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LGBT: अब संबंध और संभोग का अंतर साफ तौर पर समझना चाहिए....
गत गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट का एक बहुप्रतीक्षित फैसला आया, धारा 377 को लेकर...
समाचार4मीडिया ब्यूरो 6 years ago
अनुरंजन झा
वरिष्ठ पत्रकार ।।
आजादी नहीं हवस की गुलामी है यह....
गत गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट का एक बहुप्रतीक्षित फैसला आया, धारा 377 को लेकर। अब हम सब जान गए हैं कि समलैंगिक सेक्स अर्थात संभोग, नए कानून के मुताबिक कोई अपराध नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की पीठ ने एक बार फिर न्याय का माथा ऊंचा किया और कहा कि जानवरों के साथ सेक्स तो अपराध माना जाएगा, लेकिन समलैंगिक सेक्स अब अपराध नहीं है। हालांकि अभी तक लड़के-लड़के और लड़की-लड़की की शादी को अदालत ने मंजूर नहीं किया है। शायद उसके लिए वो अगली बार न्याय का माथा ऊंचा करेंगे।
ये तो था फैसला लेकिन फैसले के बाद जिस कदर का माहौल देश में दिखा या फिर मीडिया ने दिखाया उससे मेरे मन में कई सवाल उठ खड़े हुए और आगे लिखने से पहले मैं यह साफ कर दूं कि ये न्यायाधीश चाहे कितना भी न्याय का माथा ऊंचा करें, मेरी नजर में भारतीय संस्कृति का सिर शर्म से झुका दिया। अब आप ये कहेंगे कि हम या तो दकियानूसी हैं या फिर हमने ऐसा क्यूं कहा तो अगर समलैंगिक सेक्स का विरोध दकियानूसी है तो हम हैं दकियानूस और हमने ऐसा क्यूं कहा तो हमें भारतीय संविधान अपनी बात कहने की आजादी देता है।
इस पूरे मामले में LGBT शब्द बार-बार हमारे आपके सामने आ रहा है। इसकी व्याख्या से भी हम सब वाकिफ हैं फिर भी मैं इसको विस्तारित करता हूं L-Lesbian (लड़की-लड़की का सेक्स संबंध) G-Gay (लड़के-लड़के का सेक्स संबध), B- Bi-sexual (दोनों का दोनों के साथ सेक्स संबंध), T-Transgender यानी जो पूर्ण रूप से न तो लड़का है और न लड़की उसका लड़का और लड़की या दोनों या फिर किसी दूसरे ट्रांसजेंडर से सेक्स संबंध यानी संभोग वाला रिश्ता।
समलैंगिक सेक्स का नया कानून दरअसल हमारी नजर में आजादी नहीं बल्कि हवस की गुलामी है। इसे समझने के लिए पहले हम पहले हम LG पर बात करते हैं क्यूंकि इनकी तादात ज्यादा है, समलैंगिक सेक्स जिसे बड़ी बारीकी से प्यार और आकर्षण के साथ जोड़ा जा रहा है दरअसल वो बाजार का खेल है, इसे कुछ यूं समझिए कि हम अगर LG पर गौर करें तो यह किसी भी तरीके से परवर्जन से ऊपर नहीं है, इनकी लड़ाई जिसमें तथाकथित बुद्धिजीवियों के साथ अब भारी मात्रा में अर्बन नक्सल भी समाहित हैं सब लड़ तो रहे थे समलैंगिक संभोग यानी सेक्स को लेकर लेकिन उसे प्रचारित करते रहे संबंध के नाम पर। यहां हमें अब संबंध और संभोग का अंतर साफ तौर पर समझ जाना चाहिए।
यहां मैं संभोग शब्द इसलिए लिख रहा हूं कि इस कानूनी लड़ाई को लड़ने वालों ने सेक्स शब्द को पिछले पच्चीस सालों में जिस तरीके से प्रचारित किया है और जिन आधार पर लड़ाई लड़ी है, उसमें सेक्स को वो संभोग के दायरे से बाहर निकाल ले जाते हैं बड़ी चालाकी से, इसमें छूना, आकर्षित होना, चिपकना, मुख-मैथुन या फिर ऐसे कई सारे कलाप अब सेक्स के कानूनी दायरे में आते हैं और सेक्स को परिभाषित करने के लिए वो संभोग की जगह संबंध का इस्तेमाल करते हैं। अब समलैंगिक संबंध के जरिए वो समान लिंग के अप्राकृतिक संभोग को जायज ठहरा रहे हैं, और भेड़चाल ऐसी है कि पीछे छूट जाने के डर से सब बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं।
दूसरा पहलू है BT से जुड़ा हुआ, यह थोड़ा संजीदा मामला है। इसमें पहले टी यानी ट्रांसजेंडर को समझते हैं, इनकी शारिरिक बनावट की वजह से यह न तो पुरुष हैं और न हीं स्त्री ऐसे में इनका सेक्स के प्रति रूझान दोनों तरफ हो सकता है जो न तो अनुचित है और न हीं असामान्य, हालांकि इनके मामलों में देखा गया है कि संभोग के साथ साथ सहानूभूति और अपनापन इनकी सामाजिक कुंठा से बाहर निकालने में काफी बार मददगार साबित हुए हैं। कुछ समय पहले सरकार ने पुरुष-महिला के साथ एक और वर्ग के तौर पर इनको अहमियत दी, अधिकार दिए और समाज ने भी काफी हद तक कबूल कर रखा है। समाज में यह सदियों से है और स्वीकृत भी। अदालत के ताजा फैसलों के बाद जब सोशल मीडिया पर शिखंडी को उद्धृत किया जाने लगा तो उसमें इनकी चालाकी पर हमें गौर करना चाहिए कि यह LGBT के T का मामला बहुत संजीदा है और उसे प्यार से संभालने की जरुरत है।
अब देखिए B को यानी बाईसेक्सुअल यानी विपरीत सेक्स के साथ और समान सेक्स के साथ दोनों जगह संभोग की समान रुचि रखने वाले मर्द या औरत। तो दरअसल ऐसे लोग परवर्जन के बिल्कुल कगार पर खड़े हैं, जिस प्यार की दुहाई इसकी लड़ाई लड़ने वाले लोग देते आ रहे हैं। उन्हें समझना चाहिए कि वो प्यार नहीं बल्कि वासना, हवस है जिसे संभोग के जरिेए पूरा कर रहे हैं। हो सकता है कि ऑर्गेज्म की चाह में ये लोग दोनों तरफ का रुझान रखते हों तो ऐसे में कुंठित या यूं कहिए भ्रमित लोग ऐसे दोराहे पर खड़े हैं जिनको सही रास्ते पर लाए जाने की जरुरत है। LG की लड़ाई लड़ने वालों ने इसे ऐसा घालमेल किया कि BT को न महज साथ लिया बल्कि उनकी भावनाओं के सहारे पूरी लड़ाई का स्वरूप बदल दिया। अपने अप्राकृतिक कृत्य को सीधे सीधे संभोग को प्यार ठहरा दिया।
इसकी उन तमाम समस्याओं की तरफ न्याय का माथा ऊंचा करने वालों ने क्यूं ध्यान नहीं दिया, या जानबूझकर टाल गए या फिर वो भी भेड़चाल में बह गए इस पर चर्चा करेंगे लेकिन सबसे पहले यह जानिए कि समलैंगिक सेक्स की वकालत करने वाले कौन से लोग हैं। तो जानिए कि एड्स की रोकथाम के लिए काम करने के लिए देश में आए उन तमाम विदेशी संगठनों ने पिछले 25-30 सालों में देश में ऐसा माहौल बनाया कि आज अदालत इस नतीजे पर पहुंच गई है।
हम और आप सभी जानते हैं कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक देश में समलैंगिक संभोग से एड्स जैसी लाइलाज बीमारी से ग्रसित होने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है। विदेशी चंदे पर देश में जड़ जमाने वाले एनजीओ, वासना और हवस के चपेट में आए मनोरोगी जिनके लिए किसी के साथ भी संभोग करना जरुरी है चाहे वो जानवर ही क्यूं नहीं हो, काम-वासना को दिमाग में स्थापित करने वाले तथाकथित विक्षिप्त लोग और उनके लिए तरह-तरह के सेक्स रैकेट चलाने वाला संगठनों का मजबूत गठजोड़ इन कुकृत्यों के पीछे पूरी ताकत से जुटे हैं। पूरी दुनिया में सिनेमा का जितना बड़ा बाजार है उससे कई कई गुना बड़ा बाजार पोर्न फिल्मों का है, समलैंगिक संभोग के सिनेमा का बाजार वहां पहले से मौजूद है और अब ये फैसले उस कमाई को और बढ़ाएंगे और आपको जानकारी होनी चाहिए कि पोर्न फिल्मों के बाजार का एक बड़ा हिस्सा दुनिया भर में आतंकवाद को बढ़ाने में भी खर्च होता है।
मीडिया ने जिस तरीके से मामले को भेड़चाल वाली अपनी आदतों से तौला वो ज्यादा चिंताजनक है। देश के सबसे बड़े अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपनी लीड लगाई- Independence– 2. तो क्या आप भी ऐसा मानते हैं? अंग्रेजों की दो सौ साल की गुलामी, अत्याचार और तमाम लड़ाईयों की तुलना देश का सबसे बड़ा मीडिया घराना एक ऐसे मामले में से कर रहा है जिसमें पिछले 158 साल के इतिहास में शायद इतने ही लोग जेल गए हों या फिर शायद इतने भी नहीं, क्या यह वाकई दूसरी आजादी जैसा मामला है, तो मेरा जवाब है बिल्कुल नहीं बल्कि ये बाजार का प्रभाव है लेकिन हिंदुस्तान टाइम्स को इस फैसले में रेनबो नेशन दिखता है तो इंडियन एक्सप्रेस लिखता है लव एट फर्स्ट साइट - अब यहीं दिमाग का दिवालियापन का सामने आता है। क्यूंकि यह प्यार तो है ही नहीं, प्यार और संभोग को आपने एक झटके में एक कर दिया और पिछलग्गू मीडिया, कुंठित बुद्धिजीवी और तथाकथित अर्बन नक्सल सब एक साथ एक ऐसे प्लेटफार्म पर आ गए और अचानक आस-पास के लोगों के हाव-भाव देख यौन कुंठित समाज का एक विभत्स चेहरा सामने आया।
भविष्य की जिन खतरनाक संभावनाओं की तरफ इन न्याय का माथा ऊंचा करने वालों का ध्यान नहीं गया या फिर ध्यान नहीं दिया यहां हम उन खतरों से आपको थोड़ा रु-ब-रू कराते हैं ताकि आप इस मामले की संजीदगी को समझ पाएं। इससे समाज में अप्राकृतिक समलैंगिक सेक्स का चलन बढ़ेगा, अप्राकृतिक यौन अपराध, समलैंगिक बलात्कार भी बढ़ेंगे और इससे जुड़े देह व्यापार का रैकेट भी निश्चित तौर पर दिखेगा।
जिस तरीके से अगले कुछ सालों तक मीडिया और तथाकथित बुद्धिजीवी इसे गर्व का विषय बनाएंगे उससे बच्चे, किशोर और युवाओं की पीढ़ियां प्रभावित होंगी, समलैंगिक बलात्कार और उससे जुड़े तमाम वो अपराध होंगे जो अभी तक विपरीत सेक्स के मामले में देख जा रहे हैं, मसलन, ब्लैकमेलिंग, देह-व्यापार और ट्रैफिकिंग इत्यादि। इसको दूसरी आजादी का नाम देने वाले यह क्यूं नहीं देख पा रहे हैं कि लड़कियों पर अभी तक पहले ही इतने अत्याचार होते रहे हैं जाहिर है यौन अत्याचार अभी तक पुरुष ही करते रहे हैं उनमें अब औरतें भी शामिल हो जाएंगी तो क्या होगा, न्याय का माथा ऊंचा करने वालों को यह भी सोचना चाहिए था ऐसे अपराधों में अभी ही उनकी व्यवस्था पूरी चरमराई हुई है और उसमें इससे जुड़े अपराध बढ़ेंगे तो उसका बोझ वो कैसे उठा पाएंगे।
एक तरफ जहां सामाजिक ताने-बाने में पति-पत्नी के रिश्तों पर असर दिखेगा वहीं दुनिया की सबसे खतरनाक बीमारी एड्स जिसमें समलैंगिक संभोग का पहले से बड़ा योगदान है आने वाले दिनों में असर कितना भयावह होगा। इन खतरों पर पत्रकार मित्र अभिरंजन कुमार ने अपने लेख में विस्तार से लिखा है।
डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट कहती है कि आज समाज में समलैंगिक सेक्स करने वालों की आबादी 6-8 फीसदी है, अब जब इसको कानूनी मान्यता मिल रही है अगले बीस सालों में निश्चित तौर पर यह आबादी पंद्रह फीसदी के करीब होगी देश के अल्पसंख्यकों के बराबर, और जरा सोचिए कि क्या होगा, आज की बीजेपी की संस्कारी सरकार के दौरान इतना अहम फैसला आया तो बीस साल बाद कोई पार्टी तब इस आबादी को ध्यान में रखते हुए आरक्षण जैसा कार्ड भी खेल सकती है।
न्याय का माथा ऊंचा करने वालों के ध्यान में यह बातें नहीं आई होंगी क्योंकि उनको भविष्य से क्या, बल्कि उनको वर्तमान से भी क्या लेना। करोड़ों बेसहारा-मजबूर सालों से अपनी जमा-पूंजी उन कानूनी लड़ाईयों में गंवा रहे हैं जिनपर फैसला सालों से लटका पड़ा है, लेकिन यहां तो न्याय का माथा उंचा करना था और इतिहास में दर्ज होना था।
लेकिन वो शायद भूल रहे हैं कि फैसले तो इतिहास में जरुर दर्ज होंगे लेकिन फैसले की पीठ इतिहास के पन्नों से कब गायब हो जाएगी पता भी नहीं चलेगा, और आप एक बार गौर से सोचिएगा नहीं तो अगली बार इंडिया गेट से प्रेसिडेंट हाउस तक आप प्रदर्शन कर रहे होंगे किसी निर्भया के लिए नहीं, निर्भय के लिए और यह मीडिया आपको उसी उत्साह से कवर कर रहा होगा जिस उत्साह से वो अभी आपकी दूसरी आजादी में शरीक है, क्योंकि वो तो अब अजीब भूमिका में हैं।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
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