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‘हम एक ऐसे ‘डिजिटल एरा’ में पहुंच चुके हैं, जहां...’
जातियों का विभाजन हमारे समाज के लिए विध्वंसक हो चला है...
समाचार4मीडिया ब्यूरो 6 years ago
अजय शुक्ल
चीफ एडिटर (मल्टीमीडिया), आईटीवी नेटवर्क ।।
जातिगत व्यवस्था स्वार्थ साधने का साधन
जातियों का विभाजन हमारे समाज के लिए विध्वंसक हो चला है। वैदिक काल की यह व्यवस्था जहां हमें शक्तिशाली और व्यवस्थित समाज बनाने में मदद करती थी, वहीं अब समाज को तोड़ने वाली बन रही है। सामाजिक व्यवस्था की यह विध्वंसक स्थिति क्यों हुई है, इस पर गहन चिंतन और सुधार की आवश्यकता है। वक्त रहते अगर हमने इसमें सुधार के लिए कदम नहीं उठाए तो यह सभ्य समाज, कब असभ्य बन जाएगा और पीढ़ियां इसको भुगतेंगी। लोग एक दूसरे को मारने काटने लगेंगे और ऐसा संघर्ष जन्म लेगा जो भारतीय व्यवस्था, संवैधानिक एवं कानून को नष्ट भ्रष्ट कर देगा। हमें इसको लेकर ज्यादा सजग और संजीदा होने की आवश्यकता है क्योंकि अब हम ‘डिजिटल एरा’ में पहुंच चुके हैं। छोटी सी घटना भी चंद मिनटों में विश्वभर में फैल जाती है, जो नकारात्मक और सकारात्मक दोनों ही प्रभाव छोड़ती है।
आप सोचेंगे कि हम अचानक जातिगत व्यवस्था पर चर्चा क्यों करने लगे तो बताते चलें कि अब देश चुनावी मोड में बढ़ने लगा है। लोकसभा चुनाव की आहट का असर यह हुआ कि भाजपा के पिछड़ा वर्ग मोर्चा ने लखनऊ में बघेल जाति का सम्मेलन बुला लिया और उपमुख्यमंत्री सहित तमाम मंत्रीगण हिमायती बनकर पहुंच गए। वहां बहुत सी ऐसी बातें बोली गईं, जो किसी भी संवैधानिक दायित्वों का निर्वाहन करने वाले के लिए शर्मनाक मानी जाती हैं। समाज के विकास से ज्यादा समाजों को विभाजित करने वाले भाषण दिए गए। आप जानते हैं कि कुछ महीने पहले देश भर में कथित दलित आंदोलन के नाम पर आगजनी और हत्याएं की गई थीं। वजह सिर्फ यह थी कि सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि अनुसूचित जाति समाज के लोगों द्वारा दर्ज कराई गई एफआईआर में गिरफ्तारी बगैर जांच नहीं होनी चाहिए। जांच में अगर कोई दोषी है तो गिरफ्तार करने में कोई आपत्ति नहीं थी, मगर वोट बैंक हासिल करने के लिए ऐसा माहौल बनाया गया कि जैसे दलितों का सब कुछ छिन गया हो। सत्ता पर काबिज सियासी दल ने निहित स्वार्थों के लिए सुप्रीम कोर्ट और नैसार्गिक न्याय के सिद्धांत के खिलाफ संविधान संशोधन कर दिया, जिससे निर्दोष भी कम से कम छह माह तक जेल में सड़ेगा।
हम भारतीय इतिहास पर गौर करें तो पाएंगे कि श्रम और व्यवसाय को व्यवस्थित करने के लिए वर्ण व्यवस्था की गई थीं। सभी वर्णों के लोगों का जन्म हमारे मनीषियों से होना पाया जाता है। ऋग्वेद कहता है कि जन्म से हर व्यक्ति शूद्र होता है और अपने संस्कारों के जरिए वर्ण का निर्माण करता है। इससे यह स्पष्ट है कि कोई भी व्यक्ति जन्मतः श्रेष्ठ या निम्न नहीं होता। कालांतर में यह वर्ण व्यवसाय के आधार पर जाति व्यवस्था में बदले तब तक कोई संकट नहीं था, मगर जब तत्कालीन राजा मनु ने इसे राजनीतिक शस्त्र बनाया तब संकट गहराने लगा। कुछ जातियां स्वयं को सर्वश्रेष्ठ और कुछ निम्नतम समझने लगीं। यह चूंकि योग्यता पर अधिक आधारित था तो कोई नकारात्मकता नहीं आई, बल्कि उच्च जातियां निम्न जातियों की पोषक बनीं। कुछ सौ सालों के दौरान जातिगत व्यवस्था ने विकृत रूप धारण कर लिया। उच्च जातियों ने निम्न जातियों को अपने उपभोग तथा सेवक के रूप में मानना शुरू कर दिया। छूत-अछूत का चलन शुरू हुआ तब जातिगत संघर्ष भी होने लगे। नतीजतन हालात बद से बदतर होने लगे।
हम कथित रूप से जितना सभ्य समाज बनने की दिशा में आगे बढ़ रहे थे उससे अधिक असभ्य भी हो रहे थे। बिगड़ती सामाजिक तस्वीर को सुधारने के लिए कई सामाजिक आंदोलनों ने जन्म लिया। राजा राम मोहन राय, राजा कोल्हापुर, महात्मा गांधी जैसे लोगों ने जातिगत व्यवस्था खत्म करने की दिशा में न केवल कदम उठाए बल्कि संघर्षों का सामना भी किया। निहित सियासी फायदे की ताक में बैठे नेताओं ने इस आधार पर अपनी राजनीति चमकाने के लिए कदम उठाने शुरू कर दिए। जब देश में स्वशासन की मांग उठी तब कुछ नेताओं ने जाति के आधार पर निर्वाचन कराने की मांग रख दी। अंग्रेजी हुकूमत से आजादी की लड़ाई के जुनून में जाति के आधार पर विभाजन किसी ने नहीं स्वीकारा तब देश की आजादी के बाद हुई कोशिश भी नाकाम रही। किसी के साथ भेदभाव न हो इसकी व्यवस्था संविधान के अनुच्छेद 17 में की गई। अनुसूचित जाति के लोगों को बेहतर अवसर देने के लिए उन्हें संवैधानिक संरक्षण और आरक्षण भी दिया गया। यहां तक तो सब ठीक था मगर जब इस संवैधानिक व्यवस्था का सियासी फायदे के लिए इस्तेमाल होने लगा और जातिगत नेता विधाता बनकर सामने आए तब हालात बिगड़े। तत्कालीन सरकारें इनके आगे नहीं झुकीं मगर जब 1977 में जनता पार्टी सरकार बनी तो उसने सबसे बड़ा जातीय सियासी कार्ड ‘मंडल आयोग’ के नाम का खेला जिसे पुनः 1989 में बदली जनता दल सरकार ने अमली जामा पहनाया और जातिगत आरक्षण सीमा 49 फीसदी से अधिक हो गई। इस सियासी कार्ड ने सत्ता के मायने बदल दिए।
देश के सभी सियासी दल समझ चुके हैं कि भारत में सत्ता पाने का सबसे आसान तरीका जातिगत आधार पर विभाजन और टकराव ही है। जाति-धर्म के नाम पर होने वाले विवादों ने राज्यों में छोटे छोटे क्षत्रप पैदा कर दिए। हालात इस स्थिति में पहुंचे कि इतने जातिगत संगठन बनकर खड़े हो गए हैं कि वह सामाजिक सद्भाव नहीं बल्कि सामाजिक विघटन को जन्म देने लगे हैं। जो सियासी दल जाति-धर्म विहीन सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था के नाम पर खड़े हुए थे, वह भी अब पिछले वालों से अधिक बड़े जाति और धर्म के सियासी कार्ड खेल रहे हैं। इस खेल में कोई जीते या हारे फर्क नहीं पड़ता क्योंकि सभी को सत्ता चाहिए, चाहे उसके लिए किसी का भी खून बहे।
चुनावी साल है हर दल जातियों को अपने नफे नुकसान से तोलेगा और जातिवादी मानसिकता से ग्रसित समाज के लोग अपने तथा देश के भविष्य को दरकिनार करके उसे वोट देंगे। यही होता रहा तो वह दिन दूर नहीं है जब ये जातियां आपस में खूनी खेल खेलेंगी और सामाजिक तानाबाना टूट जाएगा। वक्त रहते हम सजग हों और इस बहकावे से दूर गुण दोष के आधार पर समीक्षा करें न कि सियासी लोगों के जाल में फंसे। सरकार को भी जातिविहीन समान सामाजिक व्यवस्था बनाने की दिशा में काम करना चाहिए न कि पद लोलुपता में गलत कानून बनाने चाहिए।
टैग्स अजय शुक्ल जातिवाद