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अंशुमान तिवारी का आकलन: बजट- बड़े झटके के लिए खुद को तैयार रखना समझदारी होगी...

<p style="text-align: justify;">‘जीएसटी फायदे तो बाद में लाएगा लेकिन इससे पहले टैक्स की चुभन में बढ़ोतरी और सेस परिवार में किसी नए सदस्य का आगमन होने की पूरी संभावना है।’ अपने ब्लॉग 'अर्थात'के जरिए ये कहना है वरिष्ठ पत्रकार अंशुमान तिवारी का। उनका पूरा आलेख आप यहां पढ़ सकते हैं:</p> <p style="text-align: justify;"><strong>नए टैक्स से पहले</strong><

समाचार4मीडिया ब्यूरो 7 years ago

‘जीएसटी फायदे तो बाद में लाएगा लेकिन इससे पहले टैक्स की चुभन में बढ़ोतरी और सेस परिवार में किसी नए सदस्य का आगमन होने की पूरी संभावना है।’ अपने ब्लॉग 'अर्थात'के जरिए ये कहना है वरिष्ठ पत्रकार अंशुमान तिवारी का। उनका पूरा आलेख आप यहां पढ़ सकते हैं:

नए टैक्स से पहले

किस-किस तरह के सेस हमसे वसूले जा रहे हैं और सरकार कभी नहीं बताती कि उनका इस्‍तेमाल कहां हो रहा है।

जीएसटी उस दिन से ही उलझ गया था जब केंद्र सरकार ने वैसा जीएसटी बनाने का इरादा छोड़ दिया था जैसा कि उसे होना चाहिए था। नतीजतन, संसद के गतिरोध को तेजी से पार कर जाने वाला जीएसटी धीमा पड़ता हुआ टल गया है। जुलाई अगली समय सीमा है जो अप्रैल से ज्यादा कठिन दिखती है।

जीएसटी का मतलब है इसके आगे-पीछे कोई दूसरा टैक्स, सेस (उपकर) या ड्यूटी नहीं। सिर्फ अकेला पारदर्शी एक या दो टैक्स दरों वाला जीएसटी। लेकिन पांच टैक्स रेट वाला जीएसटी बनाने के बाद केंद्र सरकार इस पर सेस लगाने की तैयारी में जुट गई। यह सेस की सनक ही ढलान की शुरुआत थी क्योंकि अगर केंद्र सरकार टैक्स पर टैक्स थोपने का लालच छोडऩे को तैयार नहीं है तो राज्य क्यों पीछे रहें?

नया बजट विलंबित जीएसटी की छाया में बन रहा है जो जीएसटी की जमीन तैयार करेगा। हम नए सेस और टैक्स की तरफ बढ़ें, इससे पहले यह जानना जरूरी है कि भारत में सेस का मकड़जाल कितना जटिल है। जो सेस हमसे वसूले गए हैं, उनके इस्तेमाल पर सरकार कभी कुछ नहीं बताती। पिछले माह जब लोग बैंकों की लाइनों में लगे थे और संसद ठप थी, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की एक रिपोर्ट आई थी जो केंद्र सरकार के सेस-राज का सबसे ताजा खुलासा है।

मोबाइल वाला टैक्स

बहुतों को यह जानकारी नहीं होगी कि मोबाइल ऑपरेटर गांवों में फोन और इंटरनेट पहुंचाने के लिए अपने राजस्व पर एक विशेष टैक्स देते हैं। जिसे यूनिवर्सल एक्सेस लेवी कहा जाता है। यह टैक्स हमारे टेलिफोन बिल पर ही लगता है। इसके खर्च के लिए यूनिवर्सल ऑब्लिगेशन फंड (यूएसओ फंड) बनाया गया है।

सीएजी के मुताबिक, इस लेवी से 2002-03 से 2015-16 के बीच 66,117 करोड़ रु. जुटाए गए, जिसमें केवल 39,133 करोड़ रु. यूएसओ फंड को दिए गए। क्या सरकार इस सवाल का जवाब देगी अगर गांवों में फोन पहुंच चुका है तो फिर यह लेवी क्यों वसूली जा रही है और अगर यह पैसा जमा है तो इसका इस्तेमाल मोबाइल नेटवर्क ठीक करने व कॉल ड्राप रोकने में क्यों नहीं हो सकता?

पढ़ाई वाला टैक्स

2006-07 में उच्च शिक्षा व माध्यमिक शिक्षा का स्तर आधुनिक बनाने के लिए इनकम टैक्स पर एक फीसदी का खास सेस लगाया गया था। 2015-16 तक इस सेस से 64,228 करोड़ रु. जुटाए गए। सीएजी बताता है कि इसके इस्तेमाल के लिए सरकार ने न तो कोई फंड बनाया और न ही किसी स्कीम को यह पैसा दिया। अगर शिक्षा के लिए पर्याप्त धन है तो फिर टैक्सपेयर पर बोझ क्यों? देश को इसके इस्तेमाल का हिसाब क्यों नहीं मिलता?

प्राथमिक शिक्षा के तहत सर्व शिक्षा अभियान और मिड डे मील का पैसा जुटाने के लिए इनकम टैक्स पर दो फीसदी का प्राथमिक शिक्षा सेस भी लगता है, जिसके इस्तेमाल के लिए प्राथमिक शिक्षा कोश बना है। इस कोष को 2004-2015 के बीच जुटाई गई पूरी राशि नहीं दी गई है।

धुआं मिटाने वाला टैक्स

बिजली के साफ-सुथरे और धुआं रहित उत्पादन की परियोजनाओं के लिए 2010-11 में एक क्लीन एनर्जी फंड बना था। इस फंड के वास्ते देशी कोयले के खनन और विदेशी कोयले के आयात पर सेस लगाया जाता है, जो बिजली महंगी करता है। 2010 से 2015 के बीच सरकार ने इस सेस से 15,174 करोड़ रु. जुटाए लेकिन एनर्जी फंड को मिले केवल 8,916 करोड रु. अलबत्ता, 2016 के बजट में सरकार ने इसका नाम बदल क्लीन एन्वायर्नमेंट सेस करते हुए सेस की दर दोगुनी कर दी।

रिसर्च वाला टैक्स

सीएजी की रिपोर्ट में एक और सेस की पोल खोली गई है। हमें शायद ही पता हो कि तकनीकों के आयात (इंपोर्ट ड्यूटी) पर सरकार मोटा सेस लगाती है। रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट सेस कानून 1986 से लागू है जिसके तहत घरेलू तकनीक के शोध का खर्चा जुटाने के लिए तकनीकी आयात पर 5 फीसदी सेस लगता है। सेस की राशि टेक्नोलॉजी डेवलपमेंट बोर्ड की दी जाती है। 1996-97 से 2014-15 तक इस सेस से 5,783 करोड़ रु. जुटाए गए लेकिन बोर्ड के तहत फंड को मिले 549 करोड रु.।

सिर्फ यही नहीं, सड़कों के विकास के लिए पेट्रोल-डीजल पर लगने वाला रोड डेवलपमेंट सेस भी पूरी तरह रोड फंड को नहीं मिलता। पिछली सरकारों के लगाए सेस न तो कम थे, न ही उनके हिसाब में गफलत ठीक हो पाई थी लेकिन मोदी सरकार ने अपने तीन बजटों में तीन नए सेस ठूंस दिए। सर्विस टैक्स पर कृषि कल्याण सेस और स्वच्छ भारत सेस लगाया गया जबकि कारों पर 2.5 फीसदी से लेकर 4 फीसदी तक इन्फ्रास्ट्रक्चर सेस चिपक गया। पिछले दो साल में सरकार ने कभी नहीं बताया कि सफाई और खेती के नाम पर लगे सेस का पैसा आखिर किन परियोजनाओं में जा रहा है?

जीएसटी के पटरी से उतरने को लेकर राज्यों को मत कोसिए। इस सुधार को केंद्र सरकार ने ही सिर के बल खड़ा कर दिया है। सेस टैक्स नहीं हैं। यह टैक्सेशन का अपारदर्शी हिस्सा हैं। इन्हें लगाया किसी नाम से जाता है और इस्तेमाल कहीं और होता है। राज्यों को इस पर आपत्ति है क्योंकि सेस उस टैक्स पूल से बाहर रहते हैं जिसमें राज्यों का हिस्सा होता है। केंद्र सरकार का कुल सेस संग्रह 2015-16 में 55 फीसदी बढ़ा है। बीते बरस केंद्र सरकार के पास करीब 1.06 लाख करोड़ रु. का राजस्व संग्रह ऐसा था जिसमें राज्यों का कोई हिस्सा नहीं है।

जीएसटी फायदे तो बाद में लाएगा लेकिन इससे पहले टैक्स की चुभन में बढ़ोतरी और सेस परिवार में किसी नए सदस्य का आगमन होने की पूरी संभावना है। जीएसटी के तहत 18 फीसदी का सर्विस टैक्स लगने वाला है नतीजतन 2017 के बजट में सर्विस टैक्स की दर 1 से 1.5 फीसदी तक बढ़ सकती है या फिर नए सेस लग सकते हैं। इसलिए बजट में राहत की उम्मीद करते हुए किसी बड़े झटके के लिए खुद को तैयार रखना समझदारी होगी।

(साभार: 'अर्थात' ब्लॉग से)

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