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बड़े-बड़े अखबार-टीवी चैनल आजकल साष्टांग दंडवत की मुद्रा में हैं : डॉ. वैदिक

22 तारीख यानी गुरुवार को दिल्ली के प्रेस क्लब में पत्रकारों का बड़ा जमावड़ा हुआ। कुछ दिन पहले एनडीटीवी के सिलसिले में भी हुआ था

समाचार4मीडिया ब्यूरो 7 years ago

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

वरिष्ठ पत्रकार ।।

पत्रकारों की आज़ादी और साख

22 तारीख यानी गुरुवार को दिल्ली के प्रेस क्लब में पत्रकारों का बड़ा जमावड़ा हुआ। कुछ दिन पहले एनडीटीवी के सिलसिले में भी हुआ था। मैंने ऐसा जमावड़ा पूरे 42 साल पहले यहां देखा था। 26 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा हुई थी और उसके दो-तीन दिन बाद ही श्री कुलदीप नैय्यर की पहल पर हम दो-तीन सौ पत्रकार जमा हो गए थे। आपातकाल के विरुद्ध भाषणों के बाद जब कुलदीपजी ने कहा कि आपातकाल और सेंसरशिप के निंदा-प्रस्ताव पर सब दस्तखत करें तो देखते-देखते ही आधा हॉल खाली हो गया। मैंने और भाई प्रभाष जोशी ने सबसे पहले दस्तखत किए।

गुरुवार मुझे फिर लगा कि इस कार्यक्रम के युवा आयोजकों ने भावी आपातकाल की चेतावनी देने के लिए इतना बड़ा आयोजन किया है लेकिन लगभग आधा दर्जन वक्ताओं ने पत्रकारिता का स्तर कैसे अच्छा बनाएं, इसी विषय पर जोर दिया। वहां लगभग सभी हिंदी पत्रकार थे। श्री रामबहादुर राय के इस सुझाव का मैंने अध्यक्षीय वक्तव्य में पूरा समर्थन किया कि खबरपालिका (मीडिया) के सांगोपांग अध्ययन के लिए सरकार एक नए आयोग की स्थापना करे और प्रेस परिषद के विशेष अधिकारों से मंडित करे।

इस सभा का मूल विषय था, ‘पत्रकारिता की आजादी और साख’! मैंने अपने अंतिम और अध्यक्षीय भाषण में कुछ अन्य वक्ताओं के श्रेष्ठ वक्तव्यों क संदर्भ देते हुए यही कहा कि प्रेस की आजादी और साख उसे न तो कोई सरकार दे सकती है, न कोई संविधान दे सकता है और न ही कोई मीडिया-मालिक दे सकता है। ये सब थोड़ा-बहुत टेका लगा सकते हैं लेकिन अपनी आजादी और साख की रक्षा पत्रकार को खुद करनी होती है। मैं देश के सबसे बड़े अखबार और सबसे बड़ी न्यूज एजेंसी का संपादक रहा लेकिन क्या कभी किसी प्रधानमंत्री की हिम्मत हुई कि वह मुझे कोई निर्देश दे सके?

मैंने पिछले 60 साल के अपने पत्रकारिता-जीवन में एक बार भी अपने अंतःकरण के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं लिखा। आपातकाल के दौरान पत्रकारिता के एक 1300 पृष्ठों के अपूर्व ग्रंथ का विमोचन राष्ट्रपति भवन में हुआ। मैं उस ग्रंथ का संपादक और उस एतिहासिक आयोजन का आयोजक था। मैंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को, कई दबावों के बावजूद, उस कार्यक्रम में निमंत्रित नहीं किया। उन्हें साधारण कार्ड तक नहीं भेजा जबकि राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति और सभी प्रमुख मंत्री उस कार्यक्रम में शामिल हुए। मेरा किसने क्या बिगाड़ लिया? जो आज़ाद रहना चाहता है, उसे दुनिया की कोई ताकत गुलाम नहीं बना सकती।

देश में डर का नकली माहौल बनाया जा रहा है ताकि इस सरकार को कलंकित किया जा सके। मैंने युवा-पत्रकारों से कहा कि वे सरकार से बिल्कुल भी न डरें। सरकार में बैठे लोग तो हमारे बिठाए हुए हैं। वे जनता के नौकर हैं। उनकी हैसियत नहीं कि वे तुम्हारी आजादी पर हाथ डाल सकें। जिस देश में नया इंडियाजैसा दैनिक अखबार निकल रहा हो और जिसमें संपादक श्री हरिशंकर व्यास और मेरे जैसे लोग रोज़ लिख रहे हों, उस देश में पत्रकारिता की आजादी संकट में है, यह कहना बिल्कुल बेजा है। यदि बड़े-बड़े अखबार और टीवी चैनल आजकल साष्टांग दंडवत की मुद्रा में हैं तो यह उनका दोष है। उन्हें अपनी आज़ादी की परवाह नहीं है और उनकी साख भी गिरती जा रही है। जो मीडिया-मालिक पैसों के गुलाम हैं और जिन पत्रकारों के प्राण उनकी नौकरी में ही बसे हुए हैं, उनके लिए आजादी और साख, दोनों ही गौण हैं।


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