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डॉ. वैदिक का बड़ा सवाल, अमेरिका के सैनिक अड्डों की भारत को कौनसी जरुरत पड़ेगी?

भारत और अमेरिका के रक्षामंत्रियों के बीच जो रक्षा-सहमति हुई है, वह स्वागत योग्य है। एक तथ्य पर किसी ने यह ध्यान नहीं दिया कि भारत के सैनिक अड्डों की जरुरत तो अमेरिका को आए दिन पड़ सकती है लेकिन अमेरिका के सैनिक अड्डों की भारत को कौनसी जरुरत पड़ेगी? भारत न तो किसी पश्चिमी एशियाई, न ही यूरोपीय और न ही किसी लातीनी अमेरिकी राष्ट्र के खिलाफ कोई कार्रवाई

समाचार4मीडिया ब्यूरो 8 years ago

भारत और अमेरिका के रक्षामंत्रियों के बीच जो रक्षा-सहमति हुई है, वह स्वागत योग्य है। एक तथ्य पर किसी ने यह ध्यान नहीं दिया कि भारत के सैनिक अड्डों की जरुरत तो अमेरिका को आए दिन पड़ सकती है लेकिन अमेरिका के सैनिक अड्डों की भारत को कौनसी जरुरत पड़ेगी? भारत न तो किसी पश्चिमी एशियाई, न ही यूरोपीय और न ही किसी लातीनी अमेरिकी राष्ट्र के खिलाफ कोई कार्रवाई करने वाला है। ये महाद्वीप उसके प्रभाव क्षेत्र के बाहर हैं। दूसरे शब्दों में इस समझौते का अगर कोई फायदा होने वाला है तो वह अमेरिका का ही ज्यादा होगा। इस अहम बिंदु को उठाया है वरिष्ठ पत्रकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक ने। आप हिंदी दैनिक अखबार ‘नया इंडिया’ में इस संदर्भ में उनका एक आलेख  प्रकाशित हुआ है, जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं: भारत और अमेरिका के रक्षामंत्रियों के बीच जो रक्षा-सहमति हुई है, वह स्वागत योग्य है। रक्षा-सहमति यह हुई है कि दोनों राष्ट्र एक-दूसरे की फौजों को अपने यहां ईंधन लेने, रुकने और मरम्मत आदि की सुविधा प्रदान कर सकेंगे। यह स्पष्ट है कि दोनों सेनाएं किसी संयुक्त सैन्य-अभियान में हिस्सेदारी नहीं करेंगी और न ही वे संयुक्त-पहरेदारी करेंगी। लेकिन दोनों राष्ट्र के फौजी अड्डे एक-दूसरे के लिए खुले रहेंगे। इस समझौते से न तो भारत की संप्रभुता घटती है और न ही इसका अर्थ यह है कि भारत, अमेरिकी सामरिक छाते के नीचे आकर बैठ गया है। यहां दोनों राष्ट्र का व्यवहार परस्पर बराबरी का रहेगा। हां, एक तथ्य पर किसी ने यह ध्यान नहीं दिया कि भारत के सैनिक अड्डों की जरुरत तो अमेरिका को आए दिन पड़ सकती है लेकिन अमेरिका के सैनिक अड्डों की भारत को कौनसी जरुरत पड़ेगी? भारत न तो किसी पश्चिमी एशियाई, न ही यूरोपीय और न ही किसी लातीनी अमेरिकी राष्ट्र के खिलाफ कोई कार्रवाई करने वाला है। ये महाद्वीप उसके प्रभाव क्षेत्र के बाहर हैं। दूसरे शब्दों में इस समझौते का अगर कोई फायदा होने वाला है तो वह अमेरिका का ही ज्यादा होगा। फिर भी इसी तरह के दो अन्य समझौतों पर सहमत होने में कोई बुराई नहीं है। कांग्रेस सरकार ने परमाणु-सौदा जैसा नाजुक सौदा तो अमेरिका से कर लिया लेकिन उसने बुनियादी सैन्य सहयोग के इन तीन समझौतों को 10 साल तक अधर में लटकाए रखा। भाजपा तो अटल बिहारी वाजपेयी के जमाने से भारत-अमेरिका रक्षा-सहयोग बढ़ाना चाहती थी। मोदी सरकार ने इस मुद्दे पर साहसपूर्ण कदम उठाया है। भारतीय विदेश नीति को गुट-निरपेक्षता की पुरानी जकड़न में से निकलना होगा। राष्ट्रहित रक्षा के लिए लचीली नीति बनानी होगी। अमेरिका के साथ यह समझौता इसलिए भी होना चाहिए था कि हिंद महासागर में, जो कि भारत का प्रभाव-क्षेत्र है, चीन की महत्वाकांक्षाएं काफी बढ़ रही हैं। वह पड़ौसी देशों में अपने सैन्य-अड्डे भी स्थापित करना चाह रहा है। भारत को चीन से दुश्मनी मोल नहीं लेना है लेकिन सावधान तो रहना ही है। अमेरिका से सामरिक रिश्ते घनिष्ट बनाने का अर्थ यह नहीं है कि भारत अपनी संप्रभुता घटा लेगा। भारत कोई ताइवान, मालदीव, कुवैत या पाकिस्तान नहीं है, जिसे अमेरिका अपनी उंगलियों पर नचा सके। भारत स्वयं महाशक्ति है। उसे किसी अन्य महाशक्ति से सहयोग करने में कोई संकोच क्यों होना चाहिए? साभार: नया इंडिया


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