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वरिष्ठ पत्रकार जयंती रंगनाथन की कहानी: मन, माया और मंडी

जयंती रंगनाथन सीनियर फीचर एडिटर  हिन्दुस्तान ।। लाल पत्तियां

समाचार4मीडिया ब्यूरो 7 years ago

जयंती रंगनाथन

सीनियर फीचर एडिटर 

हिन्दुस्तान ।।

लाल पत्तियां

सामने से बहुत तेज जीप आ रही थी, रोशनी से बैजन की आंखें चुंधिया गई। एक क्षण को लगा कि वह मोटर साइकिल पर अपना संतुलन ही खो बैठेगा। सडक़ खाली तो करनी ही थी सामने वाली गाड़ी के लिए, जैसे ही वह गाड़ी सडक़ से नीचे मिट्टी के ढाल पर ले आया, पीछे बैठी उसकी बड़ी बहन शंकु ने उसकी पीठ पर जबरदस्त धौल मारा। बैजन गिरते-गिरते बचा।

‘दीदी, दीदी’, बैजन रिरियाने लगा। शंकु ने कुछ चिढ़ कर कहा, ‘बैजू, इतने सालों में तूने गाड़ी चलाना नहीं सीखा। सड़क क्या दूसरे की बाप की है, जो हर समय तू गढ्डे पर गिराता चलता है? चल, जल्दी कर, अबकि मैडम निकल गईं, तो लंबा नुकसान हो जाएगा।’

शंकु को पता था कि वैसे मैडम उससे मिले बिना जाएंगी नहीं। कल कंवल मिलने आया था उससे। उसने ही बताया था कि मैडम का काम मंदा चल रहा है और शंकु से उन्हें बड़ी आस है। पिछले दो साल में मैडम की एजेंसी को इधर-उधर के गांव से बीस से ज्यादा लड़कियां दे चुकी थीं। मैडम लड़कियों को दिल्ली और आस-पास के शहरों में घर का काम करने भेजती थीं। पूरा ब्योरा रखती थी लड़कियों का। सब पता होता था उन्हें कि कौन सी लड़की किस घर में काम करती हैं। अगर घर में एक भी जनाना नहीं होती, तो वो वहां लड़कियों को काम करने भेजती ही नहीं।

सब मजे में चल रहा था। शंकु को ठीक पैसे मिल जाते। लड़कियां साल भर गांव आती। दुबली-पतली काठ की मारी लड़कियों के देह भरे-भरे लगते। कोई जीन्स पहन कर आती, तो कोई नेट का दुपट्टा लहरा कर अपने को ‘सहर’ का होने का पूरा ऐलान ही कर देती। आंखों में काजल, होंठों पर लिपस्टिक, पैरों में हील वाली चप्पल।

उन लड़कियों को देख शंकु की आंखें जुड़ा जातीं। कुछ लड़कियां तो शंकु के लिए उपहार भी ले आतीं। उन्हीं में एक थी सीमा। सांवली, थोड़ी मोटी नाक वाली सीमा। बचपन से जानती थी उसे शंकु। उसकी बेटी सोना से चारेक साल बड़ी। सीमा अपने अपनी मां और सौतेले पिता के साथ रहती थी। उससे नीचे तीन बच्चे। जैसे ही उसे पता चला कि शंकु लड़कियों को नौकरी दिलाती है, वो भी शहर में। वह तुरंत चली आई थी उसके पास। उस वक्त उसकी उम्र रही होगी पंद्रह के आसपास। पर अपने घर से निकलने को बड़ी बेताब थी। सीमा के साथ-साथ उसने तीन और लड़कियों को मैडम से मिलवाया था। मैडम खुश हुईं। शंकु को दस हजार रुपए दिए। पर यह तब की बात है, अब तो शंकु की कमीशन कहीं ज्यादा है। सीमा को दिल्ली में बड़े अच्छे घर में नौकरी मिल गई। साल भर बाद आई तो पहचानी नहीं गई। बने हुए आई ब्रोज, पांव में पायल, बिना तेल के हवा में उड़ते कटे हुए बाल। सीमा गांव की लड़कियों के लिए नया आदर्श थी। हाथ में पैसे, बैग में सबके लिए भर-भर उपहार। और क्या चाहिए? पंद्रह दिन की छुट्टी बिता कर जाने से पहले शंकु से मिलने आई और उसके गले लग कर बोली, ‘माउसी, तेरी वजह से मेरी जिंदगी बन गई। मैं सहर में पिक्चर देखती हूं, होटल में खाना खाती हूं। मेरे हाथ में पैसे रहते हैं। मुझे लगता है मैं किसी फिल्म की हीरोइन हूं।’

कुछ समय बाद चला कि वह अपने आपको हीरोइन क्यों कह रही थी। जिस घर में वह काम करती थी, वहां के ड्राइवर के साथ उसका लाइ-लंगड़ फिट था। सीमा ने उससे शादी कर ली। अब तो उसका एक बच्चा भी है। वह मंगोलपुरी के आस-पास ही रहती है और अकसर अपने ड्राइवर पति के भेजे अश्लील चुटकुले उसे एसएमएस करती रहती है।

शंकु अपने गांव की नहीं, आसपास के कई गांवों की गारंटी आंटी है। शंकु हर किसी को कहीं ना कहीं फिट कर देती है। प्रमिला की बुआ को पैसों की सख्त जरूरत थी, तो उसे आया बना कर मुंबई रवाना कर दिया। उन्हीं पैसों से बुआ ने पिछले साल अपनी बेटी लल्ली की शादी कर दी। यह अलग बात है कि लल्ली की शादी चली नहीं और पंद्रह दिन पहले वह खुद नौकरी की गुहार ले कर उसके दरबार में आ खड़ी हुई।

पर अब हालात पहले से नहीं रहे। गांव की जरूरतमंद अधिकांश लड़कियों को वह पहले ही एजेंसी को दे चुकी है। दूसरे जबसे लक्ष्मी की आत्महत्या की खबर ने सुर्खियां पकड़ीं, शंकु पर भी उंगलियां तो उठीं ही। धीरे-धीरे कानाफूसी सी उड़ती खबर ने तेज धार पकड़ ली कि एजेंसी नौकरी के नाम पर भेजने वाली लड़कियों से गलत काम करवाती हैं।

छह महीने पहले तो गांव एक पत्रकार आ पहुंचा। उसने इधर-उधर के लोगों से बात की, शंकु से बात ना की। खबर छप गई कि शंकु एजेंसी वालों के साथ मिलकर लड़कियां बेचने का धंधा करती है। पुलिस भी आई, और बहुत किरकिरी हुई शंकु की। मैडम ने स्थानीय एमएलए को पहले से पटा रखा था। तब जा कर कहीं जा कर मामला दबा और लक्ष्मी के घरवालों ने कहा कि लड़की का दिमागी संतुलन ठीक नहीं था।

शंकु अब बहुत फूंक-फूंक कर चल रही थी। यूं तो उसके पास दिन में दसियों मां-बाप या लड़की खुद चल कर आती थी नौकरी मांगने। शंकु सबसे फॉर्म भरवाती थी। फॉर्म के बीस रुपए अलग से लेती। पूरा ब्यौरा मांगती थी, उम्र, कद-काठी, शादी हुई कि नहीं। कई बार तो अपने ही घर में वह लड़कियों से खाना बनवा कर देख लेती। इसके बाद भी तसल्ली ना होती, तो लड़की के घर जा कर देख आती। इतना तो शायद गांव के लोग बहू चुनने में भी नहीं करते थे।

मैडम ने ही कहा था उसे कि जल्दबाजी मत करना। ऐसी लड़कियों से जरा दूर रहना, जो पैसे की भाषा बोलती हैं। लड़कियों को सहर जा कर पंख उगाने दो। हमारे लिए तो भोली लड़कियां ही भली।

मैडम जब भी आतीं, अग्रवाल गेस्ट हाउस में ठहरतीं। बस उसी गेस्ट हाउस में जनरेटर का इंतजाम था। मैडम तो कमरे से बाहर ही नहीं आती थी। गर्मी बर्दाश्त नहीं कर पाती थी। दो दिन से ज्यादा वो रुकती भी नहीं थी। आज ही रात को वो निकल जाने वाली थीं।

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शंकु मैडम के पास पहुंची, तो कमरे में दो-चार ठो लोग और भी थे। मैडम ने इशारे से उसे कहा कि बैठो। मैडम का नाम दो-चार महीने पहले ही पता चला था शंकु को--चारु। छोटे कद की, जरा सी मोटी मैडम हमेशा जीन्स और टॉप पहन कर रहती थी। छोटे से कटे घुंघराले बाल। चलती तो लगता बेबी हाथी लुढक़ता हुआ चला आ रहा हो। मैडम पहले उससे कम बोलती थीं, बस काम की बातें करती थीं। पर पिछले कुछ दिनों से वह खुलने सी लगी थी। वरना शंकु को तो यह तक नहीं पता था कि मैडम रहती कहां थी।

शंकु को लग गया कि कमरे में जितने लोग हैं, वो भी उसी की तरह मैडम को काम करने वाली लड़कियों के फॉर्म देने आए हैं। उनमें से एक तो वो पहचानती भी थी। दीन दयाल दो साल पहले ही डकैती के इल्जाम में जेल से छूटा था। वो यहां क्या करने आया है? हाथ में फॉर्म की थप्पी और कर रहा था मैडम से मोलभाव।

शंकु ने आज तक कभी मैडम से कुछ कहा नहीं। जो देती हैं, वो चुपचाप ले लेती है। मैडम को दीन की बातें शायद जम नहीं रही थी। अचानक उसने जोर से कहा, ‘ब्रदर, मैं यहां से लड़कियां ले जाकर किसी बार या चकले में नहीं बेचती। मुझे तुम्हारे चक्कर में नहीं पड़ना। तुम बार-बार यहां मत आओ।’

दीनदयाल जोरों से हंसने लगा, ‘किसको चरा रही हो बीबी? सबको पता है तुम क्या करती हो? इतनी शराफत किसे दिखा रही हो?’

मैडम का चेहरा लाल पड़ गया। आज मैडम का सिपाही मोती कहां गया? हट्टा कट्टा पहलवान मोती होता, तो दीनदयाल को कमरे से बाहर निकाल चुका होता।

माहौल खराब होता सा देख मैडम फौरन अंदर के कमरे में चली

गई। दीन दयाल कुछ देर तक बक-बक करता रहा, फिर वहां से चला गया। बैजन ने शंकु को टहोका, ‘चलें? ज्यादा रात हो जाएगी तो, रास्ता ही नहीं सूझेगा।’

शंकु की समझ नहीं आया। जाना चाहिए कि रहना चाहिए। उसने मैडम के मोबाइल में फोन घुमाया। मैडम ने फौरन उठा लिया, ‘शंकु्र तुम यहीं हो? आ जाओ, अंदर आ जाओ। भई तुमसे क्या परदादारी?’

अंदर का दरवाजा खुला था। शंकु ने टहोका, तो खुल गया। उसकी मैडम पहचान में नहीं आ रही थी। बिना बांहों की लगभग पारदर्शी नाइटी में थी मैडम, बिस्तर पर लगभग लेटी हुई सी बैठी थी। हाथ में कांच का लंबा गिलास, उसमें लाल रंग का तरल पदार्थ।

शंकु को देख मैडम ने कुछ तरंगित आवाज में पूछा, ‘वाइन पियोगी?’

शंकु ने नहीं में सिर हिलाया। अपना पांव समेट मैडम ने उसे वहीं बैठने का इशारा किया। एकाध घूंट लेने के बाद मैडम धीरे से बोलीं, ‘अब पहले जैसा कुछ नहीं रहा शंकु। हर तरफ से दिक्कतें हैं। गांव वाले चालाक होने लगे हैं, शहर वाले तो पहले से काइयां हैं। हम पिस रहे हैं बीच में। जाने दे ये सब। तू बता, कितनी लड़कियों के फार्म लाई है?’

शंकु ने उनके हाथ में फॉर्म पकड़ा दिए, ‘चार लड़कियों के हैं। खूब छांट कर लाई हूं। कोई चालाकी नहीं करेगी।’

मैडम ने फॉर्म देखे बगैर बिस्तर पर फेंक दिया और शंकु की तरफ देखती हुई बोली, ‘तूने छांटा है तो ठीक ही होंगी।’मैडम सोच में डूबी सी बिस्तर पर लेट गईं। शंकु के ऊपर पांव, धीरे से बोलीं, ‘बड़ा दुख रहा है शरीर। जरा पांव तो दबा दे।’

शंकु धीरे-धीरे पांव दबाने लगी। पांच मिनट बाद ही मैडम ऊंघने लगी। कमरे के कोने में बिजन मूर्ख सा खड़ा था, हाथ में हाथ लिए।

अब क्या? शंकु ने हाथ हटाए, तो मैडम ने धीरे से करवट बदल लिया। शंकु उठ खड़ी हुई। मैडम के सिराहने जा कर पूछा, ‘मैं जाऊं? लड़कियों के बारे में कब बताओगी?’

मैडम की अधमुंदी आंखें खुलीं। भक्क लाल। शंकु डर गई। यह गिलास की दवाई का रंग मैडम की आंख में कैसे?

मैडम की भर्राई सी आवाज आई, ‘शंकु, मेरी बहन। थक गई हूं मैं काम करते-करते। देख, चैन ही नहीं है। तू मेरी बात मानेगी ना?’

शंकु ने जल्दी से हां में सिर हिलाया। मैडम कुछ रुक कर बोली, ‘मुझे दो दिन में दस लड़कियां दिला दे। मैं तुझे मुंहमागे पैसे दूंगी। तू कुछ भी कर, पर ना मत कहना। मैं और किसी पर इतना यकीं नहीं कर सकती। बोल, मेरा काम करेगी ना?’

शंकु सिर झुकाए खड़ी रही। बैजन तेजी से ना में सिर हिला रहा था। मैडम ने उसकी तरफ देखा और आंखें बंद करते-करते बोली, ‘अब तू जा, मुझे आराम करना है। पर मेरी बात याद रखना, दस या कोई नहीं।’

शंकु दबे पांव कमरे से बाहर निकली। दरवाजा अपने आप बंद हो गया।

बैजन ने बाहर निकलते ही रुष्टता से कहा, ‘तुम भी ना जिज्जी, मैं इतना तो सिर हिला रहा था, और तुम हां कर आई।’

शंकु को भी लग रहा था कि उससे गलती हो गई। पर उसने बात संभाली और कुछ सख्ती से कहा, ‘मैडम बिजनेस करती है मेरे साथ और तू मुआं कुछ नहीं करता। उनकी जरूरत होगी, तभी तो बोलीं। इससे पहले तो कभी नहीं बोली थी इतनी लड़कियां दो, इतनी मत दो।’

‘अब तुम करोगी क्या?’

शंकु सोच में पड़ गई, ‘कुछ तो करना पड़ेगा ना भैया, वो जो दो लड़कियों के फॉर्म हमने कैंसिल किए थे, उनको बुला कर देखते हैं।’

‘उन छोकरियों को तो हिंदी बोलनी दूर, समझ ही नहीं आती।’

शंकु भी कुछ ऐसा ही सोच रही थी। प्यारी और केसरी को किस बूते गांव से बाहर भेजे? ना कभी स्कूल गईं, ना घर का काम किया। हां, देखने में ठीक सी हैं, बस्स। इन दोनों के अलावा एक गौरी हो सकती है। उम्र में कुछ बड़ी, दो बच्चों की मां, थोड़ी कर्कश है। पति और सास से नहीं बनती। बच्चों को सास के भरोसे छोड़ शहर जा कर काम करना चाहती है। उसका पति आया था कुछ दिन पहले शंकु से मिलने। कह गया कि एक बार गौरी को घर छोडऩे का मौका मिला गया, तो लौट कर नहीं आएगी। करेक्टर ठीक नहीं है। गौरी को यह बात बताई शंकु ने, तो उसने उलटे पति पर इल्जाम लगाया कि वह उसे मारता-पीटता है, शोषण करता है। शंकु उनके पचड़े में पड़ना ही नहीं चाहती थी, इसलिए गौरी से फॉर्म ही नहीं भरवाया।

 अगर प्यारी, केसरी और गौरी को भी मिला लें, तो भी सात लड़कियां हुईं। बाकि के तीन कहां से लाए? वो भी दो दिन में?

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अगले दिन बैजन के साथ मोटर साइकिल पर बैठ कर शंकु लड़की खोजो अभियान पर निकल पड़ी। आस-पास के गांवों में वह अकसर आती-जाती रहती थी, बहुतों को उससे शिकायत भी थी। लड़की नौकरी करने शहर जाती है, पर लौट कर नहीं आती, या वहीं अपना घर बसा लेती है, घर पैसा नहीं भेजती। नाम खराब कर दिया है परिवार का। ऐसे परिवारों में दोबारा हाथ डालना मधुमक्खी के छत्ते को न्यौता देने जैसा होता है। पर शंकु ने भी अपनी खाल मोटी कर ली थी।

अपमान-वपमान से घबराती नहीं थी। बस सामने, मैडम का पैसों से भरा पर्स नजर आता।

शंकु को सत्यभामा के घर पहुंचते-पहुंचते दोपहर हो गई। वह जिला पंचायत की तरफ से चल रहे सिलाई स्कूल में काम करती थी। पिछली बार उसने दो लड़कियों का फॉर्म भरवाया था। भामा उसका मोबाइल नहीं उठा रही थी। शंकु ने उसे कहलवा भेजा था अपने आने के बारे में।

भामा बुखार में थी। शंकु को देखते ही मुंह ढेढ़ा कर पूछा, ‘मेरे पैसे ले आई?’

भामा के मन में था कि शंकु ने मैडम से तगड़े पैसे लिए हैं और उसे बस हजार रुपए का कमीशन दे कर टरका दिया। शंकु ने कुछ मुलायमियत से कहा, ‘देख बहन, मुझे दो-तीन लड़कियां और दिला दे। मैं तुझे मैडम से कह कर अच्छी कमीशन दिलवाने की कोशिश करूंगी।’

भामा रुक कर बोली, ‘तू कमीनी है, मैं तेरे पे यकीं नहीं करती। मुझे पहले वाले पैसे दे, फिर बात कर।’ भामा कहीं से राजी होने को तैयार नहीं हुई कि उसका कमीशन सिर्फ एक हजार रुपल्ली था। शंकु ने हार कर अपनी जेब से पांच सौ के दो नोट निकाले और कुछ भीगी हुई आवाज में बोली, ‘मुझे तुम गलत समझती हो बहन। देख, मैं अपनी तरफ से तुझे ये दे रही हूं। मैं गांव की लड़कियों की जिंदगी भी तो बना रही हूं। मेरी वजह से टोलीराम मोची ने पक्का घर बनवा लिया है। जिन-जिनके घर की लड़कियां बाहर काम करती हैं, सबके घर मोबाइल आ गया है, टीवी है, पेट भर खाना खाते हैं। फिर भी तुम लोग मुझे गालियां देते हो, एजेंट कहते हो..

‘अगर जिगर है, तो सुन तेरे बारे में कमिटी वाले क्या कहते हैं। रंडी कहते हैं तुझे, दलाल। ना बाबा, मुझे नहीं करना तेरा काम।’

पूरे घंटे पर उसे मनाया शंकु ने, तब जा कर भामा कुछ लड़कियों के घर उसे ले जाने को तैयार हुई। गंज मोहल्ले से पहले भी कुछ लड़कियां जा चुकी थीं शहर। वहीं दर्जी का काम करता था हसन अली। शंकु को देखते ही उसने अपना पुराना, फटा बदबूदार जूता उठा कर उसके मुंह पर फेंक दिया। शंकु को चोट ज्यादा तो ना लगी, पर अपमान और वितृष्णा से वह वहीं जमीं पर बैठ गई।

हसन ने दरवाजे की कुंडी बाहर से लगा दी और हाथ में डंडा उठा कर बोला, ‘खबरदार जो हमारे गांव से किसी का अगवा किया। तेरे औरत होने पर नहीं जाऊंगा। चल निकल यहां से।’

साल भर पहले यही हसन उसके साथ दो मील चल कर गांव-गांव घूमा था। उसके घर से तो कोई गया नहीं, पर शंकु ने सुना भर था कि गांव की लड़की रूपा को किसी ने दिल्ली के जीबी रोड पर देख लिया था। पता नहीं वह इसी गांव की रूपा थी कि क्या, पर तब से हसन के मन में यह छप गया कि शंकु नौकरी के बहाने लड़कियों को बाहर भेज कर उन्हें दल्लों के हाथ सौंप देती है।

शाम तक शंकु का पांव और धैर्य जवाब दे गया। कुल मिला कर बस सरसती के घर से उसे एक लड़की का आश्वासन मिला था। लौटते समय भामा ने उसे अपने घर चाय पीने रोक लिया।

शंकु का दिमाग जवाब देने लगा। मैडम दस से कम में मानेंगी नहीं। और इस समय शंकु को पैसों की सख्त जरूरत है। बेटी सोना की  शादी से पहले वह अपने घर को दो मंजिला बना लेना चाहती थी। घर का काम शुरू हो चुका था। पलस्तर का काम बाकि था। ठेकेदार को उसने रोक रखा था कि जैसे ही पैसा आएगा, वह काम शुरू करवा देगी।

भामा इस समय सहज लग रही थी। चाय के साथ मठरी भी प्लेट में रख ले आई। शंकु को जबरदस्ती मठरी पकड़ाते हुए भामा ने सवाल किया, ‘अरी शंकु, पिछली बार वो रीता रानी मिली थी मुझे। तूने ही शहर भिजवाया था उसे। कह रही थी कि वह महीने आठ हज्जार रुपए कमाती है। सच है कि झूठ?’

शंकु ने चाय का एक घूंट पीकर कहा, ‘हां, अगर काम अच्छा हो, तो इतना भी मिल जाता है।’

‘आठ हजार तो बहुत होते हैं ना? मेरे को देख, कितने सालों से डेढ़ हजार पर काम कर रही हूं। खाने तक को पूरा नहीं पड़ता। घरवाला पिछले पांच साल से गायब है, पुलिस-जादू टोना सब करके देख लिया। अब मैं यहां किसके लिए रुकूं? शंकु, ऐसा कर ना, इस बार मुझे भी भेज दे शहर। देख, काम से तो मैं घबराती नहीं। खाना-वाना भी बना लेती हूं। मुझे भी पैसे कमाने दे। पक्का घर बन जाएगा मेरा भी, आगे के लिए भी कुछ बचा लूंगी। क्या पता, शहर में कोई ठीक सा मिल जाए, तो घर बसा लूंगी उसके साथ। ऐ, क्या सोच रही है? मेरा फॉर्म भी भरवा ना, मेरी अच्छी शंकु।’

शंकु कुछ और ही सोच रही थी। नौ हो गए, अब दस का क्या करें?

अगले दिन फिर शंकु घर से निकली, पर कोई लड़की हाथ ना लगी। कुल मिला कर नौ का ही आंकड़ा था, वो भी सत्य भामा को मिला कर।  दसवीं कहां से लाए? खुद खड़ी हो जाए क्या?

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मैडम ने उसे इस बार सुबह-सुबह ही बुला लिया। लड़कियों के फॉर्म देखे और थोड़ा सा मुंह बिचका कर बोली,‘शंकु, नहीं चलेगा। एक भी कम नहीं चलेगा।’

शंकु धीरे से बोली, ‘मैडम जी, इस बार रहने दो। मैं अगली बार कुछ बड़ा कर देने की कोशिश करूंगी।’

मैडम ने एक नजर उसकी तरफ डाल कर कहा, ‘अगली बार हो तब ना? मैं यह काम छोड़ कर दुबई जा रही हूं। मुझे सब लोगों की डिमांड इस बार ही पूरी करनी है। पिछली बार एमएलए साहब के घर में लक्ष्मी ने जो किया...’

लक्ष्मी ने? उस बेचारी ने तो खुदकुशी की थी।

मैडम बड़बड़ाती हुई बोली, ‘लक्ष्मी पागल थी। इत्ते तो पैसे मिल रहे थे उसे।’

मैडम ने अचानक अपना सुर बदलते हुए कहा, ‘अच्छा, कल सुबह मुझे इन लड़कियों से मिला दे। मुझे देखना पड़ेगा कि मिनिस्टर साब के घर किसे भेजूं। चल, अब तू जा यहां से और दसवीं को ढूंढ़।’

अगले दिन नौ कैंडिडेट के साथ शंकु मैडम के पास पहुंच गई। गांव से यहां आने के लिए उसने टैम्पो मंगवाई थी। सब लड़कियों को ठंडा पिलवाया। इतना पैसा तो खर्च करना ही पड़ता है। मैडम पूरे दो घंटे लेट आई। लड़कियों की परेड हुई। इस बार मैडम ने किसी से यह नहीं पूछा कि उसे खाना बनाना आता है या अंग्रेजी के दो-चार शब्द आते हैं। वो तो बस नजदीक से एक-एक लड़की के पास जा कर उसकी कद-काठी ही देख रही थी।

लड़कियों को बाहर जाने को कह मैडम शंकु के पास बैठ गई। कुछ सोच कर धीरे से बोली, ‘देख शंकु, वैसे तो ये लड़कियां ठीक हैं। पर उनमें वो बात नहीं। समझी कि नहीं? बड़े घरों में काम करने वाली का भी एक क्लास होता है। वो उनके साथ हवाई जहाजों में घूमती है, विदेश जाती है, होटलों में खाती है। उसके लिए ऐसी लड़की नहीं चलेगी। वैसी चाहिए लक्ष्मी जैसी, समझी?’

ऐसा क्या था लक्ष्मी में? रंग साफ था, दुबली थी, घुंघराले बाल थे और नाक-नक्श भी अच्छा था। बोलती कम थी लड़की। पर हां, मैडम ने उसे देख कर कहा था कि अच्छी तरह नहा-धो कर लड़की जब तैयार होगी, तो जान आ जाएगी लड़की में।

शंकु की दुविधा मैडम ने भांप ली। उसका हाथ पकड़ कर कहने लगी, ‘बस कुछ दिनों के लिए ही दिला दे। देख, मुझे जल्दी है। मैं बहुत दिनों तक यहां नहीं रह सकती।’

मैडम उठी और सामने पड़ी बड़ी वाली अटैची से एक काले रंग का थैला उठा लाई। थैला खोला, तो शंकु भौचक्क रह गई। हजार के नोटों से भरा हुआ। मैडम ने फौरन थैला अटैची में डाल दिया और शंकु के चेहरे को देख भांपती हुई बोली,‘चिंता ना कर, तेरे ही हैं, पूरे एक लाख!’

शंकु को देख मैडम समझ गई कि उसका लाख का तुरुप काम कर गया है। वह पलट कर बोली, ‘बस, दसवीं ऐसी हो कि मेरा काम बन जाए।’

टैम्पो का ड्राइवर सडक़ पर खड़ा हार्न बजाए जा रहा था। उसे लड़कियों को वापस ले जाने की जल्दी थी। इसके बाद उस सवारियां लेने स्टेशन भी जाना था। शंकु ने कुछ संकोच से कहा, ‘मैडम, ये कैसा दस का चक्कर डाल दिया आपने। अब कहां से लाऊं दसवीं लड़की?’

मैडम ने जैसे उसकी बात सुनी ही नहीं, ‘ये टैम्पो वाला क्यों दिमाग खाए जा रहा है? उसे दफा कर यहां से।’

शंकु टैम्पोवाले को पैसा दे कर उसे रवाना कर दिया। बैजन उसकी बेटी सोना को ब्यूटी पार्लर ले कर आया था। नीचे ही वो दोनों मिल गए। शंकु का चेहरा देख बैजन समझ गया कि अब भी बात हीं बनी है।

शंकु भाई के साथ मैडम के गेस्ट हाउस की सीढिय़ां चढ़ती बोली, ‘भाई, मैडम तो दस के बिना मान ही नहीं रही। वो भी उन्हें सही वाली चाहिए। अब तू बता, ऐसी लड़क़ी अपने गांव में कहां मिलेगी?’

बिना सोचे-समझे बैजन ने शंकु का हाथ पकड़ लिया, ‘दीदी, तू जाने दे। अब मैडम के पचड़े में मत पड़। मुझे सही नहीं लगता।’

शंकु ने एक झटके में भाई के हाथ पर एक मुक्का मारा और गुर्राई, ‘हमेशा अपशगुनी बातें करता है। मरदुआ, जब पैसे आते हैं, तो बड़ा अच्छा लगता है। दीदी ही तो चलाती है तेरा भी खर्चा। तब क्यों नहीं कहता कि दीदी जाने दे... ’

सोना पीछे-पीछे आ रही थी। बहुत संकोची थी। शंकु ही धकेल कर ब्यूटी पार्लर भेज देती कि ढंग के बाल बना ले, आइ ब्रोज नुचवा ले।

मैडम ने शंकु को देखते ही कुछ उत्साह से पूछा, ‘तो मिल गई तुझे दसवीं?’

‘अरे कहां मैडम जी? आपने भी अच्छी फांस लगा दी है।’

मैडम ने सोना की तरफ इशारा किया, शंकु तुरंत नकली हंसी हंसने लगी, ‘अरे मैडम, इसे नहीं पहचाना क्या? यह तो मेरी बेटी है सोना। इसकी शादी की बात बताई थी ना मैंने आपको!’

मैडम ध्यान से सोना को देखने लगी, फिर कुछ सोच कर बोली, ‘शादी में तो दिन हैं अभी। तब तक काम पर लगा दे, कुछ पैसे कमा लेगी।’

शंकु ने तुरंत बात पकड़ी, ‘इसको कमाने की क्या जरूरत है मैडम जी? सब कुछ है घर में, मैं भी काम कर ही रही हूं।’

‘शंकु, मुझे तो यही लड़की चाहिए। देगी तो बोल, नहीं तो निकल ले।’

शंकु अवाक रह गई। उसकी बेटी सोना शहर में जा कर काम करेगी? उसकी तो शादी होनी है अभी। उसे कुछ आता भी तो नहीं है। मैडम कह रही थी कि नेता के घर जाना है, विदेश घुमाएंगे, होटल में खाना खिलाएंगे। उसकी सोना दूसरी लड़कियों की तरह थोड़े ही ना है, उसे तो खुद को संभालना भी नहीं आता।

मैडम उसे कमरे में छोड़ वहां से उठ कर चली गई। बैजन के चेहरे पर उलझन थी और बुद्धुपना था। शंकु को पता था कि जो कुछ सोचना है, उसे ही सोचना और निर्णय लेना है। मैडम के पास रखा रुपयों से भरा काला बैग उसे इतनी तेजी से अपनी तरफ खींचने लगा कि वह भरभराकर चिल्ला ही उठी, ‘मैडम जी, आपने बताया नहीं कि लड़की को कब भेजना है? वह छह महीने में आ जाएगी ना?’

मैडम उसकी तरफ देख कर विचित्र ढंग से मुस्कराई, ‘क्यों तेरी बेटी शहर की हवा लगने से बच जाएगी क्या?’

शंकु खिल-खिल हंसने लगी। वक्त बहुत कम था, सोना को कोने में ले जा कर उसने समझाना शुरू किया, ‘लड़की, सुन, ये सब मैं तेरे वास्ते ही कर रही हूं। बस कुछ महीनों की बात है। ठीक से काम करना और ज्यादा फैसन बाजी मत करना। जो कहें, मालिक लोग उसका पालन करना। तुझे जो भी पैसे मिलेंगे, बचा कर  ले आना। तेरी शादी में काम आएंगे।’

सोना के चेहरे पर हवाइयां उडऩे लगीं, ‘अम्मा, हमसे नहीं होगा। हम नहीं जाएंगे सहर। हमें डर लगता है। हमें ना भेजा मां।’

शंकु ने उसे झिडक़ दिया, ‘पगली कहीं की। गांव की दूसरी लड़कियां भी तो जाती हैं, मजे से नौकरी करती हैं, फिर लौट आती हैं। मैं नहीं करती क्या काम? कुछ दिन कर ले बेटी, बाद में तेरे बड़े काम आएगा।’

‘ना मां, ना,’ सोना रोने लगी। मैडम तब तक अटैची से काला बैग निकाल कर ले आई थी। शंकु के हाथ में बैग रखती हुई बोली, ‘ले, तू भी क्या याद करेगी।’ सोना का हाथ पकड़ कर अपनी तरफ खींचती हुई बोली, ‘इसे मैं अपने साथ आज ही ले कर जा रही हूं। मिनिस्टर साब को बताया मैंने कि उनके लिए लक्ष्मी से भी बढिय़ा कैंडिडेट ला रही हूं। खुश हुए वो। बाकि लड़कियों को तैयार रखना। जाते ही सबके लिए टिकट भिजवा दूंगी। उन्हीं के हाथ अपनी बेटी के लिए कुछ कपड़े-लत्ते भिजवा देना। बाकि सब मैं दिलवा दूंगी।’

मैडम अपनी अटैची लगा चुकी थीं। एक हाथ से सोना को लगभग खींचते हुए वे गेस्ट हाउस के बाहर लगी जीप पर बैठ गईं। शंकु को समझ नहीं आया कि उसे इस बार अपने काम की सही कीमत मिली है कि कम...

मन में उथल-पुथल सी थी। सोना के जाने का गम बहुत देर तक नहीं रह पाया। बैजन की मोटरसाइकिल के पीछे जब काले बैग को कस कर पकड़े हुए बैठी, तो बस पैसे की गर्मी की तपिश से वह तरने लगी।

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