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जानें, सुधीर चौधरी को क्यों याद आया ये डायलॉग-मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता’

स्कूल में हमेशा से हमको यह पढ़ाया गया है कि परिश्रम का फल मीठा होता...

समाचार4मीडिया ब्यूरो 5 years ago

सुधीर चौधरी
वरिष्ठ पत्रकार।।

स्कूल में हमेशा से हमको यह पढ़ाया गया है कि परिश्रम का फल मीठा होता है, लेकिन राजनीति पाठ्यक्रम में वोटों का फल जहां मीठा होता है, वहां स्वाभिमान की सेल लगा दी जाती है। हमारे नेता जनता को मुफ्त के माल की लत लगवाते हैं  और लोग भी बिना मेहनत किए इन फेंके पैसों को उठा लेते हैं। हिंदी सिनेमा का एक मशहूर डायलॉग है, ‘मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता’। लेकिन इस डायलॉग और इसमें छिपे स्वाभिमान की मौत हो चुकी है। राजनीतिक दल और नेताओं ने इस कमजोर नब्ज को पकड़ लिया है।

कांग्रेस ने नया ट्रंप कार्ड खेला है। राहुल गांधी ने ये वादा किया है कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो वह 5 करोड़ गरीब परिवारों को 6 हज़ार रुपये प्रति महीना यानी 72000 रुपये प्रति साल की सहायता राशि देंगे। इस वादे से 1975 की फिल्म दीवार का यह डायलॉग याद आता है, जिसमें नायक कहता है कि मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता। ये स्वाभिमान, उस दौर के भारत की खासियत थी। दीवार फिल्म के दौर में युवा नौकरियों के लिए सड़कों पर भटक रहे थे। तब बेरोजगारी और गरीबी चरम पर थी। युवा निराश और क्रोधित थे। इंदिरा गांधी के खिलाफ नारेबाजी और विरोध हो रहे थे। इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया था। लेकिन उस दौर में भी स्वाभिमान नहीं खोया था।

वो एंग्री यंग मैन का दौर था। एंग्री यंग मैन मतलब है वह युवा जो गरीब तो था लेकिन उसूलों का पक्का था। बुराइयों और नाइंसाफी को लेकर उसमें गुस्सा था। लेकिन वह संघर्ष करना चाहता था। उसे मुफ्त का पैसा नहीं चाहिए था। लेकिन आज लोगों के वोट खरीद लिए जाते हैं। लोकतंत्र में वोट आत्मा और स्वाभिमान का प्रतिबिंब है। लेकिन एक किलो चावल, नकद पैसा और एक बोतल शराब ईमान पर भारी पड़ता है। लोग बेटिकट यात्रा करना चाहते हैं। कर्ज माफी चाहते हैं। मुफ्त बिजली और पानी चाहिए और यहां तक कि बिना पात्रता के सरकारी नौकरी भी चाहिए।

इस रिश्वत को राजनीतिक दल सामाजिक न्याय साबित करते हैं। राहुल गांधी की न्याय योजना का मतलब यह है कि चुपचाप अंधेरे में शराब और पैसा बांटकर चुनाव जीतने की कोशिश अब दिन के उजाले में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर वोटर के अकाउंट में पैसे डालने पर पहुंच गई है। राहुल गांधी ने मुफ्त का पैसा बांटने की योजना लाकर यह स्वीकार कर लिया कि उनके पास नौकरियां देने की ठोस नीति नहीं हैं। गरीबी हटाने का विजन नहीं है। यानी कांग्रेस के पास ऐसी योजना नहीं है कि लोग परिश्रम से पैसा कमाकर गरीबी के चक्रव्यूह से बाहर निकलें। लेकिन वह यह भूल गए कि मुफ्तखोरी के नशे से गरीबी नहीं मिटाई जा सकती।

योजना के लिए 3.6 लाख करोड़ रुपए की आवश्यकता होगी। ये रकम भारत के रक्षा बजट से करीब 40 हजार करोड़ रुपए, केंद्रीय शिक्षा बजट से 3.8 गुना और  केंद्रीय स्वास्थ्य बजट से 5.8 गुना ज्यादा है। जनवरी 2019 तक सरकार का राजकोषीय घाटा साढ़े सात लाख करोड़ रुपये से ज्यादा था। अब सवाल यह है कि राहुल गांधी योजना के लिए पैसा कहां से लाएंगे?

इसके 3 उपाय हो सकते हैं। पहला उपाय तो ये कि सरकार आमदनी बढ़ाए या खर्च कम करे। आमदनी का बड़ा जरिया टैक्स है। टैक्स बढ़ाने से आम जनता का नुकसान होगा और आर्थिक दबाव बढ़ जाएगा। दूसरा, सरकार खर्च कम करे।  अन्य सामाजिक योजनाओं के लिए जारी राशि और सब्सिडी खत्म करे। लेकिन इससे गरीबों को लाभ नहीं होगा क्योंकि उन्हें फायदा पहुंचा रही एक योजना को बंद कर दूसरी के जरिये नकद पैसा दिया जाएगा। तीसरा उपाय है कि सरकार कर्ज ले। लेकिन इससे राजकोषीय घाटा बढ़ेगा। लगातार ऐसा चला तो तमाम क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां भारत की आर्थिक रेटिंग्स घटा देंगी। इससे देश को बड़ा नुकसान होगा।

यानी योजना को जमीनी स्तर पर लागू करने में बहुत सारे किंतु- परंतु मौजूद हैं। राहुल गांधी ने कहा है कि वह योजना को पायलट प्रोजेक्ट की तरह लागू करेंगे। बाद में यह अलग-अलग चरणों में लोगों को लाभ पहुंचाएगी। यह लंबी प्रक्रिया लोगों को नाराज कर सकती है।

भारत के नेता सोचते हैं कि किसानों का कर्ज माफ कर या लोगों के बैंक अकाउंट में पैसा ट्रांसफर कर वोटों को खरीदा जा सकता है। लेकिन राष्ट्र निर्माण तभी होगा, जब वह किसानों और गरीबों को इतना सक्षम बना दे कि उन्हें कर्ज माफी की जरूरत ही न पड़े। वह खुद अपना कर्ज चुकाने में सक्षम हों। लेकिन नेताओं की समस्या यह है कि ऐसा हो गया तो सक्षम वोटर नेताओं से बड़े मुद्दों पर सवाल करने लगेंगे। राजनीतिक दलों को सस्ता उपाय यही लगता है कि सामाजिक न्याय के नाम पर पैसा फेंककर लोगों का वोट ख़रीद लिया जाए। ये स्कीम नेताओं के लिए तो अच्छी है, लेकिन यह देश के लिए मुफ्तखोरी के नशे की तरह है, जो लोकतंत्र को अंदर ही अंदर खोखला कर देगा। एक ना एक दिन हमें स्वाभिमान की इस सेल को रोकना ही होगा।

(साभार: दैनिक भास्कर)


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