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'बुरा जो देखन चला, हमसे अच्छा ना कोई'

अपनी कमियां, बुराईयां देखना उचित है, लेकिन अपनी अच्छाई...

समाचार4मीडिया ब्यूरो 6 years ago

आलोक मेहता

वरिष्ठ पत्रकार ।।

बुरा जो देखन चला, हमसे अच्छा ना कोई

अपनी कमियां, बुराईयां देखना उचित है, लेकिन अपनी अच्छाई या देश-दुनिया को देख-समझ सफलता के रस्ते बढ़ते रहने से संतोष एवं गौरव करना भी आवश्यक है। इस मुद्दे को राजनीतिक सत्ता के प्रति लगाव या समर्पण की तरह भी नहीं देखा जाना चाहिए। शुतुरमुर्ग की तरह दायरा सीमित रखना अवश्य अनुचित है। दिल्ली, मुंबई या लंदन में अपने मित्र-परिजन से बात करते समय ऐसा लगता है की सबकुछ गड़बड़ है।

भारत कहां जा रहा है और आगे पता नहीं कितनी अस्थिरता, अराजकता आ सकती है या लोकतंत्र को ही खतरा पैदा हो जाएगा और एकदलीय, एकछत्र सत्ता व्यवस्था से क्या समाज ही बदल जाएगा? लेकिन भारत की दशा-दिशा पर आक्रोश, रुदन या अट्टहास करने से से पहले प्रगति की दौड़ में आगे दिखते रहे संपन्न कहे जाने वाले लोकतांत्रिक देशों की स्थिति की एक झलक समझने का कष्ट अवश्य कर लें। तीन सौ वर्षों तक भारत पर राज करने के अलावा आधी दुनिया पर अपना झंडा फहराते रहने वाले ‘ग्रेट’ ब्रिटेन की राजनीति, सामाजिक स्थिति पर नजर डालें। सबसे पहले इस बात पर खुश हो सकते हैं कि लंदन में केवल चार दशक पहले भारतीयों को दोयम दर्जे के नागरिक की तरह दयनीय दृष्टि से देखा जाता था, वहां अब बाजार, बैंकिंग, चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में भारतीयों का वर्चस्व है। ब्रिटन के सर्वाधिक संपन्न व्यापारिक परिवारों में भारतीय मूल का परिवार शीर्षस्थ स्थान पर है। देश में सैकड़ों रेस्तरां खुल गए हैं और अंग्रेज साहब बहादुर भारतीय शैली के भोजन के लिए कई रेस्तरां में लाइन लगाये खड़े दिखते हैं।

दूसरी तरफ ब्रिटेन की सत्ता व्यवस्था भारत से कहीं अधिक विवादों, संकट और अस्थिरता की हालत में दिखाई देती है। पांच साल पहले उसकी ऐसी स्थिति नहीं थी। यूरोपीय समुदाय से अलग होने को लेकर पहले जनमत संग्रह और फिर संसदीय चुनाव के बाद सरकार, संसद और समाज बुरी तरह बेचैन है। उन्हें समझ ही नहीं आ रहा कि वे किधर जाएं? ब्रिटेन की पुरानी असली-नकली मूंछों वाले अहंकार से बहुमत ने यूरोपीय समुदाय होने का फैसला कर लिया। लेकिन कुछ ही महीनों में पक्ष-विपक्ष के सांसदों और मतदाताओं का दिल-दिमाग डोल गया है। अर्थव्यवस्था में ठहराव आ गया है। कंपनियों में छंटनी के साथ बेरोजगारी के खतरे बढ़ते जा रहे हैं। यूरोपीय समुदाय से पूरी तरह रिश्ता तोड़ने की वार्ताएं उलझती गई हैं। 10, डाउनिंग स्ट्रीट(प्रधानमंत्री कार्यालय) की चमक फीकी पड़ चुकी है। जिस सिंहासन पर आयरन लेडी मारग्रेट थ्रेचर करीब दो दशकों तक राज करती रहीं, वहां वर्तमान प्रधानमंत्री थेरेसा मेय की सत्ता दो साल में ही लड़खड़ा गई। एक तरफ यूरोपीय कम्पनियों द्वारा बिस्तर बाँधने का दबाव है, दूसरी तरफ समाज के एक वर्ग में फिर से जनमत संग्रह करवाकर यूरोपीय समुदाय में बने रहने की मांग उठ रही है। पहले रूस से तनाव चल रहा था, अब अमेरिका के अर्द्ध तुगलकी के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प से आर्थिक और सामाजिक संबंधों पर धमकियां मिल रही हैं।

ब्रिटेन की हेकड़ी निकालने में अग्रणी रही जर्मनी की चांसलर मेरकेल अपने देश में विस्थापितों के प्रवेश को लेकर गंभीर संकट में फंसी हुई हैं। वह यूरोपीय समुदाय का नेतृत्व करती रही हैं। पिछले दस वर्षों से जर्मनी की अर्थव्यवस्था यूरोप में सर्वाधिक अच्छी और स्थिर मानी जा रही है। लेकिन पिछले दो वर्षों से उनका सिंहासन हिल रहा है। गठबंधन की सरकार चलाने के लिए सहयोगियों से समझौते करने पड़ रहे हैं। विस्थापितों को प्रवेश की छूट के मुद्दे पर प्रतिपक्ष ही नहीं सत्तारूढ़ नेताओं की नाराजगी झेलनी पड़ रही है। पड़ोसी फ्रांस के ‘कल के छोकरे’ आंखें दिखा रहे हैं। इससे अर्थव्यवस्था पर भी असर पड़ रहा है। एकीकरण के तीस वर्ष हो जाने के बावजूद पूर्वी जर्मनी का एक वर्ग साम्यवादी ढरें वाली रियायतें लाभ पाने के लिए दबाव बनाए रखती हैं। वहीं दक्षिण जर्मनी के कट्टरपंथियों का दबाव नींद हराम किये रहता है।

यूरोप के दूसरे शक्तिशाली देश फ्रांस ने सबसे युवा प्रधानमंत्री मेकरोन को चुन तो लिया, लेकिन श्रम आन्दोलनों की परंपरा नहीं छोड़ी है। कभी हड़ताल तो कभी प्रदर्शन। फिर पिछले वर्षों के दौरान सर्वाधिक आतंकवादी हमलों ने फ़्रांसीसी सरकार और समाज को एक हद तक हिलाकर रखा हुआ है। यूरोप ही नहीं उन्हें अफ्रीकी संबंधों के सुख-दुःख भी झेलने पड़ रहे है। आंदोलनों का आलम यह भी है कि यूरोप में सर्वाधिक मांस की खपत वाले देश में मांस विरोधी तथा शाकाहार समर्थन में आ खड़े आंदोलन से बड़ी कम्पनियां एवं सरकार परेशान हैं। यों मेकरोन को यूरोपीय सामुदाय का नेतृत्व मिलने के आसार दिख रहे हैं, लेकिन यह कांटों का ताज बन चुका है। ब्रिटेन, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, इटली के तेवरों से यूरोपीय समुदाय का ढांचा भी चरमरा रहा है। ब्रिटेन ने तो प्रारंभ से ही एक यूरोपीय मुद्रा ‘यूरो’ को नहीं स्वीकार था और अपनी मुद्रा के ताकत की पहचान बनाये रखी। अब तो कुछ अन्य देश भी ‘यूरो’ से पिंड छुड़ाने का दबाव बना रहे हैं।

इस अभियान में इटली अग्रणी है। यूरोप में इटली भी रोमन साम्राज्य की पृष्ठभूमि वाला प्रभावशाली देश रहा है। लेकिन पिछले तीन-चार दशकों में इटली की राजनीतिक सत्ता बड़े उतार-चढाव देखे हैं। ‘गॉड फादर माफिया’ की छवि अवश्य बदली है, लेकिन प्रधानमंत्री गंभीर विवादों में फंसते और हटते रहे हैं। उनके भ्रष्टाचार और रंगीनियों के किस्से मुग़ल सम्राटों की रंगीनियों को मात करने वाले थे। बहरहाल, राजनीतिक अस्थिरता का आलम यह है कि इस साल मार्च में आम चुनाव हुए और तीन महीने में फिर चुनाव की नौबत आ गई है। जुलाई के चुनाव में विजयी होने वाले प्रधानमंत्री को भी आतंरिक समस्याओं से निपटने के साथ यूरोपीय समुदाय के साथ रहने या अलग हो जाने की चुनौतियों का सामना करना होगा।

यूरोप की इस झलक के साथ रूस, चीन, अमेरिका, पश्चिम और पूर्वी एशिया की समस्याओं के विस्तार में फिलहाल जाना जरूरी नहीं है। कहीं अधिक राजनीतिक संकट है, तो कहीं युद्ध की बमबारियों से जनता त्रस्त है। अब तो कृपया अपने प्यारे हिन्दुस्तान की स्थिति पर संतोष तथा गौरव महसूस कर लीजिये। 15 वर्षों के दौरान सरकारें टिकी रहीं। कोई राजनीतिक भूचाल नहीं आया। 2014 के चुनाव में भारी बहुमत से नई सरकार बनी और सारी कठिनाइयों, समस्याओं और चुनौतियों के बावजूद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सत्ता पर कोई आंच नहीं आई। देश-दुनिया में उनका डंका बजता रहा है। नोटबंदी के बावजूद राज्य विधानसभाओं के अधिकांश चुनावों में उनकी भारतीय जनता पार्टी विजयी हुई। जीएसटी की दूसरी आर्थिक क्रांति पर अब भी एक वर्ग आंसू बहा रहा है, लेकिन सरकारी खजाने की आमदनी तिगुनी होने से चुनावी वर्ष में उन्हें गावों, किसानों और शहरों को भी सजाने-संवारने और रियायतें बांटने में सुविधा हुई है। लोकतंत्र में असहमति और विरोध आवश्यक है। इसी तरह कश्मीर में आतंकवादियों या कुछ राज्यों मदे कट्टरपंथियों के उन्माद एवं हिंसा से सरकार और देश की बदनामी हुई है। लेकिन दुनिया के अन्य लोकतांत्रिक देशों से तुलना करेंगे तो हमारे हिन्दुस्तान से बेहतर कोई नहीं दिखेगा। निश्चित रूप से एकतंत्रीय चीन से आर्थिक मोर्चे पर हम कमजोर हो सकते हैं। लेकिन पंचायत से संसद तक की ताकत, सहमति-असहमति, समस्याओं और वहीँ उत्सव-खुशहाली, युवा उत्साह और नई आशाएं लोकतंत्र को मजबूत कर रही हैं। 

 

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