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अजीत अंजुम की जुबानी- सतयुग, द्वापर, त्रैता, कलयुग से परे है ये कहानी

अजीत अंजुम मैनेजिंग एडिटर, इंडिया टीवी ।। इतिहास–पुराण और

समाचार4मीडिया ब्यूरो 7 years ago

अजीत अंजुम

मैनेजिंग एडिटर, इंडिया टीवी ।।

इतिहास–पुराण और परंपरा इस बात का गवाह है कि हर दौर में जमाने ने ऐसे ही बेटे को हीरो माना जिसने हर हाल में पिता की आकांक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं का सारथी बनकर काम किया है। पिता ने भले पितृधर्म का निर्वाह न किया हो लेकिन बेटे ने पुत्र धर्म का निर्वाह करने में कभी कोई कोताही न बरती हो। अगर पिता ने कभी बेटे के साथ नाइंसाफी, बेईमानी और बदसलूकी भी की तो बेटे ने झुककर कबूल किया हो। हर दौर में जमाने ने ऐसे ही बेटे को हीरो माना भले ही उसके पिता ने उस दौर में अपने बेटे के लिए विलेन जैसा काम भी किया हो, लेकिन पिता मुलायम सिंह यादव और पुत्र अखिलेश यादव की कहानी सतयुग, द्वापर, त्रैता से लेकर कलयुग तक की सभी कहानियों से अलग है।

बेटे ने बाप से बगावत की, बेटे ने बाप की सियासी जमीन को देखते–देखते उनके पैरों के नीचे से खींच लिया। बेटे ने बाप की बनाई उस पार्टी पर कब्जा कर लिया, जिसका एक-एक नेता और कार्यकर्ता कभी बाप के सामने सजदे किया करता था। बाप अपने बेटे से जूझता हुआ बेचारा और बेजार होकर घर बैठ गया और बेटे ने अपने बाप की पार्टी का सिंबल और झंडा लेकर यूपी विजय पर अश्वमेघ यात्रा पर निकलने का ऐलान कर दिया।

कोई और बेटा होता तो जमाने की नजर में वो विलेन होता और बाप के साथ सहानुभूतियों का अंबार... लेकिन यहां कहानी ठीक उलट है। जमाना बेटे के साथ है, बाप सबकुछ खोकर भी एकाकी है। बेटा अपने बाप का सब कुछ छीनकर जनता की नजर में हीरो है और बेटे से अपनी जिंदगी की सबसे बड़ी जंग हार कर भी बाप जनता की नजर में सहानूभूति का पात्र नहीं है। बाप को बेदखल करके उसकी सियासी जमीन पर अपने झंडे गाड़ने वाला बेटा अगर अखिलेश यादव की जगह कोई होता तो भी क्या ऐसा ही होता?

क्या बाप के बेचारेपन और लाचारी पर बेटे की महत्वाकांक्षा के खिलाफ लोगों में आक्रोश नहीं होता? शायद जरुर होता अगर बाप के तख्तापलट की इस सियासी दास्तान के किरदार मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव न होते। ...तो फिर अखिलेश यादव में ऐसा क्या खास है? क्यों ऐसा है कि महीनों तक अपने पिता की मंशा के खिलाफ खुल्लम खुल्ला लड़ने और खुलेआम बगावत के बावजूद अखिलेश यादव से किसी को गिला नहीं है।

बीते चार– पांच महीनों से परिवार के बीच चल रहा ये संघर्ष सड़क पर है। आरोप–प्रत्यारोप कैमरों के सामने लगाए गए हैं। बाप ने पहले बेटे के खिलाफ कार्रवाई की, फिर बेटे ने अपने समर्थक नेताओं और कार्यकर्ताओं की सभा बुलाकर बाप की कुर्सी पर कब्जा कर लिया, फिर बाप ने बेटे को पार्टी से निकाल दिया। दर्जनों बार सुलह–समझौते की नाकाम कोशिशों के बाद दोनों लड़ते-लड़ते चुनाव आयोग की चौखट तक पहुंचे। दोनों ने एक दूसरे को शिकस्त देने के सारे दांव चले लेकिन जीत आखिरकार बेटे की हुई।

हारा हुआ बाप अब घर बैठकर अपने चंद समर्थकों की लिस्ट बेटे के पास भिजवा रहा है। बेटे अपने बाप को अपना सबकुछ मानते–कहते हुए आशीर्वाद लेने जा रहा है। कुछ इस अंदाज में कि खून तो आपका ही हूं, पूजनीय हैं आप लेकिन पार्टी में वही होगा जो मैं करुंगा। बाप-बेटे के बीच जो कुछ हो रहा है, जमाना देख रहा है।

फिर भी अखिलेश से किसी को शिकायत नहीं... क्यों? मैंने बीते चार महीनों में सैकड़ों लोगों से बात की है और अब भी करता हूं। सब यही मानते हैं कि अखिलेश ने जो किया ठीक किया। बाप बेआबरू होकर बेटे से हार जाए फिर भी बेटे को जमाना दोषमुक्त मानकर उसके साथ हो बहुत बड़ी बात है। पांच साल मुख्यमंत्री रहे अखिलेश यादव ने आखिरी एक साल में जिस ढंग से अपनी पारिवारिक लड़ाई में एसर्ट किया और अपनी बात मनवाने के लिए अपने पिता के खिलाफ बागी तेवर अख्तियार किए, उससे उनकी छवि बिल्कुल अलग बनी है।

चार साल तक कहा जाता रहा कि यूपी में साढ़े पांच सीएम हैं, फिर साढ़े तीन सीएम की बात कही गई। हर इंटरव्यू में अखिलेश से इस बारे में सवाल किए गए।  वो हंसकर जवाब देते रहे लेकिन आखिरी साल में उन्होंने साबित कर दिया है कि पार्टी और सरकार चलाने के लिए अब वो पूरी तरह सक्षम हैं। वो अपनी मर्जी से बड़े फैसले लेना चाहते हैं।

चाचा-ताऊ और बापू की बात वो सुन तो सकते हैं लेकिन आंख मूंदकर उसपर अमल करके रबर स्टांप बने नहीं रह सकते। मौके की नजाकत का डर अगर उन्हें होता तो चुनाव के ऐन पहले वो हालात के सामने सरेंडर कर देते और बाबू–ताऊ से मिल-बांटकर टिकट बांटने और सत्ता में भागीदारी का कोई रास्ता निकला लेते।

लेकिन अखिलेश पूरी लड़ाई के दौरान न सिर्फ निडर दिखे बल्कि आत्मविश्वास से लबालब दिखे। जो होगा, देखा जाएगा वाले अंदाज में दिखे। कभी टीवी कैमरे के सामने बड़ी बड़ी डींगें हांकते या अपने पिता के खिलाफ अपमानजनक बातें करते नहीं दिखे। पिता के लिए दो शब्द भी बोले तो सम्मान की सारी रेखाओं के दायरे में रहकर बोले।

पिता ने अपने मुख्यमंत्री बेटे को पार्टी से निकाल दिया तब भी बेटे ने एक शब्द ऐसा नहीं बोला, जो पिता के सम्मान के खिलाफ जाए। हां , वो पूरी तैयारी के साथ पार्टी पर अपने कब्जे की लड़ाई को अंजाम देने में जुटे रहे। पिता के खिलाफ बिना एक शब्द बोले पार्टी को ‘कुछ लोगों’ से मुक्त कराने का बिगुल फूंकते रहे। आखिरकार हुआ वही, जो अखिलेश चाहते थे। एक चाचा के खिलाफ अखिलेश लड़ाई लड़ रहे थे और दूसरे चाचा के साथ मिलकर रणनीति तय कर रहे थे। ‘तीसरे चाचा’ ने मौका, माहौल लड़ाई का अंजाम देखकर खुद को नेप्थय में ले जाना ही बेहतर समझा। अब चंद कमजोर कंधों के अलावा करीब–करीब पूरी पार्टी अखिलेश यादव के साथ है।

घर-परिवार के जो चंद लोग साथ नहीं हैं, उनका भी इस अंतिम सत्य से साक्षात्कार हो गया है कि अब नेताजी की जगह बेटाजी का राज है। घर की लड़ाई जब चहारदीवारी से बाहर सड़क पर लड़ी जाने लगी तो यूपी में कहा जाने लगा कि अखिलेश यादव अब बीएसपी और बीजेपी से क्या लड़ पाएंगे, जब घर में लड़ते–लड़ते हलकान हो रहे हैं। बाप-बेटे और चाचा उम्मीदवार जब आपस में एक दूसरे की जड़ें खोदेंगे तो अखिलेश की चुनावी गोटी तो लाल होने से रही लेकिन चरखा दांव के पहलवान और अपने पिता मुलायम सिंह यादव और चाचा शिवपाल को हराकर अखिलेश यादव अब पूरे जोर–शोर से मैदान में हैं। रेस में सबसे तेज खिलाड़ी के तौर पर उतरते दिख रहे हैं। चुनाव में हार–जीत का फैसला तो जनता करेगी लेकिन अगर अखिलेश जीत गए तो उन्हें इतिहास के ऐसे किरदार के तौर पर जाना जाएगा, जिसकी कोई मिसाल नहीं।

पिता और चाचा को शिकस्त देकर अखिलेश यादव वो इक़बाल हासिल किया है जो चार साल सीएम रहते हासिल नहीं कर पाए थे। अब उनकी छवि ऐसे युवा नेता की बनी है जो अपनी साफ़-सुथरी छवि के साथ काम कहना चाहता है, ...जो अतीक और अफ़जाल जैसे माफ़िया और बाहुबलि नेताओं को पास फटकने नहीं देना चाहता है, ...जो विकास के रास्ते पर अपनी साइकिल दौड़ाना चाहता है, ...जो अपने बुज़ुर्ग पिता का सम्मान करते हुए फ़ैसले का अधिकार चाहता है। जनता अखिलेश के इस कायांतरण को कितना क़बूल करती है, इसका पता तो नतीजों के बाद लगेगा लेकिन एक लड़ाई तो अखिलेश जीत चुके हैं, वो है सूबे की जनता की नज़र में इक़बाल क़ायम करने की लड़ाई।

बाप-बेटे के बीच जब ये लड़ाई सरेआम हुई थी तो लोगों ने कहा- ये नूरा-कुश्ती है। किसी ने कहा अपने बेटे को चाचा शिवपाल समेत परिवार के दुश्मनों की साजिशों के साये से बचाने और सूबे की सियासत में अपने वारिस के तौर पर स्थापित करने के लिए पूरी पटकथा खुद मुलायम ने लिखी है। लेकिन इस लड़ाई का अंजाम देखकर कम से कम ये तो नहीं कहा जा सकता कि मुलायम सिंह ने कोई नाटक तैयार किया और अखिलेश किरदार बनकर स्टेज पर थिरकते रहे।

(साभार: फेसुबक वॉल से)

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