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मिस्टर मीडियाः न्यूज अगर प्रोडक्ट है तो उसे वैसा बनाकर दिखाइए
क़रीब तीस बरस पुरानी बात है, जब देश के बहुत बड़े मीडिया घराने ने फ़ैसला किया...
राजेश बादल 5 years ago
राजेश बादल
वरिष्ठ पत्रकार।।
क़रीब तीस बरस पुरानी बात है। देश के बहुत बड़े मीडिया घराने ने फ़ैसला किया कि वह अपने अंग्रेजी अख़बार के नाम पर ही एक और समाचार पत्र हिंदी में निकालेगा। संपादकों को अटपटा लगा। उन्होंने पूछा, ‘अगर अंग्रेजी में वह चल रहा है तो उसी नाम का अलग से हिंदी में अख़बार निकालने की क्या आवश्यकता है, जबकि हिंदी में उसी समूह का एक अन्य अख़बार निकल रहा है?’ मैनेजमेंट से उत्तर आया, ‘एक ही कंपनी जब अनेक नामों से नहाने वाले साबुन निकालती है तो उसका कोई विरोध नहीं करता। अख़बार के मामले में एतराज़ क्यों होना चाहिए?’ संपादकों की नहीं चली। मीडिया घरानों में अपने समाचारपत्र को प्रोडक्ट मानने की यह शुरुआत थी।
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इन दिनों तो मीडिया इंडस्ट्री की शक़्ल ले चुका है। इसलिए अब टीवी चैनल, अख़बार, मैगज़ीन्स और पोर्टल्स भी उत्पाद यानी प्रोडक्ट ही माने जाएंगे। इन उत्पादों की गुणवत्ता जांचने का पैमाना भी होना चाहिए। हिन्दुस्तान में एक सख़्त उपभोक्ता संरक्षण क़ानून मौजूद है। फफूंद लगी ब्रेड, डिब्बा बंद खराब खाद्य पदार्थ और देह पर रिएक्शन करने वाली दवाओं से लेकर अस्पताल, रेलवे और विमान सेवा में असुविधा तक इसके दायरे में आते हैं। ज़ाहिर है मीडिया प्रोडक्ट भी इस क़ानून की परिधि में हैं।
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मेरे एक परिचित सेवानिवृत्त न्यायाधीश हैं। उन्होंने इस क़ानून का गहराई से अध्ययन किया है। उनकी राय है कि भारत में दरअसल मीडिया-प्रोडक्ट को यूज़ करने वाले उपभोक्ता अभी इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे हैं कि ये प्रोडक्ट उनकी मानसिक सेहत को गंभीर नुकसान पहुंचाने लगे हैं। मगर सच यही है कि यह दुष्प्रभाव अब ख़तरनाक़ हद तक पहुंच गया है। प्रोडक्ट निर्माताओं के लिए ख़तरे की घंटी। जिस दिन भी उपभोक्ता के सब्र का बांध छलका, मीडिया घरानों की सिट्टी पिट्टी गुम हो जाएगी। इसलिए वक़्त रहते अपने प्रोडक्ट की क़्वॉलिटी सुधार लें तो बेहतर।
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क़्वॉलिटी सुधारने से क्या मतलब है? कुछ उदाहरणों से स्पष्ट हो जाएगा। एक अख़बार दिल्ली से निकलता है और देश के सभी राज्यों की ख़बरें उसमें नहीं मिलतीं तो उसे अपने आप को राष्ट्रीय क्यों कहना चाहिए? वह हिंदी में निकलता है और अहिंदी भाषी इलाक़ों की ख़बरें नहीं देता। जिस शहर में उसका प्रसार है और वहां की ख़बर नहीं छापता तो पाठक-उपभोक्ता के साथ अन्याय है।
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यही सिद्धांत टीवी चैनलों पर भी लागू होता है। इसके अलावा यदि चैनल ऐसी सामग्री प्रसारित करता है, जो दर्शक-उपभोक्ता पर थोपी गई है तो उस पर भी आपत्ति दर्ज़ कराई जा सकती है। तथ्य, भाषा और उच्चारण के आधार पर होने वाली त्रुटि भी एतराज़ का सबब बनती है। बहलाने फुसलाने वाले विज्ञापन तो सौ फीसदी ग़ैरक़ानूनी हैं। कोई बाबा ताबीज़ बेचकर आपकी मनोकामना पूरी नहीं कर सकता, प्रेमी-प्रेमिका से शादी नहीं करा सकता और न ही यौन दुर्बलता दूर कर सकता है। इस पर आपका डिस्क्लेमर भी कोई वैधानिक बचाव नहीं कर सकता।
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कमज़ोर कंटेंट अर्थात कमज़ोर प्रोडक्ट। दर्शक-पाठक क्यों बर्दाश्त करे? वह अख़बार और चैनल के दफ़्तर पर धरना क्यों न दे? वह डीटीएच शुल्क अदा करता है, केबल ऑपरेटर को पैसा देता है और हॉकर को पैसा देता है। जिस गुणवत्ता की सेवा वह चाहता है और भुगतान के बाद उसे नहीं मिलती तो यक़ीनन वह पीड़ित की श्रेणी में आएगा। अब इस देश में एक पाठक-दर्शक आंदोलन की ज़रूरत है मिस्टर मीडिया!
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