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मीडिया को डुबा न दे सोशल मीडिया का झूठ

पत्रकारिता जगत में एक वाक्य अक्सर सुना जाता था, ‘यह प्रोपेगंडा है, खबर नहीं’। लेकिन अब वक्त बदल चुका है। खबरों की दुनिया में इंटरनेट और सोशल मीडिया...

समाचार4मीडिया ब्यूरो 7 years ago

फेक न्यूज हमारे दौर की एक बड़ी समस्या बनते जा रहे हैं। जाने-माने लोग भी फर्जी खबरों के जरिए पब्लिक मूड को मनचाही दिशा में मोड़ने की कोशिश करने लगे हैं। हिंदी दैनिक नवभारत टाइम्स में छपे अपने आलेख के जरिए ये कहना है वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र पी. मिश्रा का। उनका पूरा आलेख आप यहां पढ़ सकते हैं-

मीडिया को डुबा न दे सोशल मीडिया का झूठ

पत्रकारिता जगत में एक वाक्य अक्सर सुना जाता था, ‘यह प्रोपेगंडा है, खबर नहीं। लेकिन अब वक्त बदल चुका है। खबरों की दुनिया में इंटरनेट और सोशल मीडिया का इतना बोलबाला हो गया है कि यह पहचान कर पाना मुश्किल है कि कौन सी खबर नकली है और कौन सी असली। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 25 मई को रामनाथ गोयनका मेमोरियल लेक्चर में रेखांकित किया कि सोशल मीडिया ने हर किसी को जुबान दे दी है। यह इसका लोकतांत्रिक पहलू है। लेकिन यह भी सच है कि सोशल मीडिया अफवाहों और फर्जी खबरों का वाहक बन गया है।

नई प्रवृत्ति यह है कि संस्थागत मीडिया भी न केवल सोशल मीडिया के एजेंडे से संचालित हो रहा है बल्कि उसकी फर्जी खबरों को भी जाने-अनजाने प्रचारित-प्रसारित करने लगा है। हाल के दिनों में सोशल मीडिया के साथ संस्थागत मीडिया में भी कुछ ऐसी खबरें आईं जो भारतीय लोकतंत्र के लिए लिए शुभ संकेत नहीं हैं। मई में झारखंड के जादूगोड़ा इलाके में पहले फेसबुक और बाद में वॉट्सऐप पर लोगों को सावधानकरते हुए एक पोस्ट डाली गई कि राज्य में बच्चा चोर गिरोह सक्रिय है। कई जगहों पर गिरोह के सदस्यों को पकड़ कर पुलिस के हवाले किया जा चुका है।एक बिजनेसमैन के अलावा कुछ मीडियाकर्मियों ने भी इस पोस्ट को वॉट्सऐप ग्रुपों में फॉरवर्ड किया। इसके नतीजे भयानक निकले। यह फर्जी खबर थी, जो सोशल मीडिया से फैली थी, लेकिन परिणाम यह हुआ कि शोभापुर और बागबेरा में 18 मई को भीड़ ने बच्चा चोर मानते हुए सात लोगों को पीट-पीट कर मार डाला।

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से जुड़ी खबर इस मायने में विशेष है कि सोशल मीडिया की इस खबर को देश के एक प्रतिष्ठित न्यूज चैनल ने अपने उस कार्यक्रम में दिखाया था, जिसका घोषित मकसद सोशल मीडिया पर चल रहे झूठों का पर्दाफाश करना है। सबको मालूम है कि रमजान के दौरान मुस्लिम समाज की दिनचर्या बदल जाती है। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में भी रोजा के नियमों का पालन होता है। यहां मुस्लिम छात्र ज्यादा हैं, इसलिए मेस का टाइम टेबल भी बदल जाता है। इसी तथ्य को इस चैनल ने 30 मई के अपने कार्यक्रम में इस तरह पेश किया कि जैसे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में गैर-मुस्लिम छात्रों से जबरन रोजा रखवाया जा रहा हो। मीडिया में हल्ला-गुल्ला मचने से विश्वविद्यालय के लिए परेशानी न खड़ी हो जाए, इस आशंका को टालने के मकसद से अधिकारियों ने आदेश जारी किया कि कैंटीन में दोपहर में मांगने पर भोजन उपलब्ध कराया जाएगा। इस आदेश को चैनल ने सोशल मीडिया की खबर की पुष्टि के तौर पर पेश किया।

तीसरी घटना लेखिका अरुंधती रॉय से जुड़ी है। बीजेपी सांसद परेश रावल ने 17 मई को ट्वीट किया कि पत्थरबाज की बजाय अरुंधति रॉय को सेना की जीप से बांधना चाहिए। अप्रैल में श्रीनगर लोकसभा उपचुनाव के दौरान सेना के एक मेजर ने एक कश्मीरी युवक को जीप के सामने बांध कर सड़कों पर घुमाया था। इस घटना का विडियो सामने आने के बाद पूरे देश में हंगामा हुआ था। परेश रावल ने इसी विडियो के संदर्भ में ट्वीट किया था, लेकिन उनके ट्वीट की तात्कालिक वजह कुछ वेबसाइटों पर छपा अरुंधती रॉय का वह बयान था जिसके मुताबिक कश्मीर में 70 लाख भारतीय सैनिक आजादी गैंग को परास्त नहीं कर सकते। बाद में पता चला कि अरुंधती रॉय ने यह बयान दिया ही नहीं था। पाकिस्तानी मीडिया के इस फेक न्यूजको इन वेबसाइटों ने हाथो-हाथ लिया था, क्योंकि यह उनके एजेंडे को आगे बढ़ा रहा था।

सचमुच फेक न्यूज हमारे दौर की एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। जाने-माने लोग भी इसके जरिए पब्लिक मूड को मनचाही दिशा में मोड़ने की कोशिश करने लगे हैं। बहरहाल, सोशल मीडिया के प्रवाह को रोक पाना तो संभव नहीं है, पर संस्थागत मीडिया ने झूठ और सच में फर्क न किया तो वह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का दर्जा जरूर खो देगा।

(साभार: नवभारत टाइम्स)


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