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डॉ. वैदिक बोले, जजों की संख्या दो लाख भी हो तो भी न्याय मिलना मुश्किल क्योंकि...
डॉ. वैदिक बोले, जजों की संख्या दो लाख भी हो तो भी न्याय मिलना मुश्किल क्योंकि...
‘कानून अंग्रेजी में, बहस अंग्रेजी में और फैसले अंग्रेजी में। वे किसे समझ में आते हैं? सिर्फ वकीलों को और जजों को! जो फांसी पर चढ़ाया जाता है, उसे तो पता ही नहीं कि उसके बारे में बहस क्या हुई है? उसे यह भी पता नहीं होता कि जज ने जो फैसला दिया है, उसके तर्क क्या हैं?’ हिंदी दैनिक अखबार ‘नया इंडिया’ में प्रकाशित अपने आलेख के जरिए ये कहना है वरिष्ठ पत्
समाचार4मीडिया ब्यूरो
8 years ago
‘कानून अंग्रेजी में, बहस अंग्रेजी में और फैसले अंग्रेजी में। वे किसे समझ में आते हैं? सिर्फ वकीलों को और जजों को! जो फांसी पर चढ़ाया जाता है, उसे तो पता ही नहीं कि उसके बारे में बहस क्या हुई है? उसे यह भी पता नहीं होता कि जज ने जो फैसला दिया है, उसके तर्क क्या हैं?’ हिंदी दैनिक अखबार ‘नया इंडिया’ में प्रकाशित अपने आलेख के जरिए ये कहना है वरिष्ठ पत्रकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक का। उनका पूरा आलेख आप यहां पढ़ सकते हैं:
यह जादू-टोना कब बंद करेंगे?
मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायाधीशों के सम्मेलन में इस बार भारत के मुख्य न्यायाधीश तीर्थ सिंह ठाकुर यदि रो नहीं पड़ते तो अन्य सम्मेलनों की तरह यह सम्मेलन भी साधारण कर्मकाण्ड बनकर रह जाता। जस्टिस ठाकुर ने जोरदार शब्दों में सरकार से मांग की कि वह जजों की संख्या बढ़ाए। सिर्फ 18000 जज हर साल लाखों मुकदमें कैसे निपटा सकते हैं? जजों की संख्या बढ़ाने का आश्वासन प्रधानमंत्री ने तुरंत दे दिया। यह अच्छी बात है लेकिन मैं पूछता हूं कि क्या हमारी सरकार और अदालतों को असली बीमारी का कुछ पता है? क्या उन्हें पता है कि हमारी न्याय-व्यवस्था सिर के बल खड़ी है? हमारे प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश को उसका पता होना तो दूर की बात है, उन्हें उसका सुराग तक नहीं है। जजों की संख्या दो लाख भी वे कर लें तो भी भारत की जनता को न्याय मिलना मुश्किल है।
वे नहीं जानते कि हमारी न्याय-व्यवस्था जादू-टोना बनकर रह गई है। कानून अंग्रेजी में, बहस अंग्रेजी में और फैसले अंग्रेजी में। वे किसे समझ में आते हैं? सिर्फ वकीलों को और जजों को! जो फांसी पर चढ़ाया जाता है, उसे तो पता ही नहीं कि उसके बारे में बहस क्या हुई है? उसे यह भी पता नहीं होता कि जज ने जो फैसला दिया है, उसके तर्क क्या हैं?
इसका अर्थ यह हुआ कि सारी न्यायिक-प्रक्रिया हिंदी और स्थानीय भाषाओं में चलनी चाहिए। यह नहीं चलती है, इसीलिए वकीलों की दुकान चल पड़ती है। हमारे डाक्टरों की तरह वकील भी लूट-पाट के धंधे में सबसे आगे हैं। उनकी लूट-पाट इतनी तगड़ी होती है कि लोग मुकदमे दायर करने से ही डर जाते हैं। उनकी फीस बांधी क्यों नहीं जाती? यदि कानून हिंदी में हो तो मुव्वकिल खुद ही अपना मुकदमा लड़ सकता है। इससे मुकदमे भी जल्दी निपटेंगे और सस्ते में निपटेंगे। कानून की पढ़ाई भी आसान हो जाएगी और फैसले लिखने में भी जजों को देर नहीं लगेगी।
यदि ब्रिटिश कानून के सभी अच्छे पक्षों को स्वीकार करते हुए हम शुद्ध मौलिक भारतीय कानून व्यवस्था बनाएं तो मुकदमें के अंबार लगने ही बंद हो जाएंगे। भारत की प्राचीन न्याय-व्यवस्था से भी हम कुछ सीख सकते हैं। छोटे-मोटे लाखों मुकदमे तो पंचायतें और शहर की अनौपचारिक अदालतें ही निपटा सकती हैं। कानून का एक काला अक्षर जाने बिना भी उत्तम न्याय किया जा सकता है, यह बात हमें हमारे ग्रामीण और कबाइली समाजों से भी सीखनी चाहिए। हमारे स्वार्थी नेता कांग्रेस-मुक्त और संघ-मुक्त भारत की बांग लगाते रहते हैं लेकिन क्या कभी वे अपराध-मुक्त भारत की कोशिश भी करेंगे?
(साभार: नया इंडिया)
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