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सावित्री की छवि को हमने कहां से कहां पहुंचा दिया है: राजीव कटारा, वरिष्ठ पत्रकार
आज सावित्री का दिन है। अमावस्या है आज। एक खास अमावस्या जिस दिन वट सावित्री व्रत होता है...
समाचार4मीडिया ब्यूरो 7 years ago
‘इतनी सदियों में सावित्री की छवि को
हमने कहां से कहां पहुंचा दिया है? खुद
सावित्री भी आ जाएं, तो उसे पहचान तक न पाएं। हमें सावित्री
को गंभीरता और गहराई से समझने की जरूरत है।’ अपने फेसबुक पोस्ट के जरिए ये कहा
वरिष्ठ पत्रकार राजीव कटारा ने। उनकी ये पूरी पोस्ट आप यहां पढ़ सकते हैं-
आज सावित्री का दिन है। अमावस्या है आज। एक खास अमावस्या जिस दिन वट सावित्री व्रत होता है। यह दिन आता है, तो मैं लौट कर कुछ साल पीछे चला जाता हूं। उस दिन महिला दिवस था। दिन के मुताबिक महिलाओं पर सेमिनार था। मैं एक कॉलेज में गलती से ले जाया गया था। मैं बहुत देर तक वहां मौजूद बोलने वालों को सुनता रहा। किस कदर सती सावित्री की धुलाई हो रही थी। मुझे लोहिया याद आए। वह भी कहते थे कि हमें सती सावित्री छवि वाली औरतें नहीं चाहिए। मैं लोहिया जी को बहुत मानता हूं। लेकिन उनसे भी इस मसले पर कभी सहमत नहीं हो पाया। वहां मौजूद लोगों से कैसे हो पाता? वहां जो कुछ भी कहा जा रहा था, उससे मैं दुखी ही होता रहा।
उस दिन मैं सचमुच उखड़ गया था। मैंने पूछा था कि यहां कितनी लड़कियां हैं, जो अपनी पसंद से शादी करना चाहेंगी। या कर पाएंगी। और अपनी पसंद के लिए पीछे नहीं हटेंगी। चाहे हालात कैसे भी हों। मसलन घर बार न हो। नौकरी चाकरी न हो। और फिर उम्र भी राशन में हो। उस मामले में अपने माता पिता, गुरुओं के तमाम मनाने के बावजूद आज भी कितने लोग उस पर टिक पाएंगे। एक सन्नाटा सा पसर गया था वहां। महिलाओं से भरे उस हॉल में सिर्फ बुदबुदाहट हो रही थी। एक सीधा सच्चा सा जवाब भी नहीं मिल पा रहा था।
तब मैंने कहा था कि जब तक हम यह जवाब नहीं दे पाते, तब तक हमें सावित्री को कोसने का अधिकार नहीं है। सावित्री को कोसना आसान है, सावित्री को जीना बहुत मुश्किल है। जब हम सावित्री को सती सावित्री कहते हैं, तो कैसा महसूस होता है? यही न कि हम एक सीधी-सादी, अपनी किसी भी पहचान से अलग, ससुराल से बंधी, गूंगी-बहरी किस्म की औरत पर बात कर रहे हैं। लेकिन उस 'सती टाइप इमेज' से बिल्कुल अलग है सावित्री। उसने अपनी पसंद से शादी की है। वह हांक नहीं दी गई है। जरा उस कथा को ठीक से पढ़िए और समझिए तो सही।
एक राजा की बेटी थी सावित्री। वह खुद अपने वर की तलाश में निकली थी। कई राजदरबारों में वह गई, लेकिन उसे कोई पसंद नहीं आया। आखिरकार एक तपोवन में उसकी तलाश पूरी हुई। वहां एक बूढ़ा अंधा राजा अपनी रानी औरे बेटे के साथ वनवास भोग रहा था। उसी बेटे सत्यवान को वह पसंद करती है। पिता उसे किसी राजकुमार को चुनने को समझाते हैं। लेकिन वह नहीं मानती। नारद तक उसे समझाते हैं। उसकी महज एक साल आयु होने की बात करते हैं। तब भी वह अपने फैसले से नहीं हटती। वह सत्यवान से ही शादी करती है। बाद की कहानी सब जानते हैं कि कैसे वह अपने सत्यवान को यमराज से छुड़ाकर लाई?
मुझे तो यह सचमुच गजब की प्रेम गाथा लगती है। इसमें सावित्री न केवल अपनी पसंद का वर चुनती है, बल्कि तमाम विरोधों के बावजूद उस पर अड़ती है। आज अपना समाज काफी आगे निकल चुका है। सचमुच महिलाओं को बहुत अधिकार भी मिल गए हैं। लेकिन उसके बावजूद सावित्री होना आसान नहीं है। कितनी लड़कियां अपनी पसंद के उस लड़के से शादी करना चाहेंगी, जिसकी उम्र का महज एक साल बचा हो? उसका सब कुछ छिन गया हो। वह गर्दिश में दिन बिता रहा हो। सोचने की बात यह है कि उन्हें हम सती सावित्री कहते हैं। लेकिन उन्होंने सत्यवान के साथ सती होना तय नहीं किया था। वह सत्यवान को वापस लाना चाहती थी। कौन नहीं चाहता कि उसका जीवन साथी वापस आ जाए? ताकि एक लंबी खूबसूरत जिंदगी बिताई जा सके। यह अलग बात है कि उस पर किसी का वश नहीं चलता। इतनी सदियों में सावित्री की छवि को हमने कहां से कहां पहुंचा दिया है? खुद सावित्री भी आ जाएं, तो उसे पहचान तक न पाएं। हमें सावित्री को गंभीरता और गहराई से समझने की जरूरत है।
हम अपने मिथकों को कितने सतही ढंग से जीते हैं। काश! हम अपने मिथकों की आत्मा तक पहुंचने की कोशिश करते।
(साभार: वरिष्ठ पत्रकार राजीव कटारा की फेसबुक वाल से)
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