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मिस्टर मीडिया: जब शिखर पर विराजे चैनलों का ये हाल है तो भरोसा कौन करेगा?
सावधान! समय आ पहुंचा है। वक़्त की बारूद के ढेर पर बैठ चुके हैं...
राजेश बादल 5 years ago
राजेश बादल
वरिष्ठ पत्रकार।।
जी हां! मुझे पता है, शीशा टूटेगा/लेकिन पत्थर सा सन्नाटा टूटेगा/बाहर वाले आज़ादी के क़ैदी हैं/भीतर से ही ये दरवाज़ा टूटेगा/
सावधान! समय आ पहुंचा है। वक़्त की बारूद के ढेर पर बैठ चुके हैं हम। वर्षों में अर्जित साख की संपत्ति लुटने में देर नहीं लगती। उसे कमाने में देर लगती है। मीडिया के सारे अवतारों के लिए गंभीर चेतावनी है। प्रिंट हो या टेलिविज़न, रेडियो हो या अख़बार। सोशल मीडिया हो अथवा सामूहिक जनसंचार। हर रूप में अपना चेहरा बदरंग होते देख रहे हैं। काम के स्तर पर जैसा व्यवहार कर रहे हैं, उससे नहीं लगता कि हमें ख़तरे का अहसास भी है। रॉयटर्स, पीटीआई, हिन्दू, क्विंट और इंडियन एक्सप्रेस के साझा सर्वे की ताज़ा रिपोर्ट नींद उड़ाने वाली है। मीडिया के ये पांच घराने साख के शिखर पर हैं। इनके किसी भी सर्वेक्षण को हल्के-फुल्के ढंग से नहीं लिया जा सकता। इस सर्वेक्षण का सार यह है कि नौजवानों का हमारे सर्वाधिक प्रतिष्ठित माध्यमों पर भरोसा घटता जा रहा है। यदि यह सच है तो फिर आने वाले दिन खतरे की घंटी बजा रहे हैं।
चंद रोज़ पहले एक चैनल के एक स्ट्रिंगर से बात हुई। स्ट्रिंगर का नाम और चैनल का खुलासा करना इस मंच पर उचित न होगा। उससे कहा गया कि लोकसभा चुनाव में अलग-अलग मतदाताओं की पंचायतें लगाकर उसमें राजनीतिक दलों और नेताओं के बारे में राय पूछिए।स्ट्रिंगर ने करके भेज दिया। आम तौर पर स्थानीय स्तर पर किसी भी समाज में सर्वसम्मति कभी नहीं बनती। इन पंचायतों में सभी तरह की राय प्रकट की गई। स्ट्रिंगर ने रिकॉर्डिंग भेज दी। जब इन पंचायतों का प्रसारण हुआ तो उस पत्रकार को बेहद झटका लगा। उसके शब्दों में, ‘मेरी यहां छवि निष्पक्ष पत्रकार की है। मेरे बुलावे पर समाज के सभी वर्गों के लोग आए। जब प्रसारण हुआ तो देखकर धक्क रह गया। उसमें से अधिकांश मतदाताओं की राय हटा दी गई थी और सिर्फ एक ही दल के गीत गाए गए थे। अन्य सुरों को प्रसारण में स्थान नहीं मिला था। मैंने आपत्ति दर्ज़ कराई, लेकिन किसी ने नहीं सुनी। इससे मेरी सामाजिक स्थिति अत्यंत खराब हो गई। शहर के ज़्यादातर घरों में लोगों ने उस चैनल को देखना छोड़ दिया। उन्हें लगा कि यह एक ही दल का प्रवक्ता बन कर रह गया है।‘ जब शिखर पर विराजे चैनलों का यह हाल हो तो भरोसा कौन करेगा? विडंबना यह कि उस शहर में नुकसान किसका हुआ? सैकड़ों घरों में लोगों ने उसका बायकॉट कर दिया।
मेरे पास कल फेसबुक पर एक मित्र ने एक विदेशी कार्टूनिस्ट का एक कार्टून भेजा। मैं यह देख कर दंग रह गया। यह शर्मनाक और अपमानजनक था। इतना गंदा कि मैं उसे शेयर भी नहीं कर सकता। एक शिखर नेता मादा की शक़्ल में लेटे हुए हैं और अनेक चैनलों के लोग उससे फीडिंग लेते दिखाई दे रहे हैं। विदेशों में इस तरह की कार्टून कला पर किसी को शायद बुरा नहीं लगता होगा, लेकिन भारत का परंपरागत समाज इसे देखने और मंज़ूर करने के लिए अभी तैयार नहीं हुआ है। यह इस बात का सबूत है कि हिन्दुस्तान के मीडिया की छवि इससे गंदी कभी नहीं रही। हम अपने घर में अपना धुंधलाया चेहरा तो स्वीकार कर सकते हैं, लेकिन परदेस में कीचड़ उछलेगा तो यह ठीक नहीं होगा। भारत के मीडिया की अभी अंतर्राष्ट्रीय छवि अच्छी है। कृपया इस पर दाग़ लगने से बचाइए।
इसी तरह भारत ने उपग्रह को नष्ट करने की तकनीक हासिल की। यक़ीनन हमारे लिए गर्व की बात है। मगर मीडिया के अनेक रूपों में इसे जिस तरह पेश किया गया, वह हमारे सोचने-समझने और विश्लेषण करने की क्षमता पर अनेक सवाल खड़े करता है। विज्ञान के एक जटिल और संवेदनशील विषय को भी हमने सतही और राजनीतिक कवरेज से जोड़कर पेश किया। दर्शक या पाठक की एक समग्र कवरेज की भूख शांत नहीं हुई। दूसरी तरफ़ बीबीसी जैसे संस्थान ने बहुत अच्छी कवरेज की। विश्लेषण में अगर नीयत निष्पक्ष और सकारात्मक होती है तो उस पर कोई उंगली नहीं उठाता, पर जब राष्ट्रहित के मुद्दे का सियासी फ़ायदा उठाने की मंशा हो और पत्रकारिता उसका उपकरण बन जाए तो इसे जायज़ नहीं कहा जा सकता। इस पर ध्यान देना होगा मिस्टर मीडिया!
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