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वरिष्ठ पत्रकार चंद्रभूषण के कीबोर्ड से: बागी पत्रकारिता का बोझ

मेरे एक स्वर्गीय मित्र आज भी अपनी यादों से मुझे परेशान करते हैं। ये कोई भावुक, रूमानी यादें नहीं होतीं....

समाचार4मीडिया ब्यूरो 7 years ago

मेरे नजदीकी दायरे में कई ऐसे पत्रकार भी हैं, जो अपने छोटे से छोटे परिचय का भी ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाते हैं। इन्हीं में एक छोटी प्रजाति उनकी है, जो अपने कर्मों से न सिर्फ अपने संस्थान पर बोझ बन जाते हैं, बल्कि कोई भी इन्हें अपने साथ रखना खतरे से खाली नहीं मानता। ऐसे में ये अपना अलग मंच लगाकर खुद को विद्रोही घोषित कर देते हैं।हिंदी दैनिक नवभारत टाइम्स के नजरबट्टूकॉलम के जरिए ये कहा वरिष्ठ पत्रकार चंद्रभूषण ने। उनका पूरा कॉलम आप यहां पढ़ सकते हैं-

बागी पत्रकारिता का बोझ

मेरे एक स्वर्गीय मित्र आज भी अपनी यादों से मुझे परेशान करते हैं। ये कोई भावुक, रूमानी यादें नहीं होतीं। एक पत्रकार के रूप में उनका पेशेवर अंदाज, जानी-पहचानी चीजों को लेकर चौंका देने वाला उनका गैर-पारंपरिक नजरिया और दोस्तों की मदद करने का उनका जुनून जब-तब उनकी याद दिला देने के लिए काफी है। स्वतंत्रता आंदोलन के अंतिम दिनों में वे एक छात्र संगठन के कार्यकर्ता थे। आजाद भारत में नौकरशाही का अंग बने, लेकिन बंधी हुई जिंदगी रास नहीं आई तो एक अखबार से जुड़ गए। कुछ समय बाद लगा कि ढर्रे की खबरें करनी पड़ रही हैं तो कतर दूतावास में जनसंपर्क अधिकारी बन गए। बताते थे कि वहां मजे ही मजे थे- कोई बॉस नहीं, अच्छी सैलरी, दोनों देशों की छुट्टियां। लेकिन दोबारा एक अखबार से जुड़ने का मौका मिला तो सब छोड़कर आधी पगार में उधर चले गए।

उन्हीं का कहना था- पत्रकारिता के कीड़े ने जिसको एक बार काट लिया, उसको इस बीमारी से कभी निजात नहीं मिलती।इस मस्तमौला इंसान की जिंदगी का अकेला अफसोस यह था कि पत्रकारिता की उसकी दूसरी पारी लंबी नहीं चली। जिस अखबार से वे जुड़े थे, वह जल्द ही बंद हो गया। नतीजा यह कि अपने परिवार का जीवन स्तर बनाए रखने के लिए उन्हें विज्ञापन लिखने से लेकर विदेशी टीवी चैनलों का कॉन्टेन्ट हिंदी में लाने तक बहुत तरह के काम करने पड़े। लेकिन इन व्यस्तताओं के बीच भी वे पत्रिकाओं के लिए लिखते रहे। उनसे मेरा परिचय इसी दौर में हुआ था। मैं यह देखकर हैरान रहता था कि इतना हाई-प्रोफाइल पत्रकार, जिसके परिचितों में दो-चार मंत्री भी हुआ करते थे, इनसे मदद लेने की कभी सोचता तक नहीं।

इसके विपरीत मेरे नजदीकी दायरे में कई ऐसे पत्रकार भी हैं, जो अपने छोटे से छोटे परिचय का भी ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाते हैं। इन्हीं में एक छोटी प्रजाति उनकी है, जो अपने कर्मों से न सिर्फ अपने संस्थान पर बोझ बन जाते हैं, बल्कि कोई भी इन्हें अपने साथ रखना खतरे से खाली नहीं मानता। ऐसे में ये अपना अलग मंच लगाकर खुद को विद्रोही घोषित कर देते हैं। सांस्थानिक बाध्यताओं से ऊपर उठकर आपको अपना पैशन खुद ही आजमाने का मौका मिले, इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है? लेकिन जब पता चलता है कि उनके मंच का इस्तेमाल भी सूचना और विचार की जद्दोजहद के लिए नहीं, पैसे-पावर की तिकड़म के लिए ही हो रहा है, तो धक से लगता है कि मेरे उन स्वर्गीय मित्र ने कहां अपनी जिंदगी खपा दी!

(साभार: नवभारत टाइम्स)


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