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'2022 आते-आते किसान की हालत सुधरने के बजाय बिगड़ना तय है'
केंद्र सरकार ने किसानों की आर्थिक दशा सुधारने के लिए उसकी उपज का वाजिब मूल्य दिलाने...
समाचार4मीडिया ब्यूरो 6 years ago
अजय शुक्ल
चीफ एडिटर (नॉर्थ इंडिया), इंडिया न्यूज ब्रॉडकास्टिंग कंपनी
किसानों के आधार को मजबूत करे सरकार ।।
केंद्र सरकार ने किसानों की आर्थिक दशा सुधारने के लिए उसकी उपज का वाजिब मूल्य दिलाने की पहल न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बढ़ाकर की है। यह देर से उठाया गया एक सही कदम है मगर इसे चुनावी प्रलोभन के तौर पर देखा जा रहा है। अच्छा होता कि सरकार बनते ही इस दिशा में काम किया जाता क्योंकि स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू करवाने को लेकर तत्कालीन कांग्रेस सरकार को भाजपा पिछले कई सालों से घेरती चली आ रही थी। सरकार को इसके लिए व्यवस्था करनी थी न कि कोई अन्य रिपोर्ट बनवानी थी, दुर्भाग्य से ऐसा नहीं किया गया। अब तक स्वामीनाथन रिपोर्ट जीन में बंद है और उसे लागू करवाने की लड़ाई लड़ने वाले खामोश सत्ता का सुख भोग रहे हैं।
हमारे देश में औसतन हर साल 12 हजार से अधिक किसान आत्महत्या कर लेते हैं। यह संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। अपनी किरकिरी से बचने के लिए 2016 से केंद्र सरकार ने किसानों की आत्महत्या का डाटा तैयार करना बंद कर दिया। यह बात संसद में किसानों की आत्महत्या और दिन ब दिन बिगड़ती हालत को लेकर पूछे गए एक सवाल के जवाब मे बताई गई। सरकार ने यह भी माना कि जो सर्वे विभिन्न संगठनों ने किए हैं उनके मुताबिक रोजाना करीब ढाई हजार किसान कृषि व्यवसाय को छोड़ रहे हैं। इसके पीछे एक नही बल्कि कई कारण हैं। केद्र सरकार ने किसानों से वादा किया था कि वह उनकी आय दोगुनी कर देंगे। सरकार ने उस दिशा में कदम आगे बढ़ाये हैं मगर यह भी सच है कि किसान की उपज की लागत भी 2014 के मुकाबले चार साल में दोगुनी हो चुकी है और 2022 आते आते चार गुनी हो जाएगी। इससे किसान की हालत सुधरने के बजाय बिगड़ना तय है।
हम आगरा क्षेत्र के आलू किसानों से मिलने निकले तो दुखद हालात सामने आए जिनका जिक्र करना चाहूंगा। राज्य सरकार ने जो एमएसपी तय किया था, उस पर किसी भी सरकारी खरीद केंद्र में कोई खरीददारी नहीं हुई। किसानों को किसी न किसी बहाने उनके उत्पाद के लिए नीचा जरूर दिखाया गया। किसान नेता कप्तान सिंह चाहर और धर्मपाल सिंह से इस दौरान मुलाकात हुई तो उन्होंने कहा कि सरकार के सिर्फ एमएसपी तय कर देने मात्र से कुछ नहीं होने वाला। सरकारी मुलाजिम तभी उत्पाद खरीदते हैं जब उनको फायदा होता है। मजबूरन किसान को आढ़ती और दलालों का सहारा लेना पड़ता है। कोल्ड स्टोर संचालक अतुल गुप्ता कहते हैं कि उनका स्टोर आलू से पटा है मगर किसान माल उठाने नहीं आ रहा क्योंकि किराया इतना हो चुका है कि उसको आलू की कीमत नहीं मिल सकती। ऐसे में हमें आलू रखवाई और ढुलाई का खर्च अपने पल्ले से देना पड़ रहा है। मजबूरन हम भी कोल्ड स्टोर बंद करने पर विचार कर रहे हैं।
समस्या कहां है? यह एक यक्ष प्रश्न बनकर खड़ा है। असल में जरूरत किसानों की मूल दशा को सुधारने की है। उन्हें अनुदान देने के बजाय उनके लिए संसाधनों का मूलभूत ढांचा तैयार करने की आवश्यकता है। आज भी देश की 50 फीसदी से अधिक आबादी कृषि के व्यवसाय से जुड़ी है। उसकी उपज की कीमत दिलाने के लिए सरकार ने 15 हजार करोड़ की व्यवस्था की जो ऊंट के मुंह में जीरा है। अगर सरकार कृषि को नियोजित तरीके से करने और उत्पाद के लिए बाजार गांव में ही उपलब्ध कराने की व्यवस्था करे तो अनुदान और मदद की जरूरत ही नहीं रहेगी। वक्त पर किसान को बीज, उर्वरक और कीटनाशक पंचायत स्तर पर ही उपलब्ध हो जाएं। सरपंच और ग्राम विकास अधिकारी सहित जिला अधिकारी की एसीआर में इसका जिक्र करने की व्यवस्था हो तभी बात बनेगी। उनकी जवाबदेही तय होना आवश्यक है।
केंद्र और राज्य सरकार के स्तर पर कृषि उत्पाद के उठान और उसके बाजारी मूल्य का भुगतान करवाने के लिए कारपोरेट स्तर पर सामंजस्य बनाया जाए। किसान के खेत पर ही उत्पादन सामग्री और उत्पाद का बाजार मिले। किसान की मजदूरी, डीजल, बिजली और सिंचाई की लागत के बाद क्या फायदा दिया जा सकता है यह तय करते हुए दाम मिलें। दो रुपए का आलू खरीदकर 10 रुपए में बेचने वाले बिचौलियों की बजाय पांच रुपए का आलू सरकारी-कॉरपोरेट गठजोड़ के जरिए खरीदा जाए। अगर ऐसा होगा तो न किसान भिखारी रहेगा और न बिचौलिया मालामाल। किसान से लेकर उपभोक्ता तक सभी फायदे में होंगे। सरकार जब हमसे किसान सेस वसूल रही है तो उस धन से किसान को मुफ्त में बीज, सिंचाई, खाद और बाजार उपलब्ध करवा सकती है। उपज से सरकार और कंपनियां फायदा उठा सकती हैं जो उनकी आय बढ़ाने वाला होगा। कृषि बीमा की फीस सरकार उस फायदे से अदा करे जो वह कृषि से कमाए। जब तक ऐसा नहीं होगा किसान की दशा नहीं सुधरेगी। एमएसपी सिर्फ चुनावी स्टंट ही समझे जाएंगे। जरूरत है कि सही दिशा में सार्थक कदम तत्काल बढ़ाए जाएं, न कि किसान को भिखारी बनाकर भीख देने के चुनावी खेल खेले जाएं। किसानी सम्मान का व्यवसाय बने न कि दुखद कहानी।
(साभार: आज समाज)
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