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‘सोशल मीडिया व कुछेक टीवी चैनल मीडिया विरोधी आवाजों को प्रमुखता दे रहे हैं’
सरकारी और व्यावसायिक उपक्रमों के कुछ संदिग्ध तौर-तरीकों की जनहित में पड़ताल कर उन पर रपट देना मीडिया का कर्तव्य है...
समाचार4मीडिया ब्यूरो 7 years ago
‘पत्रकारिता के सामान्य शिष्टाचार को परे कर जयललिता के निधन की खबर को राजनीतिक वजहों से जबरन सात घंटे तक रुकवाया गया। एक राज्यसभा सांसद के औद्योगिक साम्राज्य पर एक ऑनलाइन साइट पर छपने जा रही लेख श्रृंखला को भी अदालती आदेश के जरिये छपने से पहले ही रोक दिया गया।’ हिंदी अखबार दैनिक जागरण में छपे अपने आलेख के जरिए ये कहना है वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार मृणाल पांडे का। उनका पूरा आलेख आप यहां पढ़ सकते हैं-
जरूरी है असहमति की आवाज
सरकारी और व्यावसायिक उपक्रमों के कुछ संदिग्ध तौर-तरीकों की जनहित में पड़ताल कर उन पर रपट देना मीडिया का कर्तव्य है। अभिव्यक्ति के हक की सुरक्षा के नाम पर हमारे संविधान ने इसकी तस्दीक भी की है। इसके बावजूद मीडिया की हर एक आलोचनापरक रपट पर शक और गुस्सा जाहिर करना एक वर्ग विशेष का शगल बनता जा रहा है। इधर मीडिया में भी स्पर्धा बढ़ी है। अधिकाधिक ग्राहकों को लुभाने के लिए सोशल मीडिया और कुछेक टीवी चैनल भी मीडिया विरोधी आवाजों को काफी प्रमुखता दे रहे हैं। कुल मिलाकर इस सबसे कई बार गंभीर रपटों की आलोचना को गंभीरता से लेने के बजाय जनता उसे संदेह की दृष्टि से ही देखने लगती है। हम मीडिया की सौ फीसद पाकदामनी की घोषणा नहीं कर रहे, लेकिन इसमें शक नहीं कि एक लोकतंत्र में राज-समाज की स्वस्थ आलोचना और उस पर ईमानदार खबरें देना असंभव बन जाए तो खबरों का शून्य आगे जा कर तानाशाही की ही राह खोलता है।
विगत तीन मई को विश्व पत्रकारिता दिवस पर ‘द मीडिया फाउंडेशन’ नाम की संस्था ने जनवरी, 2016 से अप्रैल, 2017 के कालखंड में भारतीय मीडिया को लेकर अपनी सालाना शोध रपट जारी की। इस गैर-सरकारी संस्था की स्थापना से बीजी वर्गीज, निखिल चक्रवर्ती जैसे कई आला दर्जे के पत्रकार जुड़े रहे हैं। रपट के छह हिस्सों में खोजी पत्रकारों पर हिंसक हमलों, नई तरह की सेंसरशिप के उदय, अदालतों में अभिव्यक्ति के अधिकार और अवमानना पर चल रहे मुकदमों, सूचनाधिकार में प्रस्तावित कटौतियों, इंटरनेट पर लगाई गई पाबंदियों के अलावा कला जगत की अभिव्यक्ति की आजादी पर हुए हमलों का सरकारी सूत्रों और आंकड़ों के हवाले से विशुद्ध ब्यौरा दिया गया है। उसे गौर से पढ़ने पर कई जटिल और गूढ़ जानकारियां प्राप्त होती हैं जिनकी मीडियाकर्मियों के लिए ही नहीं, अपितु आम पाठक-दर्शक के लिए भी उपादेयता है। रपट संस्था की वेबसाइट पर भी उपलब्ध है।
रपट के अनुसार पिछले 17 महीनों में खोजी पत्रकारों पर 54 हमले दर्ज किए गए। उनकी तादाद शायद ज्यादा ही हो, क्योंकि सरकार ने लोकसभा में 2014-15 तक हमलों की तादाद 142 बताई है। इन मामलों में घायल या मारे गए अधिकांश पत्रकार भाषाई पत्रकारिता से जुडे़ थे और चुनावी गतिविधियों, सरकारी उपक्रमों के संदिग्ध कामों, खदान और निर्माण माफिया, जन विस्थापन अथवा स्वयंभू गोरक्षकों की हिंसा और स्वास्थ्य से जुड़ी लापरवाहियों की पड़ताल करते हुए हिंसा के शिकार हुए। यह और भी चिंताजनक है कि पत्रकारों के विरुद्ध हिंसा करने वालों का दायरा लगातार बड़ा हो रहा है। इनमें अब भाडे़ के गुंडे ही नहीं, बल्कि केरल और दिल्ली जैसी जगहों के कुछ वकील, वर्दीधारी पुलिस, बॉलीवुड सितारे या उनके अंगरक्षक, छात्र परिषदों के जत्थे और विभिन्न दलों के समर्थक तक शामिल रहे। जहां तक पत्रकारों को धमकियां मिलने की बात है तो पुलिस से लेकर सोशल मीडिया के ट्रोल्स, वकीलों, खदान मालिकान और दलों से जुडे़ छात्र संगठनों तक कोई इसमें पीछे नहीं रहा। कई मामलों में आपराधिक मानहानि का दावा ठोंक कर खोजी पत्रकारों की आवाज या उनके चैनल बंद कराने की कोशिशें भी बढ़ी हैं। ऐसे मामलों में एक पत्रिका में असम में बच्चों की तस्करी पर रपट लिखने वाली महिला पत्रकार नेहा दीक्षित, पत्रिका के संपादक और दक्षिण भारत का साक्षी टीवी, कश्मीर के दो बड़े अखबार भी शामिल हैं।
यह भी ध्यान रहे कि पत्रकारिता के सामान्य शिष्टाचार को परे कर जयललिता के निधन की खबर को राजनीतिक वजहों से जबरन सात घंटे तक रुकवाया गया। एक राज्यसभा सांसद के औद्योगिक साम्राज्य पर एक ऑनलाइन साइट पर छपने जा रही लेख श्रृंखला को भी अदालती आदेश के जरिये छपने से पहले ही रोक दिया गया। नोटबंदी के विवादित फैसले पर भी कुछ आलोचनापरक वक्तव्यों को हटाने तक की खबरें हैं। ‘राम ते अधिक राम कर दासा’ को चरितार्थ करते हुए मध्य प्रदेश में एक जिलाधीश ने इस बाबत किसी तरह की नकारात्मक जानकारी इंटरनेट पर साझा करने पर दफा 144 के तहत रोक लगा दी जो इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन संस्था का कानूनी नोटिस मिलने के बाद ही निरस्त हो सकी। रपट में स्नोत सहित दर्ज मामले देखने के बाद यह साफ लगता है कि इन दिनों बड़े दलों और उनसे संबद्ध इकाइयों में अप्रिय खबर को लेकर असहनशीलता बेतरतीब ढंग से बढ़ रही है। मुद्दे पर अपना पक्ष साफ करने के बजाय वे अक्सर रपट देने वालों को सीधे धमकी, मारपीट और अंतत: आपराधिक अवमानना जैसे मामलों तक घसीटकर मुकदमेबाजी में उलझा देते हैं।
धंधई पत्रकार ही नहीं, सोशल मीडिया पर भी ताकतवर धड़ों को अपने हक में कोई भी टिप्पणी नागवार गुजरी तो लिखने वाले नागरिक पर देशद्रोही होने का ठप्पा लगा कर उसे प्रताड़ित किया जाता है। कम उम्र बच्चों तक को नहीं छोड़ा जा रहा। पाठक इसी साल ‘दंगल’ की किशोर अभिनेत्री जायरा वसीम की राज्य की मुख्यमंत्री से भेंट के ‘अपराध’ में दी गई धमकियों या शहीद सैनिक की बेटी गुरमेहर को सोशल मीडिया पर संगीन धमकियां मिलने के मामले भूले न होंगे। कथित देशद्रोह के ऐसे 18 मामले 2016 में जनवरी से जून के बीच दर्ज कराए गए। जब नागरिक संगठन ‘कॉमन कॉज’ ने देशद्रोह कानून के गलत-सलत इस्तेमाल को चुनौती देकर अदालत से देशद्रोह की प्रामाणिक व्याख्या करने की याचना की तब तक ऐसे मामलों की तादाद बढ़कर 40 हो गई थी।
लोकतंत्र में खुली सूचना पाने और जनभागीदारी बढ़ाने की दिशा में सूचना का अधिकार एक बेहद अग्रगामी हथियार है जिसे 2005 में देश के नागरिकों ने कई संगठनों के लंबे सार्थक प्रयासों से पाया। इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इससे लग जाता है कि 2005 से 2015 के बीच इसके तहत जानकारी पाने के लिये 46.2 लाख आवेदन आए। इनमें एक चौथाई सरकारी कामकाज के संदर्भ में हैं। न तो मीडिया सरकारी गोपनीयता कानून के तहत सयत्न छिपाए गए कई बड़े घोटालों को इसके बिना प्रकाश में ला सकता था और न ही कई नागरिक अपने खिलाफ गलती से या जानबूझकर हुए अन्याय को तर्कसंगत रूप से चुनौती दे सकते थे। उक्त रपट के अनुसार, उसका दायरा भी संकुचित हो रहा है, क्योंकि राज-समाज के कई धड़े अपनी गोपनीयता जनता के साथ साझा नहीं करना चाहते और इसके दायरे से खुद को बाहर रखने के पक्षधर हैं। इसे नाथने की दिशा में सेवानिवृत्त अफसरों को उन पदों पर नियुक्त करने जैसा एक अजीब कदम उठाया गया जबकि कानूनन उन पर जनसंगठनों और जनता के सम्मानित प्रतिनिधियों की नियुक्ति होनी चाहिए थी। विगत में प्रसार भारती से लेकर पंचायती राज जैसी कथित स्वायत्त संस्थाओं के साथ भी यही हुआ जिससे संस्थाओं की कामकाजी स्वायत्तता कम हुई और बाबूशाही पर निर्भरता बढ़ने से सरकारों को संस्थाओं पर अपना चिरंतन दबाव बनाए रखने और हस्तक्षेप करने का बड़ा सफल लीवर भी मिल गया।
सब दरवाजे बंद नजर आएं तब भी लोकतंत्र में एक खिड़की खुली ही रहती है-न्यायपालिका। तमाम निराशा के बीच तमिल लेखक पेरुमल मुरुगन मामले में मद्रास हाईकोर्ट का आदेश सुखद रहा। मुरुगन धमकियों से उकताकर लेखन छोड़ने का फैसला कर चुके थे। इस पर अदालत ने कहा, ‘एक लेखक का काम है उत्कृष्ट लेखन। उसे उस काम के लिए आजाद छोड़ दें।’ उम्मीद है देर-सवेर लोकतांत्रिक देश में विचारों की आजादी अवध्य बनाए रखने का यही संदेश मीडिया के संदर्भ में भी स्थापित होगा।
(साभार: दैनिक जागरण)
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