यूनान से भारत आया। पी वी काणे उनकी इस अवधारणा का निषेध करते हुए उनके दृष्टिकोण को भ्रामक बताते हैं और कहते हैं कि उनकी धारणा को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए।

भगोरिया को देखने के बाद और प्राचीन भारतीय ग्रंथों के उद्धरणों को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि हम अपनी विरासत से कितने दूर होते जा रहे हैं। आज भील समुदाय अपनी परंपरा को कायम रखे हुए है जबकि शहरों में रहनेवाले और खुद को आधुनिक समझनेवाले लोग अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं। यह अकारण नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी जब ला किला की प्राचीर से पांच-प्रण की बात करते हैं वो अपनी विरासत पर गर्व करने पर जोर देते हैं। अमृत काल में जब हम विकसित भारत के लक्ष्य की बात कर रहे हैं तो हमें अपनी गौरवशाली परंपराओं का भी ध्यान रखना होगा।

हमें अपने पर्व त्योहारों की ऐतिहासिकता के बारे में नई पीढ़ी को बताना होगा। आधुनिकता की अंधी दौड़ में शामिल लोग आज विशेषज्ञो के पास जाकर हैप्पीनेस खोजते हैं, उनको पता ही नहीं कि ये हैप्पीनेस तो हमारे पर्व और त्योहारों में शामिल है। जरूरत इस बात की है कि हैप्पीनेस की अपनी परंपरा के साथ जीवन जिएं।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।


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