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वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून बोले- 'आप' के संकट तीन हैं...
आप की राजनीति चूक गई, लेकिन आंदोलन की जमीन जस की तस है। तो क्या केजरीवाल-विश्वास के बीच दरार की वजह सिर्फ अमानतुल्ला थे...
समाचार4मीडिया ब्यूरो 7 years ago
‘आप के भीतर का झगड़ा सिर्फ चुनावी हार का झगड़ा भर नहीं है, बल्कि आंदोलन की राजनीतिक जमीन को गंवाना भी है, जिसके भरोसे आप को राजनीतिक साख मिली। वह खत्म हो चली है।’ अपने ब्लॉग (prasunbajpai.itzmyblog.com) के जरिए ये कहना है वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी का। उनका पूरा ब्लॉग आप यहां पढ़ सकते हैं:
सवाल जन-विश्वास का है ना कि केजरीवाल-कुमार विश्वास का
आप की राजनीति चूक गई, लेकिन आंदोलन की जमीन जस की तस है। तो क्या केजरीवाल-विश्वास के बीच दरार की वजह सिर्फ अमानतुल्ला थे और अब अमानतुल्ला को पार्टी से सस्पेंड कर दिया गया तो क्या केजरीवाल का विश्वास कुमार पर लौट आया। या फिर कुमार के भीतर केजरीवाल को लेकर विश्वास जाग गया, क्योंकि केजरीवाल से लंबी बैठक के बाद मनीष सिसोदिया के साथ खड़े होकर कुमार ने अपना विश्वास आप में लौटते हुये दिखाया जरुर। लेकिन आप के भीतर का संकट ना तो अमानतुल्ला है ना ही कुमार विश्वास का गु्स्सा, ना ही केजरीवाल की लीडरशिप, और ना ही आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला। आप के संकट तीन हैं। पहला, आप नेताओ को लगता है वही आंदोलन हैं। दूसरा, आंदोलन की तर्ज पर गवर्नेंस चलाने की इच्छा है। तीसरा, चुनावी जीत के लिये पार्टी संगठन का ताना-बाना बुनना है। यानी करप्शन और आंदोलन की बात कहते कहते कुमार विश्वास राजस्थान के प्रभारी बनकर महत्व पा गये।
यानी पारंपरिक राजनीतिक दल के पारपंरिक प्रभावी नेता का तमगा आप और कुमार विश्वास के साथ भी जुड़ गया। तो क्या आने वाले वक्त में कुमार की अगुवाई में आप राजस्थान जीत लेगी। यकीनन इस सवाल को दिल्ली के बाद ना तो पंजाब में मथा गया। ना गोवा में मथा गया। ना ही राजस्थान समेत किसी भी दूसरे राज्य में मथा जा रहा है। चूंकि आप के नेताओं को लगता है कि वही आंदोलन है। तो चुनाव को भी आप आंदोलन की तरह ना मान कर पारंपरिक लीक को ही अपना रही है।
तो बड़ा सवाल है, जनता डुप्लीकेट को क्यों जितायेगी और दिल्ली चुनाव के वक्त को याद कीजिए। 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी का परचम देश भर में कांग्रेस की सत्ता के खिलाफ लहराया, लेकिन दिल्ली में आप इसलिये जीत गई क्योंकि चुनाव आप नहीं आम जनता लड़ रही थी। आम जनता के भीतर पारंपरिक बीजेपी-कांग्रेस को लेकर सवाल थे। यानी आप में ठहराव आ गया। चुनावी जीत की रणनीति को ही जन-नीति मान लिया गया। सिस्टम से लड़ते हुये दिखना ही सिस्टम बदलने की कवायद मान लिया गया।
तो याद कीजिये आंदोलन की उस तस्वीर को। आप के नेता जनता को रामलीला मैदान में बुला नहीं रहे थे। जनता खुद ब खुद रामलीला मैदान में आ रही थी। यानी आंदोलन से विकल्प पैदा हो सकता है ये जनता ने सोचा। और विकल्प चुनाव लड़कर, जीत कर किया जा सकता है ये उम्मीद आप पार्टी बनाकर केजरीवाल ने जगाई। लेकिन चुनावी जीत के बाद के तौर तरीके उसी गवर्नेंस में खो गये, जिस गवर्नैंस में पद पर बैठकर खुद को सेवक मानना था। वीआईपी लाल बत्ती कल्चर को छोड़ना था। जन सरकार में खुद को तब्दील करना था, तो बदला कौन? जनता तो जस की तस है। आंदोलन के लिये जमीन भी बदली नहीं है। सिर्फ आंदोलन की पीठ पर सवार होने की सोच ने सत्ता की लड़ाई में हर किसी को फंसा दिया है। इसलिये चुनाव आप हार रही है। हार की खिस आंदोलन को परफ्यूम मान रही है। और केजरीवाल हो या कुमार विश्वास बार बार सत्ता की जमीं पर खड़े होकर आंदोलन का रोना रो रहे है।
तो फिर याद कीजिए 2011 में हो क्या रहा था। कोयला घोटाला, राडिया टेप, आदर्श घोटाला, 2 जी घोटाला, कामनवेल्थ घोटाला, कैश फॉर वोट, सत्यम घोटाला, एंथेक्स देवास घोटाला। यानी कांग्रेस के दौर के घोटालो ने रामलीला मैदान को रेडिमेड आंदोलन की जमीन दे दी थी। यानी लोगों में गुस्सा था। जनता विकल्प चाहती थी। तब बीजेपी लड़खड़ा रही थी और चुनावी राजनीति से इतर रामलीला मैदान बिना किसी नेता के आंदोलन में इसलिये बदल रहा था क्योंकि करप्शन चरम पर था। और तब की मनमोहन सरकार ही कटघरे में थी और मांग उच्च पदों पर बैठे विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के खिलाफ जनलोकपाल की नियुक्ति का सवाल था। तब रामलीला मैदान की भीड़ को नकारने वाली संसद भी झुकी और लोकपाल प्रस्ताव पास किया गया। तो हालात ने रामलीला मैदान के मंच पर बैठे लोगो को लीडर बना दिया और यही लीडरई आप बनाकर चुनाव जीत गई। लेकिन मौजूदा सच यही है लोकपाल की नियुक्ति अभी तक हुई नहीं है। रोजगार का सवाल लगातार बड़ा हो रहा है। महंगाई जस की तस है। कालाधन का सवाल वैसा ही है। किसी का नाम सामने आया नहीं। कश्मीर के हालत बिगड़े हुये हैं। किसानों की खुदकुशी कम हुई नहीं है। पाकिस्तान की नापाक हरकत लगातार जारी है।
यानी मुद्दे अपने अपने दायरे में सुलझे नहीं , लेकिन आप चुनाव जीतने के तरीकों को मथ रही है और मुद्दों के आसरे चुनाव जीतने की सोच में बीजेपी से आगे आज कौन हो सकता है। जिसके अध्यक्ष अमित शाह बूथ लेवल पर संगठन बना रहे हैं। अभी से 2019 की तैयारी में लग चुके हैं। अगले 90 दिनों में 225 लोकसभा सीट को कवर करेंगे। तो चुनाव जीतने की ही होड़ में जब आप भी जा घुसी है तो वह टिकेगी कहां और जनता-डुप्लीकेट को जितायेगी क्यों? यानी आप के भीतर का झगड़ा सिर्फ चुनावी हार का झगड़ा भर नहीं है, बल्कि आंदोलन की राजनीतिक जमीन को गंवाना भी है, जिसके भरोसे आप को राजनीतिक साख मिली। वह खत्म हो चली है। लेकिन समझना ये भी होगा कि देश में आंदोलन की जमीन जस की तस है। नया सवाल ये हो सकता है कि गैर चुनावी राजनीति से इतर किस मुद्दे पर नया आंदोलन कब कहां खड़ा होगा?
(साभार: prasunbajpai.itzmyblog.com)
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