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माफ करें स्पीकर मैम, आपने पत्रकारिता को समझा नहीं
लोकसभा की स्पीकर सुमित्रा महाजन ने हाल ही में एक कार्यक्रम में कई सारी अच्छी बातें कहीं...
समाचार4मीडिया ब्यूरो 7 years ago
‘माफ करें स्पीकर मैम, पत्रकारों को अपनी बात डंके की चोट पर कहनी चाहिए और सरकार को अच्छा लगे या बुरा, उन्हें कड़वा सच भी खुलकर बोलना चाहिए और कम ही सही, पर देश में ऐसे पत्रकार हैं जो यह काम कर रहे हैं, करते रहेंगे।’ हिंदी दैनिक नवभारत टाइम्स के डिजिटल विंग के ब्लॉग 'अंधेर नगरी' के जरिए ये कहना है अखबार के सहायक संपादक प्रणव प्रियदर्शी का। उनका पूरा ब्लॉग आप यहां पढ़ सकते हैं:
माफ करें स्पीकर मैम, आपने पत्रकारिता को समझा नहीं
लोकसभा की स्पीकर सुमित्रा महाजन ने हाल ही में एक कार्यक्रम में कई सारी अच्छी बातें कहीं। सौम्य व्यक्तित्व की सुमित्रा महाजन आम तौर पर अच्छी बातें ही कहती हैं। पर यह कार्यक्रम पत्रकारों से जुड़ा था और इसलिए स्वाभाविक था कि ये अच्छी बातें न सिर्फ पत्रकारिता से जुड़ी थीं बल्कि पत्रकारों को संबोधित भी थीं। उन्होंने कहा कि समाज में पहले से ही बहुत नेगेटिविटी है इसलिए जब तक बहुत जरूरी न हो, पत्रकारों को नेगेटिविटी बढ़ाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।
सुमित्रा ताई (उन्हें आदर से यही कहा जाता है) के प्रति पूरा सम्मान रखते हुए भी यह बात याद की जा सकती है कि नकारात्मकता से दूर रहने और थोड़ा कुछ सकारात्मक लिखने, बोलने के इस आग्रह का सीधा संबंध सत्ता से है। जो भी विपक्ष में रहता है वह सारी सकारात्मकता भूल जाता है। तमाम नेगेटिव बातें उसे न सिर्फ दिखती रहतीं हैं बल्कि वह खोज-खोज कर ऐसी बातें निकालता रहता है, लोगों की आंख में उंगली डालकर वे बातें उन्हें दिखाता रहता है। मगर सत्ता में पहुंचते ही वही पॉजिटिव सोचने, पॉजिटिव बोलने और पॉजिटिव लिखने का उपदेश देने लगता है। ज्यादा नहीं, तीन साल पहले तक बीजेपी के तमाम नेता कैसे हर छोटी-बड़ी बात पर तूफान खड़ा कर दिया करते थे, सरकार और तत्कालीन प्रधानमंत्री पर कैसी-कैसी टिप्पणियां करने लगते थे, लोग भूले नहीं होंगे। पर जब से मोदी जी की अगुवाई में इन लोगों की सरकार बनी है यही सारे नेता पॉजिटिविटी झाड़ने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं देते।
बहरहाल, सुमित्रा ताई ने पत्रकारों को यह भी सीख दी है कि उन्हें अपनी बात अच्छे
शब्दों में कहनी चाहिए। संस्कृत श्लोक ‘सत्यं ब्रूयात,
प्रियं ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यमप्रियम’
(यानी सत्य बोलो, प्रिय बोलो, अप्रिय सत्य न बोलो) उद्धृत करते हुए उन्होंने बताया कि अच्छी भाषा में भी
सरकार तक अपनी बात पहुंचाई जा सकती है।
मगर स्पीकर मैम यहीं गलती कर गईं। पत्रकारिता का सीधे कोई अनुभव उन्हें हो या न हो, राजनीति की अपनी लंबी पारी में पत्रकारिता से उनका करीबी रिश्ता तो जरूर रहा है। ऐसे में उनसे यह उम्मीद करना गलत नहीं कि पत्रकारिता की बुनियादी अवधारणा से वह परिचित होंगी, मगर ऐसा नहीं हुआ। दरअसल सुविधा की राजनीति और सुविधा की पत्रकारिता, इन दोनों ने ऐसा घालमेल कर दिया है कि पत्रकारिता अपने मूल रूप में कम ही दिखती है। ऐसे में कोई भी सामान्य व्यक्ति पत्रकार का मतलब यही मानता है कि सत्ता के सर्वोच्च हलकों तक उसकी पहुंच होती है। इसका मतलब अपने आप यह मान लिया जाता है कि उसका काम सत्ता के ऊपरी हलकों तक अपनी बात पहुंचाना होता है।
मगर, यह पत्रकारिता की गलत समझ है। वास्तव में पत्रकार सरकार के इनफॉर्मर नहीं होते। उनका काम सरकार को नहीं बल्कि जनता को रिपोर्ट करना होता है। सरकार के पास सूचनाएं इकट्ठा करने का अपना लंबा-चौड़ा तंत्र होता है। आईबी जैसी एजेंसियां होती हैं। इन एजेंसियों से मीडियाकर्मी इसी बात में अलग होते हैं कि वे सरकार के प्रति नहीं अपने पाठकों-दर्शकों-श्रोताओं के प्रति उत्तरदायी होते हैं। मीडियाकर्मियों की विश्वसनीयता की असली कसौटी यही आम लोग होते हैं। इसी वजह से सरकार को अप्रिय लगने वाली बातें भी वे कह सकते हैं, कहते हैं। चूंकि लोकतंत्र में संप्रभुता जनता में निहित होती है और सरकार भी जनता के प्रति ही उत्तरदायी होती है इसलिए सरकारों के खुश या नाराज होने से पत्रकारों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। ज्यादा सटीकता से कहा जाए तो लोकतंत्र की यह भी एक अहम कसौटी है कि सरकार की नाराजगी से पत्रकारों पर कोई फर्क पड़ता है या नहीं। अगर पड़ता है तो इसका मतलब है लोकतंत्र पर खतरा है।
तो माफ करें स्पीकर मैम, पत्रकारों को अपनी बात डंके की चोट पर कहनी चाहिए और सरकार को अच्छा लगे या बुरा, उन्हें कड़वा सच भी खुलकर बोलना चाहिए और कम ही सही, पर देश में ऐसे पत्रकार हैं जो यह काम कर रहे हैं, करते रहेंगे।
(साभार: नवभारत टाइम्स)
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